मंजिमा भट्टाचार्य एक फेमिनिस्ट एक्टिविस्ट, रिसर्चर और लेखिका हैं। उन्होंने अपनी दूसरी किताब 'इंटीमेट सिटी' यानी क़रीबियों का शहर - ज़ुबान बुक्स के साथ, 2021 में छापी । ये किताब मुंबई के जाने माने रेड-लाइट ज़िले 'कमाठीपुरा' में रह रहे सेक्स वर्कर्स की लाइफ पे है। एजेंट्स ऑफ इश्क़ (ए.ओ.आई) और ज़ुबान ने मंजिमा के साथ मिलकर इस किताब को लांच किया। उसी समारोह के दौरान, मंजिमा ने ए.ओ.आई की फाउंडर और क्रिएटिव डायरेक्टर परोमिता वोहरा से अपने इस सफ़र के बारे में बात की। उन्होंने लगभग दो दशक से चल रहे अपने सेक्स वर्कर मूवमेंट और फिर इस किताब को लिखने के पीछे के ख़्याल को साझा किया।
इस सम्पादित इंटरव्यू में, मंजिमा ने उस जगह की या यूं कहें कि उस पहचान की बात की है, जो कि सेक्स वर्कर्स फेमिनिस्ट मूवमेंट के अंदर चाहते हैं। उन्होंने कमाठीपुरा को किस तरह बदलते देखा, कैसे एक लांछित किए जाने वाले पेशे में, हैरान कर जाने वाली नज़दीकियां देखी। सेक्स की रहस्यमयी बड़ी रियासत भी देखी। इंटरनेट से आये बदलाव और सेक्स वर्कर्स के बचाव का दावा करने वाले कठोर कानून को भी समझा।
मंजिमा, क्या आप हमें समय का एक क्रम बाँधते हुए, ये समझा सकती हैं कि नारीवाद आंदोलन में सेक्स वरक़र्ज़ को लेके क्या क्या चर्चाएँ हुईं ?
सेक्स वर्क की बात करें तो फेमिनिस्ट्स के लिए वो एक विवाद का मुद्दा रहा है। अपनी मर्ज़ी, अपनी पसंद, अपने बदन पे अपने अधिकार जैसी मुद्दे, हमेशा से फेमिनिस्ट्स के दिल के करीब रहे हैं, बल्कि आप कह सकते हैं कि फ़ेमिनिस्ट इन मुद्दों को पाक नज़र से देखते हैं । सेक्स वर्क इन सारे मुद्दों के थाह तक जाता है, और इनपे कई सवाल उठाता है l वेस्ट में 60 और 70 के दशत में, नारीवाद आंदोलन सेक्स वर्क के साथ जुड़ने लगा था ।इससे दो क़िस्म की सोच उभरीं l शायद क्यूँकि ये आपस में विरोधी थीं, इन्हें इसलिए ‘सेक्स वार’ का दर्जा दिया गया l फेमिनिस्ट्स के एक ग्रुप को लगा कि वेश्यावृत्ति दरअसल पितृसत्ता का एक विशेष प्रतीक है । ये ना ही सिर्फ औरतों का उत्पीड़न करता है, बल्कि हर उस चीज़ को दर्शाता है जो औरतों के लिए गलत है। उनका मानना है कि अगर हमने वेश्यावृत्ति को खत्म कर दिया, तो पितृसत्ता भी उसके साथ ही खत्म हो जाएगी, जड़ से उखड़ जाएगी। इस ग्रुप को उन्मूलनवादियों (abolitionists) का ग्रुप कहा जाता था। दूसरा ग्रुप, जिसमें फेमिनिस्ट सोच रखने वाली सेक्स वर्कर्स भी थीं, उनके लिए वेश्यावृत्ति एक रोज़गार था। औरत अपनी मर्ज़ी से सेक्स व्यापार कर सकती है। पर उन्मूलनवादि इस दलील को मानने के लिए तैयार नहीं थे।
जब ये सोच इंडिया और दक्षिण एशिया के दूसरे हिस्सों में पहुंची, तो तस्करी के इर्द-गिर्द ही उलझकर रह गई। ज़बरदस्ती किसी काम/मज़दूरी कराने के लिए, इंसान की तस्करी, जिसे अंग्रेज़ी में human trafficking कहते हैं । 1997 में जब मैंने औरतों के आंदोलन से सम्बंधित काम करना शुरू किया, तब लगभग सारी चर्चा, ज़ोर शोर से, इस तस्करी के इर्द गिर्द ही थी l वैश्विकरण/ ग्लोबलाइजेशन/globalization जो हो रहा था।
