एस्कवीअर की शुरुआत "एस्कवायर", बल्कि ऐसी कोई भी पुरुषों की मैगज़ीन/पत्रिका पर एक व्यंग के रूप में हुई।
एक सर्दी के मौसम में, मैंने, "दुनिया को इंद्रधनुष के रंगों में डूबे हुए चश्मों से देखने" के विचार से खेलते हुए बिताया था। उसी समय के आस पास, मैंने अपने तभी की बॉस के लिए अपनी पहली शक्ति कपूर की तस्वीर बनाई थी। ("मुझे बस इस तस्वीर की ऑइल पेंटिंग चाहिए”, उन्होंने कहा था, "अपनी शैय्या के ऊपर।")।
असल में, जिस दिन मैंने अपनी पहली शक्ति कपूर पेंटिंग अपने बॉस को पेश की, उसे देखकर मेरे सहकर्मियों ने बहुत ही ज़ोरदार प्रतिक्रियाएँ दी थीं - हैरानगी से लेकर आश्चर्य और रह रह कर खिलखिलाने तक। मुझे तब एहसास हुआ कि इसमें कुछ बात थी - और हालांकि शक्ति कपूर को एक पिन-उप अवतार में देख कर अधिकतर लोगों की मिश्रित धारणाये थीं, उन्होंने उसे बेझिझक, एकटक देखने की क्रिया का बहुत मज़ा उठाया। यह जानते हुए कि उन्हें उसे उतनी ही बेशर्मी से देखने की आज़ादी थी जितनी बेशर्मी से वह अपने आप को देखे जाने के लिए पेश कर रहा था।
कुछ बात बन गयी और मुझे ये बात समझ आई कि मैं उन सब के लिए एक कैटलॉग बनाने वाली थी - ताकि हम आदमियों को उसी तरह देखें जैसे एस्कवायर जैसी मॅगज़ीनें शायद औरतों को देखती हैं, लेकिन वस्तुओं के बगल में रखी वस्तुओं जैसे नहीं - कभी-कभी वह मैगज़ीन्स औरतों को गाड़ियों के बगल में रखती है, और कभी गाड़ियों को उनके बगल में। मैंने फैसला किया कि इसके बजाय मैं यूनिकॉर्न और रेनबोज़ का इस्तेमाल करूंगी। इसलिए यह नाम, एस्कवीयर।
मुझे अपने दोस्तों के साथ यह मज़ाक करना पसंद है कि यह शृंखला मेल गेज़/पुरुष की ताकती नज़र/टकटकी (दुनिया और औरतों को साहित्य एवं दृश्य कला में एक मर्दाना और विषमलैंगिक दृष्टिकोण से दर्शाने की क्रिया, जिसमें औरतें महज़ पुरुष कामुकता को रिझाने के लिए मौजूद होती हैं ) को वापस आदमियों पर पलटने के विचार पर निर्मित है (हालांकि मुझे पता नहीं कि क्या ऐसा करना सचमुच मुमकिन है; शायद यह कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा कि मैं उनपे फीमेल गेज़/ औरत की ताकती नज़र आज़मा रही हूँ (इस विषय पर जिल सॉलोवे का व्याख्यान देखें)। किसी अंत तक पहुँचने का ज़रिया बन पाना तो दूर की बात है, इसे हम एक संवाद की शुरुआत के नज़रिये से देख सकते हैं। जब कोई पुरुष किसी भी ताकती नज़र का विषय बन जाता है, तो इस परिदृश्य से उसका एक आदमी होने का क्या मतलब निकलता है? अपने आप को एक्सपोज़ करने/उघाड़ने में एक तरह की अरक्षितता है, दर्शक के सामने अपने को प्रस्तुत करने में, और मैं यहाँ एक पल ठहरना चाहती हूँ।
