श्रीनिधि राघवन 'आखिर भगशेफ/क्लिटोरिस क्या है ?’* सवाल यूं हो सकता है, या फिर टूटे दिल के मसले को लेकर भी हो सकता है । सो लीजिये, आज एक लैंगिकता (सेक्सुअलिटी) की शिक्षिका हमें बता रही हैं कि वो कौन सी बातें हैं जो कि पुरुषों के दिमाग पर छाई हुईं हैं। (*भगशेफ/क्लिटोरिस/clitoris- औरत के गुप्तांगों में वो मटर के आकार का जादूई बटन जिससे उन्माद हासिल हो सकता है I) सेक्सुअलिटी एडुकेटर होने के कारण, मुझे अक्सर सहमति (consent), लालसा (desire), सेक्स, प्रेम और रिश्तों आदि के बारे में बात करने के लिए वर्कशॉप्स में बुलाया जाता है। कभी हम आराम से कई मुद्दों पर बात कर जाते हैं। और कभी-कभी जेंडर संबंधी बातचीत पर खास फोकस होता है। इन सभी वर्कशॉप्स में मेरा एप्रोच एक जैसा ही रहता है: हम सब के लिए एक ऐसा माहौल बनाना जहाँ सीखने-सिखाने वाली बातें हों। मेरी कोशिश रहती है कि ऐसा न हो कि हम पहले से किसी निर्धारित एजेंडा को लेकर वहां पहुचें और सब कुछ उसी ओर ले जाएँ। ज़्यादातर इन वर्कशॉप्स में केवल महिलाएं होती हैं। इससे सब सहज महसूस करते हैं और अपने अनुभवों के बारे में खुल कर बात कर पाते हैं। इस बात का डर नहीं होता कि कोई टेढ़ा सवाल करेगा या कुछ आनन-फानन बोल देगा। वर्कशॉप कराने वालों और उसमें भाग लेने वालों का जोश एक सामान तो नहीं होता, लेकिन हम जैसे तैसे अपना रास्ता बनाते भी जाते हैं। हाँ, कभी-कभी यह ग्रुप मिक्स्ड (mixed) भी होते हैं। ज़्यादातर वर्कशॉप्स में पुरुष के मुकाबले महिलाएं ज़्यादा होती हैं और कभी-कभार पुरुष और महिलाएं बराबर संख्या में भी रहते हैं। जब मैंने पहली बार महिला-पुरुष मिश्रित ग्रुप के साथ वर्कशॉप शुरू किया था, तो मुझे थोड़ा संकोच हुआ था। मैं सोचती थी कि क्या औरत और आदमी एक दूसरे के वहां होते, खुल कर बात कर पाएंगे? कहीं कोई ये ना समझ बैठे कि सब उसकी आलोचना कर रहे हैं, कोई इस वजह से अपने को एकदम अकेला न महसूस करे... ये सब मैनेज कर पाउंगी? मैं महिलाओं का गुस्सा जानती थी। और इस गुस्से को अपनी ओर आते हुए देख, पुरुषों का अपनी बात पर अड़ जाने को भी पहचानती थी। होता क्या है कि हम वर्कशॉप में अपने अनुभवों के साथ आते हैं, और किसी बुरे अनुभव या बीती बातचीत की याद से तिलमिलाए हुए होते हैं। मैंने वर्कशॉप्स के दौरान ये समझा है कि अगर वर्कशॉप कराने वालों (फसिलिटेटर्स) का कोई तय एजेंडा है तो वे बड़ी आसानी से वहां पर होने वाली सारी चर्चा को उस ओर घुमा सकते हैं। पर इससे होता क्या है कि कमरा दो हिस्सों में बंट जाता है। जैसे एक बार जब मैं एक वर्कशॉप कराने में मदद कर रही थी - वहां पुरुष कम थे और महिलाएं ज़्यादा थीं। और वर्कशॉप कराने वाले फसिलिटेटर्स ने देखा कि वहां के पुरुष पार्टिसिपेंट काफी नाराज़ थे क्यूंकि उन्हें लगा कि वहां उनको अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मौका नहीं मिल रहा