प्रवासन/माइग्रेशन की तादात बढ़ गई थी। औरतें दुनिया भर में, यहाँ से वहाँ जा रहीं थीं l तो इसलिए, बहस अब प्रवासन के बारे में बन गई। और उन औरतों के बारे में भी, जो असुरक्षित माहौल से बाहर निकलने के लिए, कहीं आया का काम करती हैं, तो कहीं फैक्ट्री वर्कर का, और कहीं सेक्स वर्कर का l दुनिया के किसी और कोने में, हर वो काम जो उनको एक बहतर भविष्य की ओर ले जाये।
इसका मतलब आप समझ रहे हैं? मतलब ये, है कि अगर कोई औरत पूरी तरह अपनी मर्ज़ी से या अपने किन्हीं कारणों से वेश्यावृत्ति को अपनाती है, और उसी रोज़गार में रहना चाहती है, तो भी उसे उसकी मज़बूरी ही समझा जा रहा था। उसे तस्करी का पीड़ित माना जा रहा था , जिसे बचाना और जिसे उस माहौल से निकालना जरूरी समझा जा रहा था ।
इसके अलावा, सेक्स वर्कर्स को एच.आई.वी-एड्स के संक्रमण की वजह भी माना जा रहा था । और पूरा फ़ोकस रेड-लाइट एरिया में रहने वाली गरीब औरतों पे रखा गया। यहां तक कि जो मर्द किसी मर्द के साथ संबंध में थे, या मर्द सेक्स वर्कर्स, ट्रांस सेक्स वर्कर्स जैसे लोग- सबको एच.आई.वी की बीमारी फैलाने वाला कारण माना गया। एच.आई.वी-एड्स संबंधित इस तरह की धारणाओं की वजह से, बड़े पैमाने पर सेक्स वर्कर्स साथ आये और इंडिया में एक मज़बूत सेक्स वर्कर्स आंदोलन शुरू हुआ। ये आंदोलन सेक्स वर्क की लेबर विचारधारा पर आधारित थी। देखा जाए, तो ये एक बहुत ही शक्तिशाली आंदोलन था जिसने कुछ सालों में काफ़ी लोगों को अपने साथ मिला लिया है। यह सेक्स वर्क की लेबर विचारधारा को सामने लाने का सबसे कारगर मंच रहा है। लेकिन सबसे बड़ा रोड़ा तो वो बचाव दल है जो अभी भी इंसानों की तस्करी के खिलाफ़ मोर्चा संभाले बैठा है। ये दोनों ग्रुप एक दूसरे के विरोध में तो हैं ही, पर अक्सर एक-दूसरे के खिलाफ भी काम करते हैं।
फिर 2000 में, सेक्स वर्क की इस बहस में एक और अहम आयाम जोड़ा गया- और वो था जाति पर सवाल l दलित फेमिनिस्ट्स ने कहा कि वेश्यावृत्ति को किसी नैतिक वज़ह से खत्म करने की ज़रूरत शायद ना हो, बल्कि असली वज़ह तो ये होनी चाहिए कि इतिहास के पन्नों में वेश्यावृत्ति के पेशे में ज्यादातर औरतें दलित समाज से ही थीं । पहले के ज़माने में, ये एक जाति आधारित वेश्यावृत्ति होती थी, जिसने दक्षिण एशिया में अपने पैर जमाये थे। खासकर कि इंडिया में l उनके लिए ये [यानी सेक्स वर्क] वैसा ही है, जैसे कि किसी इंसान से सारा कचड़ा साफ कराना। ये एक बेईज्ज़ती वाला काम है। उनके हिसाब से अपनी गरिमा या मनुसकी (अम्बेडकरी ज़ुबान में) को वापस लाने का दावा करना ज़रूरी था।
एक और मुद्दा था, जीविका (livelihood) का। बार डांसिंग या बार डांसर के डिबेट से ही ये बात उठी। तो इस आंदोलन के अंदर काफी तरह के मुद्दे उठे। कई छोटे-छोटे मुद्दे भी हैं, जो कि सेक्स वर्क की बड़ी रुपरेखा से हटकर हैं। उनके अंदर नए डॉयलोग, नई चर्चाओं को सामने लाने के रास्ते ढूंढे जा रहे हैं।
फेमिनिस्ट आंदोलन की एक ख़ास बात ये है कि इसके साथ हम अपना एक निजी सफ़र भी तय करते हैं। जब हम जवान उम्र में फेमिनिस्ट दुनिया के साथ जुड़ते हैं हैं, तो दूसरों की बनाई गयी नारीवादी विचारधारा को ही अपना बना लेते हैं। फिर, जैसे-जैसे हमारा सामना तरह-तरह के विचारों से होता है, हम थोड़े कन्फ्यूज्ड हो जाते हैं। खुद से सवाल करने लगते हैं। और तब एक नई समझ बनाते हैं। आपके काम की बात करें तो में ये सफ़र कैसा रहा?
