हमारी स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त लिंग भेद और नैतिक पक्ष पात का , एक डाक्टर का बयान
कुछ समय पहले, स्नातकोत्तर डाक्टरों की एक सोसायटी ने मुझे एक वाद विवाद के लिए आमंत्रण दिया I विषय : आकस्मिक गर्भ निरोधक समाज के नैतिक पतन का कारण हैं I जब उस गंभीर युवक ने, जिसने फ़ोन पर मुझे आमंत्रित किया था, मुझे विषय बताया, तो मैं हँस पड़ी थी, ये सोच कर कि इसपर तो अकल लगाने की कोई ज़रूरत नहीं, मामला स्पष्ट हैI ये तो बाद में पता चला कि वो ऐसे किसी को ढूँढ ही नहीं पाए थे जो विषय के विरोध में बोल सकेI यानि उन्हें एक भी ऐसा डॉकटर नहीं मिला था जो कह सके कि आकस्मिक गर्भ निरोधक दुष्ट नहीं होते, बल्कि ज़रूरी होते हैंI
वाद विवाद एक बड़े शहर के एक भीड़ से भरे ऑडिटोरियम में हुआ था I मैं जान कर समय-जगह के ज़्यादा स्पष्ट विवरण नहीं दे रही, वजह आप खुद आगे पढ़ते हुए भाँप जाएँगे I हाँ, एक पुरुष डाक्टर मेरा पक्ष ले कर ज़रूर बोला था, पर वो सिर्फ़ पक्ष-विपक्ष में कुछ बराबरी ला कर आयोजकों की मदद करना चाह रहा था - वो इसलिए मेरा पक्ष नहीं ले रहा था कि वो आकस्मिक गर्भ निरोधक, जिन्हें अँग्रेज़ी में एमर्जेन्सी कॉंट्रासेप्शन (EC) कहते हैं, में खुद विश्वास करता थाI
हमनें शुरूआत की I मैंने अनचाहे गर्भ को रोकने के महत्व की बात की और विरोधी गुट ने अपनी राय दी कि ये अकेला डर था जो युवतियों को शादी से पहले संभोग करने से रोकता था I मैंने वैवाहित औरतों की ज़रूरतों का ज़िक्र किया, जिनके पति ख़ुद गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल नहीं करते थे, ना उन्हें करने देते थे I इसके विरोध में उत्तर आया कि हमारी व्यवस्था में और सलाह की आवश्यकता है I मैं बोली, सलाह? कहाँ और किससे? हमारी व्यवस्था में दूर दूर तक ऐसे प्रशिक्षित और काबिल मानव संसाधन हैं क्या जो हमारे जान समुदायों के ऐसे काम आ पाएँ?
मेरी टीम उस विवाद में हार गयी I भयंकर वोट से हारी, उनके 300 तो हमारे पाँच वोट थे I 2011 के उस दिन, इन जवान, योग्यता प्राप्त, बड़े शहर के डाक्टरों ने, आकस्मिक गर्भ निरोध को सामाजिक पतन की वजह घोषित किया I प्रत्यक्ष रूप से, सेक्स की भूखी, गैर ज़िम्मेदार जवान औरतें इस मामले की जड़ थीं I