था जबकि महिलाओं को काफी मौके मिल रहे थे। अगर इस मामले पर थोड़ा बहुत सोचें, तो यही लगता है कि वैसे भी, आदमियों के बीच ये निजी बातें काम ही होती हैं, यहां तक कि असंभव सी लगने लगती हैं, खासकर स्ट्रैट(straight)/ विपरीतलिंगकामी पुरुषों के बीच । फिर अगर हम भी यूं मतभेद करेंगे तो बात आगे बढ़ ही नहीं पाएगी! मुझे लगता है कि हम पुरुषों में खुद की बात खुलकर कहने का हौसला बढ़ा सकते हैं I पर इसके लिए ये ज़रूरी है कि हम सबको खुलकर अपनी बात कहने का मौक़ा दें, ना कि किसी स्क्रिप्ट के आधार पर बातचीत का संचालन करें। अगर वर्कशॉप का मकसद है कि सब एक दूसरे से खुल कर एक दूसरे की बात कह-सुन पाएं, तो फिर तो एक सुरक्षित माहौल बनाना बहुत ज़रूरी है। एक ऐसी जगह जहाँ सबकी जिज्ञासाओं और सवालों के लिए जगह हो। जहां सब कुछ पर्सनल सा लगे। और मैंने यह भी देखा है कि मिक्स्ड ग्रुप्स में भी पुरुष अपने अनुभवों के बारे में अधिक संवेदनशील होते हैं और ऐसे सवाल पूछने की हिम्मत भी करते हैं जो शायद बहुत आम हों। यहां बातचीत के कुछ उदाहरण देती हूँ। ये मटर/ भगशेफ (clitoris) क्या करता है? एक मिक्स्ड वर्कशॉप, जहां पुरुष-महिला दोनों थे, एक जवान लड़के, टी (T) ने भगशेफ के बारे में बात करते हुए पूछा, "तो ये मटर करता क्या है? कहां होता है? मुझे कैसे पता चलेगा कि ये दरअसल कहां है?" ये सवाल उसने तब पूछे जब हम ए.ओ.आई. (AOI) की फीमेल जेनिटल नॉलेज क्विज (female genital knowledge quiz- जो औरतों के निजी अंगों के बारे में सवाल करता है) खेल रहे थे। क्विज में औरतों के निचले भाग के उस छोटे से मटर यानी क्लिटोरिस से संबंधित काफी सवाल भरे हुए थे- उसका आकार कैसा है, वो कितना बड़ा होता है और करता क्या है। उसकी टीम ने कोई भी जवाब सही नहीं दिया था। कमरे में पार्टिकपंटस को दो टीमों में बांटा गया था। एक ग्रुप घबराहट के मारे खी-खी करता जा रहा था। दूसरे ग्रुप के लोगों ने उस लड़के को चुप करा के पूछा, "क्या तुम सच में ये सब नहीं जानते?" और फिर सब खिलखिला कर हंस पड़े। उन सबको शांत करने के बाद, उस लड़के को एक स्पष्ट विवरण के साथ उस ‘मटर’ की तस्वीर दिखाई गई। वह संतुष्ट लग रहा था, जैसे कुछ समझ में आ रहा हो। इस एक्सरसाइज ने मुझे ये सोचने पर मजबूर किया कि हम कैसे ये मान कर चलते हैं कि पुरुषों को ये बातें पता ही होनी चाहिए। एक तरह से हम ये मानते हैं कि उन्हें सब कुछ पता होना चाहिए। अगर उनके पास किसी बात का सही उत्तर नहीं है, तो लोग उनपर हंस सकते हैं। वर्कशॉप के इस गेम के दौरान, ये तो साफ पता चल गया कि बहुत से लोग, पुरुष और महिला दोनों, महिलाओं के शरीर की रचना से सही तरह से परिचित भी नहीं थे। लेकिन हाँ, ज्यादातर मज़ाक के पात्र पुरुष ही बने। अक्सर मिश्रित समूहों में, हम देखते हैं कि कैसे पुरुष और महिलाएं दोनों ही अपने खुद के शरीर की रचना और उसके कार्यों से अवगत