और हाँ, एक औरत होते हुए, आदमी को इस तरह ताकने से मुझमें क्या परिवर्तन आता है? एक वस्तु होने से कोसों दूर, क्या अब मैं वह नज़र हूँ जो इस वस्तु को कुछ अर्थ देने की कृपा कर रही है ? कितना दिलचस्प है यह।
मुझे हमेशा से एक कलाकार बनना था, लेकिन भारत में उन सैकड़ों लोगों के जैसे जिन्हें कला से प्यार है, मैंने कुछ 'प्रैक्टिकल' करने का और ग्राफ़िक डिज़ाइनर एवं कल्चर रीसर्चर/सांस्कृतिक संशोधक बनने का निर्णय लिया। कॉलेज के दिनों में, मैं अक्सर बम्बई के काला घोड़ा नामक कला से ओत प्रोत इलाके जाती थी और मायूस होकर वापस आ जाती थी। मैंने ढूँढा लेकिन अपनी आवाज़/विचारधाराओं से मेल खाती कोई और आवाज़ या प्रतिनिधित्व को वहाँ नहीं पाया।
शायद मेरा यह अनुभव इस सच्चाई से जुड़ा है कि दुनिया में आज अधिकतर कला स्त्री प्रेरणा स्रोतों कोमर्दाना ताक / मेल गेज़ के चश्मे पहनकर देखती है। इसके आलावा, बड़े होते हुए मैं एक भारी संख्या में पुरुषकलाकारों की कला से अवगत हुई - जिसका मतलब था कि जिन तस्वीरों को मैंने इतना ऊँचा दर्जा दिया था, उनमें औरतें महज़ कामुक विषय-वस्तु थीं - जिससे और कुछ नहीं तो, आगे चल कर मुझे शारीरिक छवि से जुड़ीमुश्किलों का सामना करना पड़ा।
मेरे लिए एस्क्वीयर, कला की दुनिया में व्यंग्य से प्रवेश करने का एक तरीका था जहाँ मैं हमारे आस-पास के जाने-माने प्रतीकों (यानी बॉलीवुड) को छेड़ रही थी और उनको नए मायने दे रही थी। यह शृंखला स्पेक्ट्रम में विविधता लाने का मेरा तरीका था। मुझे इस बात का जश्न मनाना था कि जब यह तस्वीरें खींची गयीं, हर एक अभिनेता ने अपने 'स्व' की खुल कर अभिव्यक्ति की।
क्या यह तस्वीरें सचमुच कामुक हैं? आप इन्हें जैसे देखना चाहें देख सकते हैं। मेरे लिए, यह लोग बस अपने आप को अभिव्यक्त कर रहे हैं। मेरे दिमाग में, इस श्रृंखला में एक "बी योरसेल्फ" की थीम है। इनको मेरी तस्वीरों का विषय बनाकर, मुझे लगता है कि मैं जेंडर अस्पष्टता के कुछ हद तक तूफानी, और कुछ हद तक स्थिर, गहरे पानी में पैदल पाँव मारते मारते आगे बढ़ सकती हूँ। और यह मुझे बेहद रोमांचक और खुद को स्वाधीन करने वाला अनुभव लगता है।
क्योंकि जेंडर आजकल इतना अस्पष्ट और विरोध से जुड़ा हुआ शब्द है, हम कह सकते हैं कि मैं इससे जुड़े एक विचार के साथ काम कर रही हूँ - बॉलीवुड में दर्शाये गए पौरुष, अखंड ‘मर्दानगी’ का विचार - और पा रही हूँ कि वह उतना अखंड नहीं है। उसके अलग अलग पहलू हैं, लेकिन हम उनका जश्न नहीं मनाते। और दरअसल लोग बाग़ मर्दानगी के अलग-अलग पहलू को पसंद करते हैं, जिनमें से कुछ क्वीअर पहलू भी होते हैं, जो जेंडर अस्पष्टता और तरलता में ढले हुए हैं ।