दर्शकों ( जो कि डाक्टर थे) के पास कहने को कितना कुछ था I कि अगर कुंती के पास EC- आकस्मिक गर्भ निरोधक होता, तो पांडव पैदा ही नहीं हुए होते; ग़ैरज़िम्मेदार लड़कियों के बारे में जो सारे समय सेक्स कर लेती हैं ( वो भी अकेले, बिना किसी आदमी के शामिल हुए) : भारतीय संस्कृति को बचाने के बारे में ( किसी को कुंती के अवैवाहित गर्भ के सन्दर्भ से अपने विचारों में कोई विडंबना ना लगी, और न ये सोचकर कि पांडव वंश का आरंभ ही ऋषि व्यास के अवैवाहित संभोग से हुआ था...जब उन्होंने मत्स्यगंधा, जो उन्हें नाव से पार करा रही थी, के साथ थोड़ी बहुत ज़बरदस्ती की थी, ये कहकर कि दूसरी ओर पहुँचते पहुँचते वो उसे फिर से अक्षय- वर्जिन- बना देंगे... और फिर एक कोहरे को भी रचकर ताकि उन्हें थोड़ी एकांतता मिले- हे भगवान! )
वाद विवाद के बाद एक डाक्टर मेरे पीछे पीछे बाहर आया और उसने मुझसे पूछा कि मैं प्रकृति का विरोध क्यों कर रही थी, EC की गोलियों का साथ क्यों दे रही थी? मैंने उससे पूछा की वो बच्चों का टीकाकरण क्यों करता है I उसने कहा ' ये सब' हमारी संस्कृति के विरोध में है I मैंने पूछा कौन सी संस्कृति? वो जिसने 'कामसूत्र' लिखी है या वो जिसने सतिप्रथा को बढ़ावा दिया है? उसने बस दुखी भाव से अपना सर हिलाया और अपनी प्राकृतिक और ओह- कितनी सांस्कृतिक रूप से अधिप्रमाणित SUV में चढ़ा और वहाँ से निकल लिया I
उस दिन मेरा सर चक्कर खा गया और मैं वास्तव में बहुत घबरा गई I ये आखरी मर्तबा ना था I
हाल ही में मैंने एक वर्कशाप के दौरान एक मनःचिकित्सक को ये बहस करते हुए सुना है कि समलैंगिक लोगों को ECT- एलेक्ट्रो कन्वल्सिव थेरपी- यानि उनके दिमाग़ को हल्के बिजली के झटके - जिसे जनसाधारण बिजली के झटके वाला इलाज के नाम से जानते हैं- दिए जाने चाहिए, ताकि वो 'नार्मल' हो सकें I
जब उन्हें बताया गया कि विश्व मनःचिकित्सा संस्था ने हाल ही में सारे समलैंगिक लोगों से क्षमा याचना की है, कि कई दशकों से मनःचिकित्सा ने उन्हें मरीज़ बताकर उन्हें ज़बरदस्ती चिकित्सा की ओर धकेला है, तो उन्होंने हाथ के एक इशारे से इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया I ये एक छोटे शहर के सरकारी अस्पताल में अकेले वरिष्ट मनःचिकित्सक हैं I ये सोच के दिल दहलता है कि कितनों के जीवन को चोट पहुँचाने की शक्ति इनके पास है I जो सवाल मैं अब करने लगी हूँ, वो ये है कि ये मान्यताएँ उनको किसने दी हैं?
कई साल पहले जब HIV का प्रकोप भारत में अपनी चरम सीमा पर था, HIV निरोध को लेकर एक वर्कशॉप के दौरान, कुछ वरिष्ट पारिवारिक चिकित्सकों ने मुझसे कहा था कि अगर किसी समलैंगिक पुरुष को HIV हो जाए, तो ये उसके अपराध का दंड था I उन्हें नहीं लगा कि उसे ये बताया जाना चाहिए कि वो कॉंडम का उपयोग करे I उन्हें ये सीख कहाँ से मिली?