हैं। जेनिटल क्विज करने का मकसद ये था कि हंसी-मजाक के बीच सभी ग्रुप सिर्फ अपने ही शरीर के नहीं बल्कि दूसरे शरीर के जननांगों और उससे संबंधित आनंद की प्रक्रिया के बारे में जानें। क्विज के बाद हम सब ये समझ चुके थे कि भगशेफ कहां होता है, वो कैसे आनंद देता है, और हम इस मुश्किल से मिलने वाली चीज़ के बारे में इतना कम क्यों सुनते या जानते हैं। इस तरह के वर्कशॉप बार-बार करने से मैंने ये महसूस किया कि महिलाओं के शरीर को लेकर पुरुषों और महिलाओं दोनों में बहुत जिज्ञासा है, खासकर ये जानने के लिए कि महिला के शरीर को आनंद कैसे मिलता है। इसके बारे में जानकारी हासिल करना भी आसान नहीं है। और ना ही ऐसी जगह है जहां इन विषयों पर बैठकर बात की जाए। फिर भी उस दिन हमने इनपर पॉडकास्ट सुने, गेम्स खेले, वीडियो देखे, और आकाश में अपनी सेक्सी कहानियों के रंग बिखेर दिए। हमने अपनी ढेर सारी कहानियों के लिए जगह बनाई, अपने मुश्किल सवालों को सामने रखा, और कई अब तक अनकहे राज़ भी खोले। इसके पहले, जब भी दूसरे लोग वर्कशॉप आयोजित किया करते थे, तो वे पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग ग्रुप में बांटना सही समझते थे। खासकर जब इन संवेदनशील टॉपिक्स पे बात हो। उनके हिसाब से ऐसा करने से सब खुलकर बात कर पाते थे और एक दूसरे पर आरोप लगाने की स्थितियां नहीं बनती थीं। पर जैसी जबरदस्त बातचीत मिक्स्ड ग्रुप में होती दिखी, वो देखकर मुझे लगा कि इन टॉपिक्स के वर्कशॉप में पुरुषों और महिलाओं का साथ में बैठना ज्यादा लाभदायक है । जैसे कि एक वर्कशॉप के दौरान एक जवान लड़के, एल (L) ने कमरे में मौजूद महिलाओं को अपने सेक्स-उत्तेजक सपने (wet dream) के बारे में बताने की कोशिश की। उसने हस्तमैथुन (masturbation) की भी चर्चा की। जब उसकी बात खत्म हुई, तो एक दूसरे पुरुष ने सवाल किया कि अगर कोई एक रिश्ते में है तो क्या उस समय हस्तमैथुन करना ठीक है? पुरुषों के बीच हस्तमैथुन को लेकर कई तरह की अफवाहें फैली होती हैं। जैसे कि कितना हस्तमैथुन करना ठीक है और कितना करने से उनके पिनिस टूटकर गिर सकते हैं। हमने हस्तमैथुन से संबंधित अफवाहों पर ए.ओ.आई (AOI) के वीडियो देखे और खूब हँसे। काफी लंबे समय तक हमने हम सब की छोटी-छोटी जिज्ञासाओं को दबाने की कोशिश की है या उन्हें संदेहपूर्ण नज़र से देखा है। लेकिन ये जिज्ञासाएं क्या हैं! सिर्फ एक दूसरे को समझने और जानने की लालसा! महिलाओं को अचार को छूने की अनुमति क्यों नहीं है? औरतों के पीरियड्स/माहवारी हम सब के लिए मानो एक गुप्त टॉपिक है, पुरुषों के लिए तो और भी। एक वर्कशॉप में महिलाओं के (शरीर रचना) /एनाटॉमी पर चर्चा करते वक़्त, 17 से 20 साल के कुछ पुरुषों के मन में इससे संबंधित कई सवाल सामने आए। महिलाएं अपने पीरियड्स को क्यों छिपाती हैं? उन्हें उन दिनों में अचार क्यों नहीं छूने दिया जाता है? इस पूरे विषय पर इतनी