अगर मैं पीछे मुड़कर अपने 20 साल के सफ़र को देखूँ, तो मुझे एम्स्टर्डम का ट्रिप याद आता है। मैं वहां ट्रेनिंग के लिए गई थी। उस वक़्त रेड लाइट एरिया में सेक्स वर्कर्स (औरतों) को ग्लास की दीवार वाले रूम में खड़े देख बहुत अजीब लगता था। मैं तब शायद 20 साल की थी। दूसरा ट्रिप जो मुझे याद आता है वो है खंडाला का। वहां सेक्स वर्कर्स के ग्रुप के साथ ट्रेनिंग थी। उसमें हमने दर्द और आनंद वाली एक एक्सरसाइज़ की । हमको अपने शरीर के भूगोल को समझना था और शरीर के उन पॉइंट्स पर निशान लगाना था जहाँ या सुख मिल रहा था, या फिर दर्द का अहसास था ।
मैं तो उस एक्सरसाइज में इस सोच के साथ गई कि इन सेक्स वर्कर्स को तो सेक्स के बारे में काफी कुछ पता होगा। अपने शरीर की पहचान होगी, अपने बदन पे अपने अधिकार का अहसास होगा । लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। सेक्स वर्कर होने के अलावा उनकी कई और पहचान थीं । गरीब औरतें, दलित औरतें, अकेली रहने वाली औरतें, अकेली माँएं। यानी, वो मुलाक़ात और वो समय, मुझपे बहुत असर छोड़ गया l
ऐसे बहुत से पल होते हैं जब आप सचमुच उन सेक्स वर्कर्स से मिलते हैं, उनसे बात करते हैं। अब जैसे कि कोई कहे कि मुझे सेक्स वर्क के रोज़गार में ही रहना है। अब मैं यहां जम गई हूं। तो भी आप कहोगे कि ये उसकी झूठी चेतना/consciousness है। (मतलब उसे ख़ुद ही नहीं पता कि उसकी असली फ़ीलिंग क्या है )। हाँ, ये हो सकता है कि जब वो इस पेशे में आई हों तो मार-पीट के बाद ही आयी हों । लेकिन अब उनको किसी ऐसे आदमी का इंतज़ार नहीं जो उनको आके बचाये। वो वहां आराम से रहती हैं।
मुझे लगता है कि पिछले कुछ सालों में मेरा झुकाव सेक्स वर्कर के आंदोलन के ठिकानों की तरफ ज़्यादा हो रहा है। मुझे ये भी लगता है कि सेक्स वर्क को लेकर जो अवधारणा है, वो बहुत सीमित सोच है। क्योंकि आज की तारीख़ में देखा जाए तो इसकी परिभाषा बहुत ही फैली हुई है। ये (सेक्स वर्क) आत्मविश्वास दे सकता है, आपको कुछ हद तक मज़बूत भी महसूस करा सकता है। लेकिन रोजमर्रा का कलंक, भेदभाव, ये सब भी इसका एक हिस्सा है। और रोज़ के रोज़ तो आप साबित करते नहीं घूम सकते न, कि आपको आपका काम पसंद है। कौन इंसान है जो अपने रोज़ के काम से रोज़ ही प्यार करता है? हम सबके अच्छे दिन होते हैं, बुरे दिन भी होते हैं। ऐसा लगता है कि सेक्स वर्कर्स के ऊपर हमेशा खुद को वर्कर वर्ग का साबित करने का बोझ रहता है। ध्यान इसपे नहीं रहता कि उनकी खराब परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, या उनके खराब संबंध, उनकी बुरी स्थितियां, लड़ाई झगड़े - इस पे ध्यान नहीं रखता कि इन सब चीजों को बेहतर करना ज़रूरी है, इन बातों पे आवाज़ उठाना ज़रूरी है । कि हिंसा होती है l तो इस तरह की परिभाषाएँ आख़िर कम ही पड़ जाती हैं ।
अपनी किताब 'इंटिमेट सिटी' में आपने कमाठीपुरा को बहुत ही खूबसूरती और भावुकता के साथ पेश किया है। क्या आप हमें बताएंगी कि कमाठीपुरा में लिए गए सुधारक ओलवे की तस्वीरों ने आपकी किताब को किस तरह प्रभावित किया?
(सुधारक ओल्वे मुम्बई के एक प्रसिद्ध डाक्यूमेंट्री फोटोग्राफर हैं। उन्हें फोटोग्राफी में काफी अवार्ड मिले हैं)
कमाठीपुरा को नज़दीक से देखने और जानने के लिए मैंने जो भी कोशिशें की, उनमें से एक था उसके सांस्कृतिक इतिहास को समझना। और उस जगह की पुरानी तस्वीरें, रिकार्ड्स देखना। सुधारक कई सालों से यही सब इकट्ठा कर रहा है। उसकी सबसे पहली तस्वीर जो मैंने देखी थी, वो थी सुनील दत्त के राखी से भरे हाथों की। सुनील दत्त हर साल रक्षा बंधन पे कमाठीपुरा आते थे और वहां की सभी औरतें उन्हें राखी बांधा करती थी। वो बहुत ही सुंदर तस्वीर थी। एक तरफ उनका राखी वाला हाथ और उसके चारों ओर, सभी औरतों के हाथ! मैंने पूरा एक दिन सुधारक की तस्वीरों के साथ बिताया। उनके परिवार के साथ लंच भी किया। इस सब से उस जगह को और गहराई से जान पाई। मैंने उन्हें ये भी कहा कि उनको अपने काम को संग्रहीत करने का ज़रिया ढूंढना चाहिए। शायद अब उन्होंने ये कर भी लिया होगा। लेकिन हाँ, उन्होंने अपने काम में एक बदलते हुए कमाठीपुरा को दिखाया। उन्होंने महसूस किया कि कमाठीपुरा बहुत जल्दी बदल रहा है। वो ख़ुद और उनकी सारी तस्वीरें, सब मिलके यही बयां कर रहे हैं । मैंने उनके काम को अपनी नज़र से देखा। वैसे उनके अलावा, कमाठीपुरा का चप्पा-चप्पा तो एन.जी.ओ संस्थाओं ने भी छाना हुआ है। उनको ये जानना ज़रूरी होता है कि कंडोम स्टॉक कहां रखना सही होगा या काम आएगा, या फिर स्वास्थ्य सर्विस कहां देनी है।
जो कमाठीपुरा आपने दिखाया है, उसमें जहां एक तरफ बीमारियां हैं, परेशानियां हैं, वहीं दूसरी तरफ दर्द के बीच खुशी और सुंदरता भी है। आपने कहा कि साल दर साल कमाठीपुरा काफी बदला है। ये क्या बदलाव हैं और ये बदलाव क्यों हुए? आज वहाँ के क्या हालात हैं?