नज़र एक बार ऐसी बातों पर पढ़ जाए तो फिर रुकती नहीं I
ये एक प्रचलित फॉवर्ड है, डाक्टरों के Whatssap ग्रूप से ...एक औरत एक बच्चा होने के थोड़े ही समय बाद, बहुत जल्दी, फिर से गर्भवती हो जाती है I वो गर्भ निष्कासन के लिए जाती है I भला डॉक्टर उससे कहता है: ऐसा करते हैं, ये करने के बजाय, ये जो बच्चा तुम्हारी गोद में है, उसे मार डालते हैं I उसके इस - ओह-अति- संवेदनशील विचार का स्वागत whatsapp पर बैठे औरों द्वारा ताली और थमसप और नमस्ते के emoji से ही हमेशा होता है I
मैं ऐसी मीटिंग्स में गयी हूँ जहाँ मीटिंग की वजह, और चर्चा का विषय, स्त्री पुरुष लिंग अनुपात ( सेक्स रेशियो) रहा है I तकरीबन सारे डाक्टरों की इस बात पर सहमति होती है कि ये रेशियो और बहतर होना चाहिए I'क्यों' पूछे जाने पर, कई सारे पुरुष डाक्टर और कुछ बड़ी उम्र वाली स्त्री डाक्टरों का बड़े ज़ोर शोर से जवाब होता है " अगर लड़कियाँ नहीं होंगी तो लड़के शादी किससे करेंगे?" और अगर ये लड़के कुंवारे रह जाएँगे फिर वो वही - कोहनी मार के, आँख मार के- 'शरारतें' - करेंगे. कौन सी शरारतें? क्या उनका इशारा दो आदमियों के बीच संभोग की ओर है? या फिर कहने का मतलब ये है कि सेक्स वर्कर्स /यौनकर्मियों को और ग्राहक मिल जाएँगे? मैंने पूछा भी है, लेकिन वो कभी बताते नहीं I
उन्हें पक्का विश्वास है कि अगर सेक्स रेशियो यूँ ही कमज़ोर रहा, तो औरतों के विरुद्ध हिंसा और बलात्कार बढ़ जाएगा I अगर उनसे पूछा जाए की अगर ये रेशियो पलट जाए- किसी कारण अगर लड़कियाँ बहुत ज़्यादा हो जाएँ और लड़के बहुत कम- तब भी क्या ऐसा ही होगा? - इसपर किसी का कोई जवाब नहीं होता I यानी घूम फिर कर हमें बेटियों को लड़कों के लिए बचाना होगा, बस I जबकि औरतों को लड़कियाँ पैदा करने के इल्ज़ाम पर या छोड़ दिया जा रहा है, या हॉकी से पीटा जा रहा है, या जला दिया जा रहा है I
दिल्ली में जारी 'हैय्या अभियान' अपने एक विनती पत्र के लिए हस्ताक्षर जमा कर रहा है I ये विनती FOGSI (फ़ेडरेशन ऑफ ओब्सत्रेटिक अंड गाइनकलॉजिकल सोसाइटीस ऑफ इंडिया- यानि भारतीय प्रसूति और स्त्री रोग सोसाईटी) को है, कि वो अपने से जुड़े हर डाक्टर को निर्देश दें कि वो अवैवाहित औरतों के लैंगिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का अपना उत्तरदायित्व समझें और लें I इसके लिए विनती पत्र की ज़रूरत क्यों पड़ रही है, स्त्री रोग विशेषज्ञ पहले से इसपर काम क्यों नहीं कर रहे हैं? ये भी, क्या हमें सच में लगता है कि ये डाक्टर शादी शुदा औरतों के अधिकारों का समर्थन कर रहे हैं?
डाक्टर और मरीज़ों की मुलाकात अक्सर मुश्किल और प्रतिपक्षी संदर्भों( और ये सन्दर्भ और प्रतिपक्षी होते जा रहे हैं) में होती है Iहमें ये समझने की ज़रूरत है कि दरमियानी हालात इतने कैसे बिगड़ गये I ये समझने के लिए दो कदम पीछे हटकर सोचने की आवश्यकता है, ताकि हम ये समझ पाएँ कि इन हालातों को सुधारा कैसे जाए, हम इस मकाम से आगे कैसे बढ़ें I
चलो वहाँ चलते हैं जहाँ इस सब की शुरुआत है: यानि मेडिकल कालेज I
MBBS करने में साढे पाँच साल लगते हैं, फिर 3 साल की निवासी ट्रैनिंग, इसके बाद हीभारतीय क़ानून की नज़रों में आप एक योग्यतापूर्ण दवाई विशेषज्ञ या मनःचिकित्सा विशेषज्ञ या स्त्री रोग विशेषज्ञ बनते हैं I इन साढ़े आठ सालों में कोई आपसे स्त्री पुरुष समानता, पित्रसत्ता, स्त्री जाति से द्वेष, या तरफ़दारी का ज़िक्र तक नहीं करता I प्रजननीय स्वास्थ विद्या और प्रशिक्षण का 99 % हिस्सा है, फिर भी लैंगिकता/ सेक्षुआलिटी पाठ्यक्रम का हिस्सा तक नहीं है I