गोपनीयता क्यों? इससे पहले कि मैं कुछ कहती, वहां मौजूद कई महिलाओं ने इसका जवाब देना शुरू कर दिया। उन्होंने इस विषय से संबंधित अपनी शर्म और चीज़ें गुप्त रखने को लेकर कई अनुभवों को बांटा। वो ये बताते वक़्त मुस्कुरा पड़ी थीं कि कैसे वो अपने मासिक धर्म या उस समय होने वाले दर्द को छिपाती थीं और कैसे इस विषय में घर पर कभी कोई बातचीत नहीं हुआ करती थी। महिलाओं ने यह भी बताया कि कैसे वो अपने भाइयों से सैनिटरी पैड छिपाती थीं, लेकिन हाँ, अपने बॉयफ्रैंड्स से पीरियड्स के समय होने वाले दर्द के बारे में बात किया करती थीं। उन्होंने बताया कि परिवार के मुकाबले अपने बॉयफ्रेंड से इस बारे में खुलकर बात करना कम शर्मनाक था। परिवार में तो उन्हें अपनी ऐसी इमेज बना के रखनी पड़ती थी, कि जैसे उन्हें खुद इस सब के बारे में ज्यादा पता ना हो ( भला उन्ही का महीना चल रहा हो!)। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे हम औरतें भली भांति परिचित हैं। औरतों ने यह भी बताया कि उनके परिवारों में कुछ ऐसे रिवाज़ माने जाते हैं, जिनकी वजह से महीने के उन दिनों के आते ही, उनका दिल बैठ सा जाता है। और वे उन दिनों को नापसंद करने के लिए मज़बूर हो जाती हैं। जैसे - सोने के लिए उनको कमरे का एक कोना दिया जाता था। यह भी नियम था कि उन दिनों इनको नहाना नहीं है, ना ही उन्हें ज्यादा काम करने की इजाजत थी। वे कंफ्यूज थे कि ऐसा क्यों है! अपने बॉयफ्रैंड्स से बात करते वक़्त ही वे अपने पर थोपे गए उन उम्मीदों को तोड़ पाती थीं, बॉयफ्रैंड्स उनकी बात आराम से सुनते थे, उनसे संवेदना रखते थे। वहां मौजूद पुरुष बिना कुछ बोले महिलाओं की बात सुन रहे थे, और बीच-बीच में सिर भी हिला देते थे। एक आदमी ने अपनी बहन के पीरियड्स के बारे में पता चलने वाली बात के बारे में बताया। कई लड़कों ने बताया कि उनसे औरतों के शरीर के बारे में जानकारी रखने की उम्मीद नहीं की जाती थी। खासकर पीरियड्स से संबंधित बातों को लेकर, जिसे गुप्त रखा जाता है। एक सीमा बना दी गयी थी कि पुरुषों को क्या पता होना चाहिए, क्या सब नहीं पता होना चाहिए और किस बारे में पता हो, तो भी उसकी बात नहीं करनी चाहिये। इस सीमा को लांघने की इज़ाज़त नहीं थी। इस वर्कशॉप के दूसरे दिन, एक नौजवान (जिसने एक दिन पहले हमें बताया था कि घर पर तो माना जाता है कि उसे अपनी बहन के पीरियड्स के बारे में कुछ जानकारी नहीं होनी चाहिए!) ने हमें बताया कि वह नाश्ते के समय अपनी बहन को बार-बार अचार देने के लिए तंग किये जा रहा था। उसकी मम्मी ने उसको डांटा और कहा कि जो बातें वो नहीं जानता, उनपर बेकार मज़ाक ना किया करे I ऊपर से ये भी कहा कि अगर इस कारण से अचार खराब हुआ तो सारी गलती उसकी ही होगी। लेकिन वह जिद किये बैठा था कि उसे अपनी बहन के हाथ से ही अचार चाहिए। उसने हमें बताया कि उसे पता था कि अपनी इस ज़िद से वो अपने सर मुसीबत ले रहा था, लेकिन वह इस चुप्पी को तोड़ कर एक नई शुरुवात करना चाहता था । उसने फिर हँसते हुए बताया कि अंत में हारकर उसकी बहन ने उसको अपने हाथों से अचार दिया। शायद हर बार इस सीमा को लांघना ज़रूरी नहीं है, लेकिन प्यार से या थोड़ी शरारत से ही सही, इसे सही दिशा में घुमाने की ज़रूरत है। 