बदलाव तो काफी सारी चीजों में आया है। बिशाखा दत्ता, जो कि एक फिल्म-मेकर और 'पॉइंट ऑफ व्यू' संगठन की फाउंडर हैं- उन्होंने कमाठीपुरा में बहुत काम किया है। उन्होंने कहा था- कमाठीपुरा में जो बदला है, वो है एड्स, रेड्ज़/छापा और ट्रेड्ज़/बिज़नेस। बड़े सटीक तरह से सही बात कही है ।
कमाठीपुरा एक बहुत ही खास ज़मीन/प्राइम रीयल एस्टेट है। और मुम्बई में तो पुनर्विकास होता रहता है, है ना? जब कमाठीपुरा को भी रीडिवेलप किया जाने लगा, तो यहाँ का भाव बढ़ गया । एड्स और दूसरे राजनीतिक बदलावों के कारण, जैसे कि थोक बाजारों (wholesale markets) का वाशी और तुर्भे जैसे एरिया में शिफ्ट होना- लोगों का कमाठीपुरा आना-जाना कम हो गया। कमाठीपुरा में आने वाले रोजमर्रा के काम वाले मजदूरों ने भी आना बंद कर दिया। इसके अलावा, मोबाइल फोन भी सबके हाथों में आने लगा। इसलिए औरतों को अब ग्राहक ढूँढ़ने के लिए, कमाठीपुरा तक सीमित रहने की ज़रूरत नहीं थी। उन सब जगहों पर इतने बार छापे पड़ते हैं कि वहां रहना आसान नहीं होता है। पुलिस दावा करती है कि इंसानों की तस्करी के तहत उठायी गई औरतों, खासकर नाबालिगों, को बचाने के लिए ये ज़रूरी है। 2012 में, जब मैं उसी एरिया को समझने कोशिश में लगी हुई थी, 500 औरतों को बचाया गया था। उनमें से सिर्फ 7 नाबालिग थीं (और ये मुंबई पुलिस के ऑफिसियल आंकड़ों के हिसाब से बता रही हूँ )। और फिर 2000 में, 300 औरतों को (उनके हिसाब से) बचाया गया, जिसमें सिर्फ़ दो, नाबालिग थीं । फिर भी छापों का सिलसिला जारी रहा। मुझे याद है, जब मैं वहां अपनी स्टडी में लगी थी, बिशाखा और मैं अक्टूबर के महीने में सिम्प्लेक्स बिल्डिंग देखने गए थे। वहां 3 दिनों तक चलने वाले छापे में 400 लोगों को रातों-रात निकाल दिया गया था। लोगों के लिए वहां रहना नामुमकिन हो चुका था।
बिज़नेस गया, उसके साथ कई लोग भी चले गए। पर चूंकि कमाठीपुरा एक ऐसी जगह है जो हमेशा चालू रहती है - 24x7- ये छोटे उद्योगों के लिए एकदम फिट बैठती थी । इस एरिया का अपना एक सिस्टम है, जिससे सबकुछ एक जगह ही मिल जाता है। अपना इको-सिस्टम, यानी एक दूसरे पे निर्भर एक व्यवस्था ।
इस सब ने रेड-लाइट एरिया को बंद होने की कगार पे ला दिया। दूसरी कई जगहों पर शहर के रेड-लाइट एरिया को संभाल कर रखा जाता है, क्योंकि उनके पास एक सांस्कृतिक विरासत है, शहर की एक हिस्ट्री है। लेकिन कमाठीपुरा में ऐसा नहीं हुआ। आंकड़े कहते हैं कि 80s में वहां वेश्यावृत्ति में लगभग 100,000 औरतें थीं । और अब लगभग 1000 व्यावसायिक सेक्स वर्कर्स हैं । बस!
कमाठीपुरा की एक और दिलचस्प बात ये है कि ये सिनेमा हॉल एरिया से सटा हुआ है। मधुश्री दत्ता की फिल्म '7 आइलैंड्स एंड ए मेट्रो' (2006) ये बात बताती है कि कैसे पहले के ज़माने में, सिनेमा हॉल, परफॉर्मन्स की जगहें, और रेडलाइट जिले - सब एक दूसरे के आस-पास हुआ करते थे। और ऐसा दुनिया के कई हिस्सों में था। क्योंकि दुनिया के इतिहास में एक ऐसा पल है जब ग्लोबल व्यापार होता है। उसके लिए बंदरगाह बनते हैं। लोग उसके अंदर-बाहर जाते हैं। तो वैसे ही आनंद का भी एक इलाक़ा बनता है । सेक्सुअल आनंद, परफॉरमेंस का आनंद, फिल्मों का आनंद, सब कुछ आजू बाज़ू मौजूद मिलता है। मेरा मतलब है, धीरे-धीरे सब कुछ एक हद तक सभ्य हो जाता है, है ना?