हाँ, ऐसा ज़रूर है कि हमारे देश में कुछ ऐसे संवेदनशील डाक्टर है, जो सुआग्रही बन गये हैं, और जो औरतों के साथ इज़्ज़त से पेश आते हैं, उन्हें क्या हो रहा है और इलाज कैसे और क्यों हो रहा है, समझाते हैं I अगर वो फिर से उनके पास गर्भपात कराने आई हैं, तो डाक्टर उनपर चिल्लाते नहीं I ना ही ज़बरदस्ती उन्हें लंबे अंतराल वाले गर्भ निरोधक इस्तेमाल करवाते हैं I पर इस बर्ताव का कारण अक्सर उन डाक्टरों की अपनी संवेदनाएँ और नीति सिद्धांत होते हैं, ना कि शैक्षिक सन्दर्भ या अन्य वातावरण से मिले कोई सकारात्मक विचार I
चलिए देखते हैं, वो कौन जगहें हैं, जहाँ संभवतः, डाक्टर संवेदनशीलता सीख सकते हैं I
डाक्टरी शिक्षा का एक भारी हिस्सा तब सीखा जाता है जब वो वार्ड के चक्कर काटता हुआ, अपने वरिष्ट डाक्टरों और मौजूदा व्यवस्था के तौर तरीकों पर गौर करता है I हम सब डाक्टरों ने अपने वरिष्ट डाक्टरों को, अपने शिक्षकों को, एक अविवाहित गर्भवती लड़की से व्यंग भरा सवाल करते हुए देखा है, कि जब पहले संभोग करने के लिए उसने अपने पैर अलग कर लिए थे, तो फिर अब, ऑपरेशन टेबल पर, गर्भ पात कराने के लिए पैर अलग करने से क्यों झिझक रही है? ये सब तब, जब कुछ 15-20 मेडिकल छात्र इर्द गिर्द सुनते हुए खड़े हैं, और लड़की और उसकी माँ चुपचाप रो रही हैं I
हमने पुरुष डाक्टर के मुँह से आपरेशन टेबल पर नागनावस्था में और बेहोश लेटी महिला के बारे में फूहड़ टिप्पडी सुनी हैं I हम डाक्टरों ने अपने सीनियर डाक्टरों को खुले आम ये कहते हुए सुना है कि औरतें हर वक्त बलात्कार के झूठे इल्ज़ाम लगाती रहती हैं, सिर्फ़ आदमियों को परेशानियों में डाल धकेलने के लिए I हम जानते हैं कि डाक्टर ऐसी औरतों पर, जो वापस गर्भपात के लिए आती हैं, आगबबूला हो कर बरसते हैं और उन्हें लापरवाह कहते हैं I हो सकता है जब वो आख़ीरकर गर्भपात का ऑपरेशन करें, वो उसे बिना अनेस्थीसिया के करें, 'ताकि उसको सबक मिले' I
हमें सरकारी अस्पतालों से ऐसी कहानियाँ पता हैं जब जनन के बाद, लड़की होने पर कभी कभार औरत का परिवार उसे घर वापस ले जाने को नहीं आता है I हमें पता है कि आदमी नसबंदी कराने से इनकार करते हैं, जबकि ये एक छोटी प्रक्रिया है जो लोकल अनेस्थीसिया दे कर की जा सकती है I दूसरी तरफ औरतें अंदरूनी पेट संबंधी सर्जरी के लिए राज़ी हो जाती हैं जिसमें रीढ़ में अनेस्थीसिया दिया जाता है I मेडिकल कालेज के हमारे वरिष्ट जनों की मान्यताएँ हमारे अज्ञानी माने जाने वाले मरीज़ों की मान्यताओं से काफ़ी मेल खाती हैं I हमनें ऐसे क़िस्से सुने हैं जहाँ रेज़ीडेंट/ स्थानिक स्त्री मेडिकल आफिसरों को सीनियर रेज़ीडेंटों से ये हिदायत मिलती है कि वो गर्भवती ना हों, क्योंकि नहीं तो ड्यूटी रोटा गड़बड़ा जाता है I हाँ , पुरुष रेज़ीडेंट के पिता बनने में कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि वो किसी ख़ास रूप से बच्चे की देख रेख के उत्तरदायी नहीं रहेंगे, इसलिए उनके लिए कोई ख़ास मुआवज़े भी नहीं करने पड़ेंगे I पर हम डाक्टरों में किसी को इन क़िस्सों की बिंदुओं को जोड़ कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना नहीं सिखाया जाता I