'कंसेंट (consent) क्या होता है?' कुछ दिन पहले, मैंने मुंबई में हो रहे एक वर्कशॉप में, वहां बैठे स्टूडेंट्स को एक चिट थमाते हुए कहा कि उसपे वे सेक्सुअलिटी से सम्बंधित अपने सवाल लिखें। वहां ज्यादातर पुरुषों ने जो सवाल पूछे वो कंसेंट/ मर्ज़ी/ मंजूरी से संबंधित थे। कोई इस बात को पक्की तरह से कैसे समझे कि सामने वाले की मंजूरी है? इशारे कैसे समझे जाएँ? कोई महिला ऐसे प्रस्ताव से नाराज़ क्यों हो जाती हैं? कंसेंट का सही मतलब क्या है? कोई कैसे समझे कि लड़की कब हाँ और कब ना कह रही है? जब हमने इस विषय पर बात करना शुरू किया तो वहां मौजूद कुछ औरतें नाराज हो गयीं - और होना भी चाहिए था - क्यूंकि उनको लगा कि दूसरे से कंसेंट लेना एक बहुत ही नार्मल चीज़ है। "ये बिलकुल क्लियर है और आदमी भी ये जानते हैं," मोटे तौर पे उन सबका ऐसा ही मानना था। वहां मौजूद कई दूसरी औरतें इससे सहमत नहीं थीं । काफी कठिन और लंबे-चौड़े डिस्कशन के बाद, कई आदमियों ने इस सब को लेकर अपनी कुछ चिंताओं के बारे में बताया। जवाब में कई औरतों ने अपनी फिलिंग्स शेयर कीं। मैंने कहा- देखो, कठिन सवाल के आसान उत्तर नहीं होते। शायद औरतों को लग रहा था कि वहां मौजूद आदमी कंसेंट को लेकर कन्फ्यूज्ड होने का नाटक कर रहे हैं। अब इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है कि क्या वो वाकई ऐसा कर रहे थे। इस बारे में काफी सोचने पर भी मुझे जवाब नहीं मिल पाता है। कभी-कभी मुझे लगता है यह समझना काफी आसान है कि कब फुल मंजूरी के साथ और जोश में कोई हामी भरता है। तो क्या आदमियों को सचमुच एक दूसरे के साथ या महिलाओं के साथ इस बारे में बात करने की जरूरत है? क्या ऐसे डिस्कशन के लिए जगह बनाने की जरुरत है? सहमति से दो बदनों का पास आ पाना, बिना किसी बदतमीज़ी के, ये कैसे हो सकता है? कैसे हम एक-दूसरे तक रोचक तरीकों से पहुँच सकते हैं? वहां मौजूद दोनों पक्षों में फूट डाले बिना इसके बारे में कैसे बात कर सकते थे? इस बातचीत के दौरान भी मैंने यह नोटिस किया कि जैसे ही पुरुषों पर कंसेंट को ना समझ पाने का इलज़ाम लगा, उन्होंने इस बात पर सोचने से भी साफ इंकार कर दिया। इसका यह मतलब नहीं कि हम खुद को ही कोसें, अपने गुस्से पर लगाम लगा लें, लेकिन फिर भी, एक फैसिलिटेटर होने के नाते मेरा यह फ़र्ज़ बनता है कि मैं बार बार कुछ तरीके निकालूँ कि दोनों पक्ष आपस में अच्छी तरह बात कर पाएं। हमने एक दूसरे को सुना और पाया कि कंसेंट को लेकर हम सबका अलग-अलग नज़रिया है। सिर हिला के इशारा देना, कंसेंट देते वक़्त