पेशे उच्च-कुलीन हो जाते हैं, जगहों को बांट दिया जाता है, और फिर धीरे-धीरे पूरे मोहल्ले को और मध्यवर्गी या उच्चवर्गीय समाज और नैतिकता में ढाल दिया जाता है । कमाठीपुरा में भी यही हुआ। लेकिन मुझे लगता है कि वास्तव में जो दिलचस्प सवाल है, वो ये है कि क्या इंसान को आनंद की ज़रूरत है! एक चीज़ के दोहरे मतलब वाले रवैये का ये इशारा होना कि हर बात के कई मतलब हो सकते हैं l और यहाँ पे बसने वाले धुंधली पहचान वाले लोग। कॉलोनिअलिस्म (उपनिवेशवाद) के कारण कई वैश्यावृति वाली औरतें बंबई चली गयीं। उनमें से कई फिल्म इंडस्ट्री में या पारसी थिएटर में लग गयीं। इसी तरह, आज की तारीख़ में सेक्स वर्क ने भी अपने लिए पूरी तरह से एक अलग दुनियां बना ली - इंटरनेट।
और लोगों को ये याद दिलाना ज़रूरी है कि उन शुरुआति दिनों का इंटरनेट आज के इंटरनेट जैसा नहीं था। ये एक आनंद का माध्यम था, खासकर क्योंकि उस समय इसका काम या रोज़गार से कुछ लेना-देना नहीं था। ये पूरी तरह से किसी कॉर्पोरेट की पकड़ में नहीं था। ना ही ऐसा कोई सोशल मीडिया था। कुछ लोग ही थे जो ईमेल के लिए इसका इस्तेमाल करते थे। बाकी लोग इंटरनेट पे चीज़ें ढूंढते थे, अपनी पहचान छुपाकर चैट करते थे, बेधड़क मस्ती और आनंद के तरीके ख़ोजते थे, तो कभी किसी अर्जेंट चाह को पूरा करते थे।
तो, इंटरनेट के आने से क्या हुआ? आपकी स्टडी क्या कहती है?
ग़रीबों की बस्ती में जब पैसे वाले आने लगते हैं, ग़रीबों के धंधों की जगह पैसोंवालों के धंधे आने लगते हैं, और ग़रीबों के घर, उनकी व्यवस्था, विस्थापित कर दी जाती है : इसे अंग्रेज़ी में जेंट्रिफ़िकेशन/ gentrification कहते है, यानी जेंट्री का एक तरह से किसी पुराने मोहल्ले पे क़ब्ज़ा कर लेना l तो आंनद के इन इलाक़ों में भी कुछ ऐसा हुआ । जैसे कि आम जनता के लिए बना थिएटर, क्लासिकल गानों के प्रोग्राम- इन सबको नए दर्शक मिलने लगे l ऑडियंस हर जगह बदलने लगी । लेकिन सेक्स वर्क में कोई अंतर नहीं आया। आज आप आनंद की ख़ोज में इंटरनेट पे जाओ, तो पाओगे कि वहां भी चीज़ें चमकाई जा रही हैं, इंटर्नेट का गेंट्रिफकेशन हो रहा है । मैंने 105 वेबसाइट, जो बॉम्बे में एस्कॉर्ट सर्विस देती हैं, पर स्टडी की। उन वेबसाइट पर दी गई तस्वीरें और विवरण के आधार पर आप अनुमान लगा सकते हो कि इनके अनुसार आदर्श इस्कॉर्ट और आदर्श उपभोगता समाज के किस दर्जे से होंगे l उनका सामाजिक दर्जा दिया गया है, उच्च वर्ग के और ऊंची जाति के भी । एस्कॉर्ट्स के जो वो नाम चुनते हैं, वो नाम भी ऊंची जाति वाले होते हैं । आप उनके उपनाम से समझ जाओगे। एकदम बॉलीवुड वाले फिल्मी नाम। जैसे कि नताशा ओबेरॉय l या फिर बिल्कुल आम (गर्ल-नेक्स्ट-डोर) वाला नाम- जैसे कि स्मृति मिश्रा या कुछ और। और जो कस्टमर दिखाए जाते हैं, वो एकदम समझदार सज्जन, उम्दा पसन्द वाले। वो क्लासी रहेगा, देश-विदेश घूमने वाला। तो, हाँ, इस तरह का जेंट्रिफ़िकेशन ।
लेकिन ऑनलाइन चैट रूम और नोटिस बोर्ड की वेबसाइटों के माध्यम से इसका विरोध भी होता है। वहां छोटी उम्र के लड़के जाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कभी भी एस्कॉर्ट के कस्टमर जैसे नहीं देखे जाएंगे। इसलिए, वो यहां नेटवर्क, ग्रुप और क्लब बनाते हैं और वहां मिलते हैं।
जैसे ब्राण्ड को बदल दिया जा रहा हो- रीब्रांडिंग की तरह…
हाँ, बिल्कुल! जैसे, तो जो मोहल्ला रेड-लाइट एरिया कहलाता था, वो अब एंटरटेनमेंट या यूं बोलो कि आनंद का इलाक़ा बन जाता है। वेश्यावृत्ति सेक्स वर्क बन जाती है और फिर लैप डांसिंग (गोद में बैठकर किया गया डांस) या स्ट्रिप क्लब (जहां कपड़े उतारकर डांस किया जाता है) जैसे सेक्शुअल एंटरटेनमेंट दिखाई देते हैं। ऐसे हालात में अमेरिकी समाजशास्त्री एलिज़ाबेथ बर्नस्टीन ने सेक्स वर्कर को जो नाम दिया था, वो सही था- "गर्लफ्रैंड एक्सपीरियंस"। सेक्स वर्कर एक बिज़नेस वुमन बन जाती है, जो कि सेक्स वर्क एक्सपीरियंस देती है। तो हाँ, ये रीब्रांडिंग हर तरफ हो रही है।
सेक्स कौन खरीद रहा है, किस तरह की सेक्शुअल सेवाएं दी जाती हैं, और कौन सी सेवा खरीदी और बेची जा रही है - सबका समीकरण बदल रहा है। सेवा में अब नज़दीकियाँ (intimacy) भी शामिल हैं। तभी तो, कहाँ मैं सेक्स वर्कर की जियोग्राफी पढ़ रही थी, और कहाँ 'इंटिमेट सिटी'/नज़दीकियों वाला शहर नाम की किताब लिख डाली।
क्या आप नज़दीकी (intimacy) के आईडिया पे थोड़ी रोशनी डाल सकती हैं? आपका सामना किस तरह के संबंधों से हुआ है?