चलिए अब मेडिकल पाठ्यपुस्तकों की बात करते हैं I
आपको शायद विश्वास ना हो, मैं खुद हैरान हूँ कि सन् 2017 में भी ऐसा हो रहा है I NGO और स्त्री सक्रीयतावादियों ( आक्टिविस्ट) की कोशिशों के बावजूद, सेकंड यर के MBBS के छात्रों की पाठ्यपुस्तक में ( ‘डा. ए सी मोहंती की लीगल मेडिसिन’, लेखक डा. महापात्रा और डा. कुलकर्णी ) में एक बड़ा सुंदर सा चार्ट है, जिसमें बाहरी जनानांगों का अंतर दिखाया गया है, ऐसी दो लड़कियों में, जिनमें एक ने कभी संभोग नहीं किया है, और दूसरी संभोग कर चुकी है, यानि जो पुष्पनातीत- deflorate कहलाती है( जी हाँ, संभोग करने पर औरत को ये इस नाम से बुलाते हैं) I ये कमाल का चार्ट मेडिकल छात्रों को ये बताता है कि भगोष्ठ के दो हिस्सों में बड़ा वाला हिस्सा ( labia majora) उन लड़कियों में मोटा और मजबूत होता है, जिन्होने कभी संभोग नहीं किया है, पर पुष्पनातीत लड़की या औरत में ये पतला, समतल और मुलायम होता है I कि भगशेफ़ (clitoris) छोटा या बड़ा ( किसकी तुलना में?) इन्ही कारण से होता है; स्तन भी अर्धगोल्कीय, ठोस और उनकी चुसनी छोटी होती है, जबकि पुष्पनातीत औरतों में स्तन ढीले, लटके हुए, और चुसनी भी बड़ी होती हैंI
तो ये तो फ़ितरत है तथ्यों की!
जब विद्यार्थियों को ऐसे मेडिकल 'तथ्य' सिखाए जा रहे हैं, बिना किसी असहमति या वाद विवाद के लिए जगह बनाकर, विरोध तो दूर की बात है, और ऐसे वातावरण में जहाँ जेंडर/ लिंग भेद पर कोई बात चीत ही नहीं होती, ना पितृसत्ता, भेद भाव, लैंगिकता, या उन सामाजिक सांस्कृतिक पहलुओं पर जिनका हमारे स्वास्थ्य पर असर होता है, ऐसे मैं हम उन विद्यार्थियों से आख़िर क्या उम्मीद रख सकते हैं, जब वो स्नातक पा कर डाक्टरी का काम शुरू करते हैं?
डाक्टर भी एक बेरूख़् और कभी कभी वैरी व्यवस्था के शिकार बन सकते हैं I व्यवस्था उनको इनाम देती है जो उसके साथ काम कर पाते हैं I हाल में मस्तिश्कको- encephalitis- के कारण हुई मौतों के सिलसिले में, जो डाक्टर ऑक्सिजन सिलिंडर की खोज में दर दर भागा था, जिसने अपने पैसे से और सिलिंडर लेने की कोशिश की थी, उसे तंज़ के साथ ‘भल्मानुस ‘बताया जा रहा है, और उसे नौकरी से निकल दिया गया है I यही कारण है कि छ्तीसगड़ के नसबंदी कॅंप में जिस डाक्टर ने 3 घंटों में 83 ट्यूबल लिगेशन करे ( औरतों में नसबंदी का तरीका, फेलोपियन नलिकाओं जो अंडाशय और गर्भाशय के दरमियाँ होती हैं, को सर्जरी द्वारा 'बाँध' किया जाता है) , उस डाक्टर को कुछ पिछले संदर्भों में बड़े टारगेट प्राप्ति के लिए, राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया गया I उस कांप में तेरह औरतों की मौत हुई थी, उनमें से कुछ बस 26 साल की थीं और उनके तीन बच्चे हो चुके थे I
फिर इस बात को पहचाने का भी सवाल उठता है कि जेंडर/ लिंग भेद को लेकर भी कई विषमताए हैं, जो स्त्री डाक्टर और पूरी व्यवस्था पर असर करती हैं I
पहले की तुलना में, स्नातकोत्तर विशिष्टीकरण ( post graduate specialisation) में पहले से कहीं ज़्यादा जवान औरतें, मेडिकल कालेजों में प्रवेश कर रही हैं I पर क्या वास्तव में बराबरी की बात हो सकती है? स्नातकोत्तर विशिष्टीकरण के लिए, कितनी स्त्री डाक्टर हैं जो ऐसे छेत्रों में काम करने का चुनाव करती हैं या कर पाती हैं, जिनकी माँग ज़्यादा है, जहाँ वेतन भी ज़्यादा है?