की बॉडी लैंग्वेज (body language), किस मिलते ही पीछे हट जाना, शरीर में एक तरह की बेचैनी, हां या ना कहकर बताना, यह तमाम तरीके थे जिससे एक आदमी या औरत इशारा देते हैं कि वो आगे बढ़ने को राज़ी हैं या नहीं। कंसेंट पल भर में बदल सकता है, तो इसको समझना इतना आसान भी नहीं हैं। खासकर क्योंकि ये भी होता है कि कोई एक बार “हाँ” कह देने के बाद वापस “ना” कह दे। वहां आदमियों में से एक ने कहा कि अगर कंसेंट के लिए पूछना पड़े तो रोमान्स का असली मज़ा ही ख़त्म हो जाता है। सब लोगों का ऐसा भी मानना था कि पुरूषों को ही पहला कदम बढ़ाना चाहिए - "शुरुवात तुम करो"। 'The Amorous Adventures of Megha and Shakku in the Valley of Consent (मर्ज़ी की वादियों में शक्कू और मेघा के इश्क़ भरे कारनामे') नाम के एक मज़ेदार वीडियो देखते वक़्त इस बात को चुनौती दी गई। हमारी बातचीत और बारीक होती गयी। क्या हम ‘ना’ बोलते हैं जब हमारा मतलब ‘हाँ’ होता है? क्या हम ‘हाँ’ बोलते हैं जब हमारा मतलब ‘ना ‘होता है? क्या हम अपनी मुस्कराहट से, या हंसी से, या अपनी बॉडी लैंग्वेज से अपनी मर्ज़ी जताते हैं? हाँ..हाँ..हाँ। इसके बाद पूरे ग्रुप ने अपने अनुभवों को याद करके ये माना कि कंसेंट ऐसी चीज़ है जिसे समझना मुश्किल है, लेकिन ध्यान से देखने, पूछने और सामने वाले के जवाब को मान लेने से, इसको समझना आसान हो जाता है। उस वक़्त तक, हमने देखा था कि हमारी बातचीत सबको एक साथ लेकर नहीं चल पा रही थी। एक दूसरे के खिलाफ कई तरह के आरोप लगाए जा रहे थे। लेकिन एक दूसरे को ध्यान से सुनने के बाद, हम सब इस बात को समझ पाए और सहमत हुए कि कंसेंट कैसे हासिल की जा सकती है। कुछ तो बात है कहानियों में जिससे वो किसी भी माहौल को बदल देती हैं। वे हमें कंसेंट और नामंजूरी जैसे शब्दों से आगे, हमारी भावनाओं के उतार-चढ़ाव देखने में मदद करती हैं। इस बात को समझने से बड़ा फरक पड़ा कि औरतें बस चाही नहीं जातीं, वो भी जम कर दूसरों को चाहती हैं। इससे कमरे में मौजूद लोगों को एक दूसरे को और खुद को अलग नजरिये से देखने का मौका मिला। मैं आपको अपनी कहानी बताना चाहता हूँ' "मैं आपको अपनी कहानी बताना चाहता हूँ," M ने बड़ी दृढ़ता से खड़े होकर कहा, हालाँकि वह थोड़ा झिझक भी रहा था। हमने उस समय लगभग एक घंटे तक लोगों के प्रेम, लालसा और सेक्स के अनुभवों को सुना था। 18-23 साल की उम्र के नौजवान लड़के और लड़कियों का मिक्स्ड ग्रुप, लखनऊ के उस छोटे से कमरे में बैठ, इश्क़ की जानी-पहचानी खुशबू ले रहा था। धीरे-धीरे, उनकी कई यादें उभरकर बाहर आईं। प्यार भरे किस वाला वो पल। उनका पहला शारीरिक संबंध (sexual experience)। उन निजी पलों में उन्होंने कैसा महसूस किया, इसपर खुलकर बात की गई। इसी दौरान, मैंने एक जवान लड़के को पीछे खड़े देखा। वो कुछ बोलने के लिए बेकरार हो रहा था। मेरी आंखें उसपर टिकी और मैं मुस्कुरा उठी। वह