मुझे लगता है कि हमने बॉलीवुड में हर किस्म के आदमी को देखा है, और कोई सवाल नहीं उठाये हैं। हमारी फिल्मों में आदमी रोते हैं, नाचते हैं, बेशर्म होते हैं, कोलाहल करते हैं, गुस्सा होते हैं, क्रॉस-ड्रेस (औरतों के लिए बने कपड़े पहनना) करते हैं, और कितना कुछ करते हैं। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे उर्फ़ डी.डी.एल.जे में शाहरुख़ खान यूरोप में एक पुलिस वाले से अंग्रेजी में बात भी नहीं कर पाता और उसे हिंदी में गालियां देता है, और इस वजह से फँस जाता है। लेकिन इंडिया में उसके लिए प्यार वैसे ही कायम रहता है।
ऐसा मुमकिन है कि बॉलीवुड, नहीं, खुद भारतीय संक्सृति ने बहुलता को हमेशा से ही अपनाया है। पैट्रिआर्क/कुलपति के पात्र के अलावा और कोई इतना अखंड नहीं होता जितना हम सोचते हैं - और वह भी अक्सर उसके पूर्ववर्ती कुलपति के द्वारा उस आकार में पीटा गया होता है। मेरा विचार तब बस यह था कि मैं हमारे आस-पास मौजूदा अनेकता पे रौशनी डालूं, और उसे नार्मल तरीके से दर्शाने के बजाय, इस बात को आकर्षक बनाऊं कि वह कितनी कीमती और अनोखी है। यह नौजवान युवा अपनी आँखों से पट्टी निकालकर खुल के ज़िन्दगी जीने के हक़ को वापस हासिल करने की कोशिश में हैं ।
काफी लोग इन तस्वीरों को देखते हैं और "वोआह...आह" वाली प्रतिक्रिया को व्यक्त करते हैं। कुछ करीब आते हैं, हँसते हैं, इसका लुत्फ़ उठाते हैं और मुँह खोलकर ताकते हैं। लोग इन सितारों को पहचान लेते हैं - रंजीत, शक्ति, सनी और अक्षय - लोगों का इन चित्रों और फिल्मों के साथ अपने मन में कोई रिश्ता है। जब मैं इसमें एक प्रतीकात्मक परत जोड़ती हूँ, तो उम्मीद करती हूँ, कि वह उन्हें और सोचने पे मजबूर करेगा।
भारतीय सन्दर्भ में - नाकि एक अन्यदेशी सन्दर्भ में - क्वीयरनेस के बारे में बात करना मेरे लिए ज़रूरी था।मैं सोचा करती थी कि पॉपुलर/लोकप्रिय मीडिया और संक्सृति को "इंद्रधनुष से रंगे हुए चश्मों द्वारा" देखना कैसा लगता होगा। मैं अपने को फुसलाती थी कि मैं एक अधिक क्वीअर दुनिया में पैदा हुई थी। और तस्वीरें एक तरह से उस कल्पना को सच्चाई में बदल देती हैं। मुझे लगता है कि अगर मैं लोगों को स्वीकृत महसूस करा सकती हूँ - खासकर अगर वह भारत में क्वीअर बड़े हुए हैं - खासकर उन चीज़ों के माध्यम से जो मुझे हमेशा से काफी क्वीअर लगीं हैं, तो शायद मेरे जैसे लोग इतना अकेलापन नहीं महसूस करेंगे। क्योंकि अंदर ही अंदर, कहीं इनको बनाते समय, मैं अपने आप से दोहरा रही थी: अगर इन आदमियों में अपने सच्चाई दिखाने की हिम्मत थी और वह ऐसा करने में सफल रहे, तो हम में से किसी को डरने की क्या ज़रूरत है? और सही में, मेरे जैसे इंसान के लिए - जो कुछ ही सालों पहले क्वीअर की हैसियत से खुलकर लोगों के सामने आयी - यूं सोचना बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है।