आजकल तो मैंने देखा है कि काफी सारे मर्द भी इंटरनेट पर मंडरा रहे हैं और कई सेवाएं दे रहे हैं। वो खुद को 'मेल सर्विस प्रोवाइडर' बुलाते हैं, ना कि सेक्स वर्कर्स। यानी वे खुद को पुरुष सेवा के प्रदाता कहते हैं, यौनकर्मी नहीं। और उनका लेन-देन सिर्फ पैसे से हो, ये ज़रूरी नहीं। कभी-कभी उनकी मांग अलग होती है। जैसे कि कोई उनको अपने खर्चे पर साथ हॉलिडे पर ले जाए। जैसे छोटी-छोटी लग्ज़री आइटम की माँग, और कभी-कभी दोस्ती भी।
एक बार मैंने एक ऐसी पार्टी का इंटरव्यू लिया था जो एन.आर.आई और विदेशियों के इंडिया आने पर उनके लिए एस्कॉर्ट का इंतज़ाम करती थी। लेकिन वो उनसे इस काम के पैसे नहीं लेती थी। पूछने पर वो बोली, "मुझे उनसे सिर्फ दोस्ती और नेटवर्क चाहिए होता है। हर 15 दिन में कुछ एन.आर.आई आते हैं और मैं उनके साथ घूमती-फिरती हूं क्योंकि मैं बॉम्बे में किसी और को नहीं जानती। यही मेरा सर्कल है, मेरा समुदाय।" तो, बहुत तरह के लेन-देन ऐसे हो रहे हैं जो सेक्स वर्क की परिभाषा में फिट नहीं बैठते। कभी-कभी लोग कई रोल एक साथ निभा रहे होते हैं। कभी खरीद रहे होते हैं, तो कभी बेच रहे होते हैं। और कभी इस खरीद-बिक्री के बीच में होते हैं। ऐसे में किसे खरीददार कहें और किसे बेचने वाला? मुझे लगता है कि इंटरनेट और अर्थव्यवस्था के जिस दौर में हम हैं, वहां सब मुमकिन है। अब उदाहरण के लिए, इंडिया में एक निश्चित वर्ग के लोग हैं जो ऊबर/Uber या ज़ोमाटो/Zomato या स्वीगी (Swiggy) में काम करते हैं। लेकिन वेस्ट में, एक ऊबर ड्राइवर ऊबर का कस्टमर भी हो सकता है, एक ज़ोमाटो में काम करने वाला ज़ोमाटो का क्लाइंट भी हो सकता है।
इस तरह का सेटअप, हमें इंटरनेट पर इस [सेक्स वर्क] की अर्थव्यवस्था के बारे में अलग तरीके से सोचने पर मजबूर करता है। इसीलिए, मैंने अपनी किताब में भी ये सुझाव दिया है कि एस्कॉर्ट्स को सेक्स वर्कर बोलना शायद सही नहीं है। हम उनको गिग-वर्कर (प्रोजेक्ट के हिसाब से काम करने वाले फ्रीलान्सर) बोल सकते हैं। क्योंकि वो सेक्स-वर्कर्स के अनौपचारिक (informal) सेक्टर की व्याख्या के साथ मेल नहीं खाते हैं। पर हां, गिग-वर्कर की कैटेगरी में फिट बैठते हैं।
जब आप इसे गिग-वर्क कह रही हैं, तो ये कहना गलत नहीं होगा कि सेक्स वर्कर होना अब कोई परमानेंट या व्यापक पहचान नहीं है। इस पेशे में भी लोगों का क्लास बदल रहा है। साथ ही आपने ये भी कहा कि इस सेक्टर में अब काफी मर्द भी हैं। इस बदलते परिवेश के बारे में आपका क्या कहना है?