खड़ा हुआ और उसने हमें प्यार भरी एक कहानी सुनाई। उत्सुकता भरी एक कहानी। एक दूसरे से दोनों की उतरती चढ़ती घबराहट की कहानी। "मुझे और कुछ नहीं चाहिए। शायद! मेरे लिए उससे बात करते हुए समय बिताना काफी है।" एम (M) ने कहा। उसने बताया कि वो जानता है कि प्यार किसी भी ढाँचे में फिट नहीं बैठता है। उनका प्यार एक तरह से वर्जित था। वह अपने उस गुप्त रोमांस को खुलकर बाहर लाने की कोशिश कर रहा था। एम की कहानी सुनकर, मुझे एहसास हुआ कि दरअसल आदमियों के लिए अनुभव बांटने के मौके कितने कम आते हैं। वो बहुत कम साझा कर पाते हैं, और उससे उन्हें काफी तकलीफ होती है। अक्सर वो अपनी बात दरकिनारे कर दूसरों की कहानियां सुनते हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, हमने कई तरह के पॉडकास्ट सुने, जिसमें महिलाओं और पुरुषों, दोनों ने अपनी प्रेम कहानियां शेयर की थीं... तब कहीं जाकर वर्कशॉप में बैठे आदमियों ने भी कोशिश करनी चाही। (ठीक वैसे ही जैसे औरतों ने मासिक धर्म वाले वीडियो(Postcards from my Periods- मेरे महीने के दौरान लिखे पोस्टकार्ड्स) देखने के बाद अपनी शर्म, अपने गुस्से और संदेहों के बारे में बताया था)। और ये निजी बातें शेयर करने में काफी सुरक्षित भी महसूस किया था। कहानियां और आपबीती के किस्से साझा करना वर्कशॉप का एक अहम हिस्सा था। उनसे हमने ये समझा कि हम सबके अनुभव जैसे एक ही इन्ध्रनुष का हिस्सा हैं। सबकी भावनाओं को सम्मान दिया गया, और इस तरह हम लोगों की भावनाओं को बातचीत का सबसे अहम पहलू बना पाए। ठीक उसी तरह, 'कायनात का रोमांसनामा', पॉडकास्ट सुनने के बाद, (जिसमें प्यार, रोमांस और प्राइवेट पलों के आनंद के साथ और भी कई चीज़ों के बारे में बताया गया था), R ने बताया कि उसे अपने एक बहुत प्यारे प्रेम-सम्बन्ध को ख़त्म करना पड़ा था। उसने बताया कि वो शादी-शुदा था लेकिन वो शादी ज़बरदस्ती कराई गयी थी। "मैंने उसे तबसे नहीं देखा है जबसे उसने अपने माता-पिता के कारण हमारा रिश्ता तोड़ दिया था। हाल ही में एक शादी में, मैंने उसे देखा। उसके बाद तो मैं खाना भी नहीं खा पाया। मैं कुछ सोच ही नहीं पा रहा था। मुझे पता है कि मेरे साथ यह सही नहीं हुआ कि मेरी शादी किसी और के साथ हुई ," R ने कहा। उसने अपने आँसुओं को रोकते हुए अपनी सिचुएशन के बारे में बताया, जल्द ही होने वाले डिवोर्स की भी चर्चा की। ये चीजें उसके लिए काफी मुश्किल थीं, और तब मैंने देखा कि कमरे में मौजूद दूसरे आदमियों और औरतों ने कैसे बड़े प्यार से उसे दिलासा देने की कोशिश की। पहली बार वो ये निजी बातें अपने करीबी दोस्तों के अलावा दूसरों को बता रहा था। वो हम सबको अपनी गहराईयों को छूने वाला, खोये हुए प्यार की कहानी सुना रहा था। यह वही वर्कशॉप था जीसमें T ने क्लिटोरिस के बारे में पूछा था, और उसका मज़ाक बनाया जा रहा था। अब वो मज़ाक भरी खिंचाई जैसे कमरे के किसी कोने