इस प्रोजेक्ट के बाद, मैंने अपने आप को आदमियों पे गौर से देखते हुए पाया, ऐसा ध्यान जो मैंने तब नहीं दिया था जब मैं आर्ट स्कूल में एनाटोमी ड्राइंग क्लास में थी। क्योंकि मैंने खुद इनकी मुद्राओं की कल्पना नहीं की थी, मुझे हर सब्जेक्ट पर ध्यान से गौर करना पड़ा। इससे मैंने आदमियों को और नजदीकी से देखा, इस सन्दर्भ में नहीं कि वह कैसे दिखते हैं, पर यह सोचते हुए कि उन्हें अपने शरीरों में कैसा लगता होगा, और इससे मेरा उनको देखने का या उन्हें समझने का नज़रिया बदल गया। मेरे लिए यह बहुत शांतिदायक था क्योंकि आम तौर पर मेरी आदत इससे अलग थी - मैं औरतों की तस्वीरों को देखती और देखकर अपने शरीर पर शर्मिंदगी महसूस करती। इन आदमियों की तस्वीरों पर काम करने से, मैं अपने अवचेतन के इस ज़हरीले चंगुल से बाहर निकल पायी। ना सिर्फ खुद के, लेकिन दूसरों के बारे में सोचने से, आत्मचेतना और शरीर से जुड़े मुद्दों की जगह संवेदना ने ले ली - और मुझे यह बहुत ही मूल्यवान अनुभव मालूम हुआ।
मैं यह भी उम्मीद करती हूँ कि जो लोग आदमियों को ताकने- जाँचने के आदि नहीं हैं, इन तस्वीरों को देखकर शायद उन्हें ऐसा करने की वजह मिल जायेगी। सबको आदमियों को देखना चाहिए। उनका मज़ाक बनाने या विषयाश्रित बनाने के लिए नहीं, लेकिन उन्हें देखने के लिए, क्योंकि उनका अस्तित्व है और वह यहाँ, हमारे बीच हैं। क्या ऐसा करना अच्छा नहीं होगा?
कला, कल्पना में हलचल लाने के लिए अस्तित्व में है, और दिमाग की आँख को खोलने के लिए।एक कलाकार और विसवालाइज़र ( visualiser) होने के नाते, मेरे लिए काल्पनिक छलांग मारना ज़रूरी है, मुझे कोशिश तो करनी पड़ेगी। सेक्सीनेस वही है जो आप चाहते हैं कि वह हो। सबसे इच्छित वो स्तिथि होनी चाहिए जहाँ जो जैसा है, वैसे ही रहने में आनंद और आज़ादी महसूस कर सके (शायद यह सबको आकर्षक ना लगे लेकिन उस बात को भी बिना परशानी, स्वीकार लेना चाहिए। कोई फरक नहीं अलबत्ता!)
मिली सेठिया एक कलाकार हैं (ग्राफ़िक डिज़ाइन स्किल्स में कुशल) जो नारीवाद और क्वीअर आन्दोलनों में काफी सक्रीय हैं। उन्हें पेंट करना, बॉम्बे में भटकना, लोगों को क्या प्रेरित करता है और सामजिक बदलाव कैसे हो सकता है ,इनपर विचार करना पसंद है। वह एक ब्रांड रिसर्च कंसल्टेंसी के लिए काम करती हैं जहां वह मानव जाती विज्ञान सम्बन्धी/एथ्नोग्राफिक संशोदन का इन्फोग्राफिक्स, किताबों, पोस्टरों और अन्य दृश्य तरीकों द्वारा अनुवाद करती हैं। वह लक्षण विज्ञान ( semiotics) और कल्चर रिसर्च में भी बहुत विस्तृत रूप से शरीक होती हैं, भारतीय ग्राहक व्यवहारों में रुझानों का अनुमान लगाने के लिए।
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