एक सबसे जरूरी बदलाव जो सामने आया है, वो ये कि काफी औरतों की ख़रीदने की शक्ति अब बढ़ गई है। वो इस सेक्टर की कस्टमर बन गयी हैं। बहुत से मर्द इन औरत कस्टमर की छू जाने वाली पर्सनल कहानियों के बारे में बताते हैं। ये अक्सर 30, 40 साल की, अविवाहित, अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करने और कल्पनाओं में डूबी रहने वाली औरतें होती हैं । उनमें से एक छू जाने वाली कहानी जो एक मर्द ने सुनाई, वो ये, कि एक औरत उसके साथ बस कहीं घूमने जाना चाहती थी। उस ट्रिप का पूरा खर्चा भी उसी ने उठाया। वहां उसे सुहागरात जैसी एक रात बितानी थी। उसने साड़ी पहनी और लड़के ने कुर्ता-पायजामा। उसने बिस्तर पर फूल भी बिछाया। इस कहानी से एक बात और पता चलती है और वो ये कि हमारी सोच, हमारी चाहतें भी उन्हीं चीजों से निकलकर आती है जो समाज ने हमारे अंदर भर दी हैं।
नलिनी जमीला ने अपनी आत्मकथा (द ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ सेक्स वर्कर) में बताया है कि कैसे दुलार-मलार भी सेक्स वर्कर्स के काम का एक हिस्सा है। मतलब ये कि भले ही दलित फेमिनिस्ट की बातों को नकारा नहीं जा सकता, एक सच ये भी है कि काफी सारे सेक्स वर्कर्स पत्नियों वाले प्राइवेट काम भी करते हैं। जब हम घरेलू (डोमेस्टिक) लेबर की बात करते हैं, जिसमें कोई पैसे नहीं मिलते, तो उसमें सेक्शुअल लेबर को शामिल नहीं करते। उसे वैवाहिक अधिकार मान के अलग ही रखा जाता है।
उसी ग्रुप से एक दूसरे मर्द ने भी माना कि आजकल नैतिक रूपरेखा बहुत बदल गयी है। बदलाव हर जगह नज़र आ रहा है। उसने बताया कि उसके एक चाचा किसी घोटाले में फंसे थे और उनको जेल भी हुई थी। उसके चचेरे भाई को इसका कोई अफ़सोस नहीं था। वो कहता था- हाँ, मेरे पापा जेल गए, तो क्या? अब हमारे पास 3 करोड़ हैं।
तो, ऐसा लगता है कि नैतिकता की पुरानी बनावट अब कोई मायने नहीं रखती।
(ऑडियंस में से मीना सेशु के सवाल पर आधारित)
इस बात को लेकर बहस चल रही है कि सेक्स वर्कर दरअसल वर्कर हैं या सर्विस प्रोवाइडर। आपको क्या लगता है?
मुझे ये समझ में नहीं आता है कि सेक्स वर्क को सर्विस बोलने से, सेक्स वर्कर्स को या हमको क्या फ़ायदा होगा । क्या इसका इशारा कुछ यूँ है कि हम पूरी अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप में देखें? या कि गिग या अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की बनावट में किसी बदलाव की ज़रूरत है?
हालांकि, मुझे ऐसा लगता है कि अभी जो वर्कर को लेकर हमारे आईडिया हैं, वो काफी धुंधले हैं। उनके अधिकारों को अगर नार्मल नागरिकों के अधिकार की तरह देखा जाएगा, तो शायद कुछ मदद होगी। उस मुकाम तक कैसे पहुंचा जाए, जहां सिर्फ वर्कर्स के अधिकारों की बात ना हो। बल्कि सेफ शहर, सेफ इंटरनेट की बात हो। क्यूँकि सेक्स वर्क के लिए ये बातें बहुत ज़रूरी हैं । इसलिए मुझे लगता है कि वर्कर की जो अभी की परिभाषा है, उसको थोड़ा और विस्तार करना चाहिए। ताकि उनके पेशे के दूसरे पहलु छूट न जाएं।
हाल ही में आया एंटी ट्रैफिकिंग बिल (2021) सुर्खियों में है। आपको क्या लगता है, इसका सेक्स वर्कर्स पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
एस्कॉर्ट्स जब खुद का प्रचार करते हैं तो कहते हैं कि फाइव स्टार होटल में कभी रेड नहीं पड़ता क्योंकि वो रेड मारने वालों के लिए ही काम करते हैं। लेकिन हमने देखा कैसे ए.सी.पी धोबले [मुंबई पुलिस], बार, मसाज़ पार्लर, हर जगह छापेमारी कर रहे थे। तो ऐसा नहीं था कि सिर्फ वेश्यालय या रेड लाइट एरिया की गरीब औरतों को ही छुड़ाया जा रहा था।
2021 के एंटी-ट्रैफिकिंग बिल के साथ, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (National Investigation Agency- NIA) को इस काम में भागीदार बना लिया गया है। अब, एन.आई.ए तो आतंकवाद विरोधी एजेंसी की तरह है, इसलिए [तस्करी के लिए] अपराधीकरण बढ़ गया है। रेड करके छुड़ाना ही कानून को लागू करने वाली मशीनरी बना गया है । इस प्रस्तावित कानून में, डिजिटल दायरे पर भी निगरानी रखने की कोशिश की जाएगी। इसका मतलब ये कि अभी, पोस्ट-कोविड, सेक्स वर्कर जो सेक्सटिंग का काम कर रहे हैं और पैसे बनाने वाले ऐप का इस्तेमाल कर रहे हैं, उनको भी ट्रैक किया जाएगा। कानून, रिपोर्टिंग को अनिवार्य कर रहा है। तो वो पत्रकार भी, जो कि किसी औरत सेक्स वर्कर की रिपोर्ट करना चाहता है, उसे पहले अधिकारियों को रिपोर्ट देना होगा। स्वास्थ्य कर्मियों को भी मजबूरन अधिकारीयों को रिपोर्ट करना पड़ेगा। इसलिए, ये कहना गलत नहीं होगा कि इस कानून ने तस्करी को पूरी तरह से सेक्स वर्क से जोड़ दिया है।
