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फ़ातिमा शेख़ की तलाश

एक महिला की कहानी जिसने 1800 की दशक में लड़कियों के लिए 18 स्कूलों की सह-स्थापना की और जो हर कदम पर जाति और जेंडर पूर्वधारणा से लड़ी।

कार्ड में केंद्रीय  चित्र समाज सुधारक और शिक्षिका फ़ातिमा शेख़ की वक्ष-लंबाई वाली छवि है। काले और सफेद चित्रण में उन्हें एक साड़ी में दिखाया गया है, जिसमें उनका सिर पल्लू से ढका हुआ है, उन्होंने चूड़ियाँ पहनी हुई हैं और हाथ में “विश्व को कैसे बदला जाए” शीर्षक वाली एक किताब पकड़ रखी है। शेख़ की छवि फूल की पंखुड़ियों से बनी है, जो उनके रूप के चारों ओर व्यवस्थित है। हालांकि, वो एक हेलो/प्रभामंडल है। वह संगीतमय स्वरों और पत्तों के रूपांकनों से भी घिरी हुई है। कार्ड के ऊपरी दो कोनों में फूल के चित्र हैं।

कार्ड पर लिखा है:

१८०० के दशक के इंडिया में फातिमा शेख नाम की एक औरत थी, जो एक बहुत खास सपने का हिस्सा रहीं। पर वो कौन थी ?

वो सावित्रीबाई फुले के साथ जुड़ी थी, और उसी ज़रिए हम उनको जान पाए। लेकिन सिवाए इसके, जैसा कि अक्सर औरतों संग होता है, इतिहास उनकी अधिकांश कहानियों तक पहुंचा ही नहीं। कोई न्यूज़ रिपोर्ट नहीं। भरोसा करने लायक किसी डायरी में कोई नोट नहीं। लेकिन, इतिहासकारों ने इधर उधर से कुछ संदर्भों और किस्सों से, उनकी जिंदगी की कहानी को फिर से बनाने की कोशिश की है।

एक रूपांतर यहां है...

कार्ड में फ़ातिमा शेख़ के लड़कपन का कालानुक्रमिक विवरण है। इसमें १८३१, १८३७ and और १८४२ के वर्ष शामिल हैं, जो उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को दर्शाते हैं।  कार्ड में आगरा, मालेगांव और पुणे के उन स्थानों का जिक्र करते हुए रेखांकित मानचित्र भी दर्शाए गए हैं जहां ये घटनाएं हुई थीं। एक बिंदीदार रेखा मानचित्रों के तीनों चित्रणों को जोड़ती है। इस कार्ड के ऊपरी दो कोनों में भी फूल के चित्र हैं।

कार्ड पर लिखा है:

१८३१:  आगरा में (संभवतः) बुनकरों के एक समुदाय में एक लड़की का जन्म हुआ (संभवतः) । उसका नाम फातिमा रखा गया ।

१८३७ :  आगरा में पड़े अकाल के कारण फातिमा शेख का परिवार मालेगांव चला गया । कुछ ही समय बाद उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। उनका भाई उस्मान उनका गार्डियन बना।

१८४२ :  मालेगांव में सूखा पड़ा । टिड्डियों का हमला भी हुआ । उस्मान और फातिमा पुणे चले गए। फारसी विद्वान मुंशी गफ़ बेग ने उनको अपने संरक्षण में ले लिया।

इस कार्ड में फ़ातिमा शेख़ का वैसा ही चित्रण है जैसा कि कार्ड १ में है। पुष्प छायाचित्र और '“विश्व को कैसे बदला जाए”' शीर्षक वाली पुस्तक भी मौजूद है। इस चित्र में, वह अपने सिर पर ग्रेजुएशन टोपी लगाए हुए दिखाई देती है।

कार्ड पर लिखा है:

हम फातिमा के खुद की शिक्षा के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं।

वो पढ़ी-लिखी थी (उस वक़्त कुछ अमीर परिवारों की मुस्लिम औरतों के लिए ये कोई अचरज़ की बात नहीं थी)।

