कार्ड पर लिखा है:
१८०० के दशक के इंडिया में फातिमा शेख नाम की एक औरत थी, जो एक बहुत खास सपने का हिस्सा रहीं। पर वो कौन थी ?
वो सावित्रीबाई फुले के साथ जुड़ी थी, और उसी ज़रिए हम उनको जान पाए। लेकिन सिवाए इसके, जैसा कि अक्सर औरतों संग होता है, इतिहास उनकी अधिकांश कहानियों तक पहुंचा ही नहीं। कोई न्यूज़ रिपोर्ट नहीं। भरोसा करने लायक किसी डायरी में कोई नोट नहीं। लेकिन, इतिहासकारों ने इधर उधर से कुछ संदर्भों और किस्सों से, उनकी जिंदगी की कहानी को फिर से बनाने की कोशिश की है।
एक रूपांतर यहां है...
कार्ड पर लिखा है:
१८३१: आगरा में (संभवतः) बुनकरों के एक समुदाय में एक लड़की का जन्म हुआ (संभवतः) । उसका नाम फातिमा रखा गया ।
१८३७ : आगरा में पड़े अकाल के कारण फातिमा शेख का परिवार मालेगांव चला गया । कुछ ही समय बाद उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। उनका भाई उस्मान उनका गार्डियन बना।
१८४२ : मालेगांव में सूखा पड़ा । टिड्डियों का हमला भी हुआ । उस्मान और फातिमा पुणे चले गए। फारसी विद्वान मुंशी गफ़ बेग ने उनको अपने संरक्षण में ले लिया।
कार्ड पर लिखा है:
हम फातिमा के खुद की शिक्षा के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं।
वो पढ़ी-लिखी थी (उस वक़्त कुछ अमीर परिवारों की मुस्लिम औरतों के लिए ये कोई अचरज़ की बात नहीं थी)।
वो जवान लड़कियों को सिलाई-कढ़ाई सिखाती थी।
उन्होंने उस्मान से बुनियादी गणित सीखा, ताकि अपना हिसाब-किताब खुद रख सके।
ये अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने पुणे में मिसेज मिशेल नॉर्मल स्कूल में पढ़ाई की थी।
कार्ड पर लिखा है:
संभवत: मिसेज मिशेल नॉर्मल स्कूल में फ़ातिमा शेख़ की मुलाकात सावित्रीबाई फुले से हुई, जो इंडिया में औरतों की शिक्षा पर काम कर रही एक दूसरी मार्गदर्शक रही ।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि दोनों की मुलाकात एक अलग स्कूल में हुई थी: अहमदनगर में एक ईसाई मिशनरी, सिंथिया फर्रार द्वारा स्थापित, टीचर ट्रेनिंग संस्थान।
खैर, चाहे वो कहीं भी मिले हों, उनके बीच एक ख़ूबसूरत दोस्ती पनप गई।
सावित्रीबाई और फ़ातिमा का मिला जुला सपना था: समाज के हर वर्ग की लड़कियों के लिए एक स्कूल स्थापित करना।
कार्ड पर लिखा है:
1 जनवरी, 1848: सावित्रीबाई फुले और उनके पति जोतिबा ने पुणे के भिड़ेवाड़ा, पुणे में लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोला।
फ़ातिमा वहां टीचर बनके उनके साथ जुड़ गईं।
सामाजिक विरोध फटाफट भड़का। आख़िरकार वो लड़कियों को पढ़ा रहे थे, और उनकी कई छात्र महार और मांग समुदायों से आती थीं। ऊंची जाति के लोग उन्हें आसपास के जल संसाधन से पानी तक पीने से रोकते थे। फ़ातिमा और सावित्रीबाई उनके लिए पानी खरीदती थीं ।
जब टीचर और ये लड़कियां स्कूल जाते, तो लोग उन पर गोबर फेंका करते थे।
और फ़ातिमा को हिंदू और मुस्लिम, दोनों की आलोचना सहनी पड़ती थी।
ऐसे में हैरानी की बात नहीं, कि पैसे जुटाना मुश्किल हो रहा था। आर्थिक स्थिति की वज़ह से स्कूल कुछ समय तो बंद करना पड़ा ।
कार्ड पर लिखा है:
जोतिबा फुले के पिता को भी स्कूल के ख़िलाफ़ विरोध का सामना करना पड़ा। दबाव में आकर, 1849 में उन्होंने जोतिबा और सावित्रीबाई को घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया। मुंशी गफ़र बेग (उस्मान और फ़ातिमा के गार्डियन) ने फिर जोतिबा की मदद की। बेग ने उस्मान को फुले दंपति को आश्रय और सहयोग देने के लिए प्रोत्साहित किया।
शेख के घर में, उन्होंने फ़ातिमा के साथ मिलकर, लड़कियों के लिए एक और स्कूल खोला- नाम था- द इंडिजिनस/स्वदेशी लाइब्रेरी। अब उनका काम जमा।
1848 से 1853 के बीच इन तीनों ने लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले! लड़कियों ने इतिहास, भूगोल, व्याकरण और गणित, सब सीखा। फ़ातिमा ने घर-घर जाकर माता-पिता को समझाया कि वो अपनी बेटियों को स्कूल भेजें। 1851 के आखिर तक, 150 से ज्यादा लड़कियाँ स्कूल में शामिल हो चुकी थीं।
कार्ड पर लिखा है:
1852: मकर संक्रांति पर, फ़ातिमा और सावित्रीबाई ने लोकल औरतों के लिए हल्दी-कुमकुम का समारोह रखा। वहां, सावित्रीबाई ने उनसे शिक्षा की और बंधन से मुक्त होने के आपसी जोड़ पे बात की।
1853: बहुत प्रतिरोध का सामना करने के बाद, फ़ातिमा और सावित्रीबाई का उद्देश्य था अपने काम के महत्त्व को उज़ागर करना। 12 फरवरी को, उन्होंने एक पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित किया और लोकल कुलीन वर्ग और ब्रिटिश लोगों को आमंत्रित किया।
उन्होंने स्टेज पर मौजूद लड़कियों के साथ सवाल-जवाब खेला। छात्राओं ने सभी सवालों का सही उत्तर दिया। कार्यक्रम बहुत सफल रहा !
सावित्रीबाई अपने काम का दायरा बढ़ाना चाहती थी। उन्हें फ़ातिमा पर सबसे ज्यादा भरोसा था। उन्होंने फ़ातिमा को अपने स्कूलों की प्रधानाध्यापिका बना दिया।
कार्ड पर लिखा है:
उस समय की प्रथा के अनुसार, फ़ातिमा शेख की (संभवतः) मंगनी बचपन में ही कर दी गई थी।
वज़ह तो पता नहीं, लेकिन जिस इंसान से उनकी सगाई हुई थी, वो उनके जवानी में कदम रखने के बाद भी, कभीउनको लेने को नहीं आया।
इतिहासकारों का अनुमान है कि 1856 के कुछ बाद फ़ातिमा शेख़ ने आगरा के एक होटल के मालिक, बरक़त से शादी की। वो जोतिबा और सावित्रीबाई ही थी, जिन्होंने शादी में उनका हाथ बरक़त के हाथ में दिया। फिर वो आगरा चली गईं और धीरे-धीरे फुले परिवार से उनका संपर्क टूट गया। सावित्रीबाई से उनकी आख़िरी मुलाकात 1862 में (संभवतः) सिंथिया फर्रार के अंतिम संस्कार के दौरान हुई थी।
कार्ड पर लिखा है:
ये फ़ातिमा शेख़ की एकमात्र जानी पहचानी तस्वीर है।
ये 1924 और 1930 के बीच प्रकाशित पुणे के अखबार माजुर में छपी एक तस्वीर के नेगेटिव से मिली है।
फ़ातिमा का एक और सीधा संदर्भ 10 अक्टूबर, 1956 की उस चिट्ठी में है, जो सावित्रीबाई ने जोतिबा को लिखी थी।
अपने मायके में किसी बीमारी से उबर रही सावित्रीबाई लिखती हैं, “मैं जानती हूं कि मेरे वहां ना होने से फ़ातिमा को कितनी परेशानी होती है। हमारे नसीब अच्छे हैं कि वो चिड़-चिड़ करने वालों में से नहीं है।”
कार्ड पर लिखा है:
9 जनवरी 2022 को गूगल ने एक डूडल बनाकर फ़ातिमा शेख़ को याद किया।
सावित्रीबाई और फ़ातिमा की दोस्ती हमें ये बताती है कि कैसे प्यार, देखभाल और एकजुटता क्रांतिकारी हो सकती है।
तो पेश है इश्क और इंकलाब का ये असली उदाहरण!