बेशक, इसका असर सेक्स वर्कर्स पर होगा, पर आम जनता भी इससे अछूती नहीं रहेगी। जैसे, उदाहरण के लिए, अगर मैं किसी के साथ रिलेशन में हूं और मैं अपने पार्टनर को एक सेक्सी तस्वीर भेजती हूं। फिर उसी दिन हम डेट पे बाहर जाते हैं और वो मुझे किसी वज़ह से पे.टी.एम पर पैसे भेजती है। तो बस दोनों कड़ियों को मिलाकर सबूत तैयार किया जा सकता है। सबूत दोनों बातों को जोड़ सकते हैं। कानून में कुछ भी साफ अक्षरों में नहीं लिखा होता है।
ऐसा कानून औरतों की सेक्शुआलिटी पर कंट्रोल करने जैसा है। वैसे तो औरतों को शादी की संस्था के भीतर, परिवार के भीतर और जाति की रेखाओं के भीतर रखने के हिसाब से ही कानून बनाये गए हैं। लेकिन अब ये जंजीर और कस दी गई है। इसके अलावा, अगर आप या कोई दूसरा संगठन सेक्स वर्कर ग्रुप को सपोर्ट करता है, तो ख़तरा इस बात का है कि कहीं आप पर ही तस्करी का इल्ज़ाम ना आ जाए। तो, यहां कोई भी, कभी भी, फंस सकता है।
आपकी किताब में जो कहानियां हैं, वो हमें कई चीजों पर अलग तरह से सोचने के लिए मजबूर करती हैं। जैसे कि सहमति/कंसेंट, एजेंसी, उल्लंघन जैसी चीज़ों में क्या बदलना चाहिए। आपने जो जानबूझकर किये गए चॉइस के बारे में बताया है, उसके बारे में और समझाएंगी। किस तरह से वो अलग-अलग हो रही बहसों के बारे में हमें भावना और दूरदर्शीता के साथ सोचने में मदद करता है?
जानी बुझी चॉइस का कांसेप्ट दरअसल लोरेलाई ली का है, जो ख़ुद इस्कॉर्ट रह चुकी हैं । ये एक सशक्त सोच है, क्योंकि ये हमें सोचने पर मज़बूर करता है कि हम जो कर रहे हैं वो क्यूँ कर रहे हैं। फिर यही सोच हमारे उस काम पर भी असर करती है। क्या हमने इतने घंटे काम करने की हामी भरी है? क्या हमने पैसे कमाने के लिए इस कमर दर्द और इतनी मेहनत के लिए हाँ की है? मेरा मतलब है, हम जानबूझकर कैसे-कैसे चॉइस कर सकते हैं, है ना? यहां तक कि बच्चा पैदा करने का चॉइस भी, जरूरी नहीं कि औरतों के लिए जानबूझकर, अपनी पूरे मर्ज़ी से किया जाने वाला चुनाव हो। मुझे लगता है ये सच में एक काफी जरूरी कांसेप्ट है, जो कि सोशिअल और पब्लिक लाइफ के डर को भी सामने लेकर आता है।
आपके घर के अंदर की प्राइवेट लाइफ भी दरअसल एक पब्लिक लाइफ है। (क्योंकि समाज ही घर में आपका क्या रोल होगा, वो तय करता है) और फिर आपकी एक खुद के अंदर की लाइफ होती है जो सिर्फ आपके पास होती है, आपकी, अपनी । मुझे लगता है कि उस अंदर की लाइफ में आपके किये गए चॉइस, आपके बनाये गए रिश्तों की परछाई दिखती है। और ये वही जगह है जहां शायद हम और समवेदना से ज़िंदगी के उन पहलुओं को समझ पाते हैं, जिन्हें कई बार ढोंग या पाखंड कहा जाता है । ये वो जगह है जब हम ना इस पार होते हैं, ना उस पार, जहाँ अब बीच का बहुत कुछ, कच्चा पक्का, सच्चा झूठा, अपनी बाहों में भर लेते हैं l इसी जगह पे लोग बदल सकते हैं। ये एक मचान की तरह है। मुझे इसका एहसास तब हुआ जब एक मर्द सेक्स वर्कर ने बताया कि उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस काम के दौरान भी उसे इतने अच्छे लोग मिलेंगे। उस जगह रहकर उसने ये बड़ी ख़ोज की। वैसे तो वो ब्लैकबेरी घुमाने वाला कॉर्पोरेट दुनिया का शख्स था। लेकिन उसने इस एहसास को समझा और इस सच को अपनाया। उसमें इतनी क्षमता थी कि अपने अंदर इस सच की जगह बना पाए । हालांकि इससे कोई मौजूदा सोच टूट नहीं जाती, फिर भी, बातचीत की एक नई जगह बनती है, थोड़ी उलटफेर के साथ बातचीत के नए आयाम ज़रूर सामने आते हैं ।
सेक्स वर्क की गलियों से लेके दिल के शहरों तक: मंजिमा भट्टाचरज्या से मुलाकात
एक फेमिनिस्ट एक्टिविस्ट, रिसर्चर और लेखिका का इंटरव्यू!
चित्र: शिखा श्रीनिवास
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