जर्नल ऑफ अमेरिकन कॉलेज ऑफ कारडीयालजी ( Journal of American College of Cardiology) के अनुसार, हृदयरोग विज्ञान में अपना करियर बनाने की इच्छुक कई बाधाओं का सामना करती हैं, जैसे कि " फॅमिली प्लॅनिंग कर पाने में मुश्किलें, काम-जीवन के समतोल में गड़बड़, विकिरण कार्य से शरीर को जोखिम की आशंका" I वो काम ले भी लें, तो अपने पुरुष सहकर्मियों के प्रक्षेप पथ पर चलना कितनों के लिए संभव है? कितनी रिश्तों के फुल टाइम बंधनों को भी संभाल रहीं हैं, और सारे वक्त काल पर भी हैं? कितनी बच्चे होने के बाद पार्ट टाइम काम करने लगती हैं? कितनी बच्चों के बीमार पड़ने पर छुट्टी लेती हैं? अब तुलना में एक भी लड़का नहीं है जिसने बॅक सीट ले ली हो, जो इस लिए पार्ट टाइम काम कर रहा हो क्योंकि उसके बच्चे 3 बजे घर आ जाते हैं, और उसे उनके साथ रहना पड़ता है, उनका होमवर्क कराने को, और उनकी देख रेख करने को I ये व्यवस्था की और बड़ी किस्म की त्रुटियाँ हैं, जो व्यक्ति विशेष के जीवन पर अपनी परछाई डालती हैं I पर इन्हीं की वजह से भारत जैसी स्तिथी पैदा होती है जहाँ मेडिकल कालेज में तो 51 % लड़कियाँ अड़मिशन लेती हैं, पर आख़िरकार डाक्टरों में केवल 17% महिला डाक्टर होती हैं!
हमें इस पर गौर करना कभी नहीं सिखाया जाता कि हमारे और हमारे मरीज़ों के जीवन में जेंडर/ लिंग भेद का स्वरूप कहीं मिलता जुलता सा तो नहीं?
लगता है कुछ परिवर्तन तो हुए हैं I मसलन मुंबई के एक हस्पताल में, जहाँ पढ़ाई होती है, मेडिकल मानविकी ( humanities)
का विभाग बनाया जा रहा है I पर अगर हमें संवेदनशील डाक्टर चाहिए, तो फिर हमें चिकित्सा की विधि भी एक समग्र रूप से पढ़ानी होगी, केवल निदान और इलाज के तरीकों तक अपने को सीमित ना रख के I हमें देश भर में, हर मेडिकल कालेज में, ऐसी व्यवस्थाओं में निवेश करना होगा, जहाँ ऐसा मानवीय अध्ययन और संवाद हो सके I
डा. अनामिका प्रधान मुंबई में काम करने वालीं विशेषज्ञ हैं, वो शहर के ही एक मेडिकल कालेज में पढ़ी हैं I उन्हें सख़्त ज़रूरत महसूस होती है, कि ऐसे डाक्टर बन कर आएँ जो मानवीय हों, सोचें विचारें और समाज में परिवर्तन लाने के कर्त्ता बनें I
डाक्टरजन वास्तव में संभोग, गर्भपात और अक्षतता- वर्जिनिटी- के बारे में आख़िर क्या सोचते हैं?
हमारी स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त लिंग भेद और नैतिक पक्ष पात का , एक डाक्टर का बयान
लेखन: डा. अनामिका प्रधान
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