में विलीन हो गई थी। बाकी पुरुषों के लिए भी अब अपने अनुभव शेयर करना और आसान हो गया था। ये बदलाव मेरे उस ग्रुप के साथ बिताये दो दिनों में ही दिख गया था। कुछ एक्सरसाइज से आदमियों और औरतों को यह कह पाने में मदद मिली कि वो क्या क्या जानते थे और क्या नहीं। ये भी कि उनके प्यार और जिंदगी से संबंधित अनुभव कैसे थे। अब हमने एक- दूसरे की खिंचाई करना छोड़ दिया था। अब हमने एक दूसरे को बिना किसी जजमेंट के, सुनने और समझने का एक रास्ता ढूंढ लिया था। मैं कभी नहीं भूलूंगी कि आत्मविश्वास की कमी होने के बावजूद कुछ लोगों ने अपने प्रेम और लालसाओं के किस्से सुनाये। ये सब देखकर मैं बहुत खुश थी। एक बार, वहां कमरे में सबसे शांत महिलाओं में से एक ने पॉडकास्ट 'पार्क में पी.डी.ए.' को सुनने के बाद, दो पुरुषों के बीच के रिश्तों पर टिपण्णी की। उसने बगल में बैठी अपनी एक दोस्त की तरफ अपना सिर झुकाते हुए कहा, "हम भी इसी तरह के रिश्ते में हैं।" फिर उसने अपनी उस सहेली का हाथ पकड़ा, और दोनों मुस्कुराने लगीं। इस पर पूरा कमरा ही मुस्कुरा उठा। हर किसी ने उसकी इस कहानी को मुस्कुरा के और ख़ुशी से वैसे ही स्वीकार किया जैसे उन्होंने दूसरों के साथ किया था। मेरा दिल खुशी से झूम उठा । उस कहानी ने हमें एक दूसरे के और नज़दीक ला दिया था। इन वर्कशॉप्स में अलग अलग जेंडर के लोग ऐसी कहानियां सुना देते हैं, जिन्हें सुनकर मैं दंग रह जाती हूँ। प्यार, शर्म, डर और रोमांस की कहानियां। इस से पता चलता है कि कहानियों में कितनी शक्ति होती है। एक कहानी आपके ज़ख्म भर सकती है, या फिर आपसी बातचीत शुरू करा सकती है। सेक्स सम्बन्धी शिक्षा वाले वर्कशॉप में कहानियों का सहारा लेने से मैंने बहुत कुछ सीखा। इससे मैंने अपने वर्कशॉप कराने के तरीके बदले हैं। मुझे लगता है कि वर्कशॉप सिर्फ सवाल के जवाब ढूंढने में मदद नहीं करते हैं बल्कि और नए-नए सवाल भी पैदा करते हैं। और हमें वो सवाल पूछने चाहिए। क्योंकि इससे नए दरवाज़े खुलते हैं। (और कौन जाने उन दरवाज़ों के बाहर कौन से बेहतरीन नज़ारे हमारा इंतज़ार कर रहे हों- सरसों के हरे भरे खेत या फिर ट्यूलिप की सुगंध में झूमते बागीचे)। श्रीनिधि राघवन को कहानियां सुनना बहुत पसंद है। वो अपने को फुल टाइम अंतरमुखी / इंट्रोवर्ट (introvert) मानती हैं, और पार्ट टाइम लेखिका हैं। वो जेंडर, सेक्सुअलिटी, तकनीक, अधिकार और विकलाँगता जैसे टॉपिक से मिलती-जुलती राहों पर काम करती हैं।
सेक्स एजुकेशन के वर्कशॉप्स के दौरान युवा पुरुष मुझसे क्या-क्या कहते हैं!
'आखिर भगशेफ/क्लिटोरिस क्या है ?’* सवाल यूं हो सकता है, या फिर टूटे दिल के मसले को लेकर भी हो सकता है । सो लीजिये, आज एक लैंगिकता (सेक्सुअलिटी) की शिक्षिका हमें बता रही हैं कि वो कौन सी बातें हैं जो कि पुरुषों के दिमाग पर छाई हुईं हैं।
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