वो जवान लड़कियों को सिलाई-कढ़ाई सिखाती थी।

उन्होंने उस्मान से बुनियादी गणित सीखा, ताकि अपना हिसाब-किताब खुद रख सके।

ये अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने पुणे में मिसेज मिशेल नॉर्मल स्कूल में पढ़ाई की थी।

इस कार्ड पर केंद्रीय चित्र नीचे की ओर व्यवस्थित है - फ़ातिमा शेख़ और सावित्रीबाई फुले जो शरारती ढंग से एक-दूसरे की ओर देख रही हैं। घुमावदार लताएँ और अन्य पत्तियाँ उन्हें घेर रही हैं। उनके पास एक-एक स्पीच बबल भी है, जिसमें लिखा है, 'आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए...' और 'तो बात बन जाए!' कार्ड के ऊपरी दो कोनों में फूलों के चित्र को अब पत्तों से बदल दिया गया है।

कार्ड पर लिखा है:

संभवत: मिसेज मिशेल नॉर्मल स्कूल में फ़ातिमा शेख़ की मुलाकात सावित्रीबाई फुले से हुई, जो इंडिया में औरतों की शिक्षा पर काम कर रही एक दूसरी मार्गदर्शक रही ।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि दोनों की मुलाकात एक अलग स्कूल में हुई थी: अहमदनगर में एक ईसाई मिशनरी, सिंथिया फर्रार द्वारा स्थापित, टीचर ट्रेनिंग संस्थान।

खैर, चाहे वो कहीं भी मिले हों, उनके बीच एक ख़ूबसूरत दोस्ती पनप गई।

सावित्रीबाई और फ़ातिमा का मिला जुला सपना था: समाज के हर वर्ग की लड़कियों के लिए एक स्कूल स्थापित करना।

कार्ड में एक बार फिर निचले- दाहिने कोने में फ़ातिमा शेख़ का चित्र है, जिसमें उन्होंने 'दुनिया को कैसे बदलें' का पुस्तक पकड़ा हुआ है। इस बार, उसकी भौंहें सिकुड़ी हुई हैं, जो दुख की अभिव्यक्ति को दर्शाता है। उसके चारों ओर बदबूदार मल के तीन छोटे चित्र लगाए गए हैं - यह दर्शाते हुए कि उन पर गोबर फेंका गया था, साथ ही मौखिक ताने/दुर्व्यवहार का भी संकेत दिया गया है।

कार्ड पर लिखा है:

1 जनवरी, 1848: सावित्रीबाई फुले और उनके पति जोतिबा ने पुणे के भिड़ेवाड़ा, पुणे  में लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोला।

फ़ातिमा वहां टीचर बनके उनके साथ जुड़ गईं।

सामाजिक विरोध फटाफट भड़का। आख़िरकार वो लड़कियों को पढ़ा रहे थे, और उनकी कई छात्र महार और मांग समुदायों से आती थीं। ऊंची जाति के लोग उन्हें आसपास के जल संसाधन से पानी तक पीने से रोकते थे। फ़ातिमा और सावित्रीबाई उनके लिए पानी खरीदती थीं ।

जब टीचर और ये लड़कियां स्कूल जाते, तो लोग उन पर गोबर फेंका करते थे।

और फ़ातिमा को हिंदू और मुस्लिम, दोनों की आलोचना सहनी पड़ती थी।

ऐसे में हैरानी की बात नहीं, कि पैसे जुटाना मुश्किल हो रहा था। आर्थिक स्थिति की वज़ह से स्कूल कुछ समय तो  बंद करना पड़ा ।

कार्ड में घर के आकार की संरचना की रूपरेखा के दोनों ओर फ़ातिमा शेख़ और सावित्रीबाई फुले को दर्शाया गया है। इसका शीर्षक 'इंडीजिनस/स्वदेशी पुस्तकालय' है। शेख़ और फुले के नीचे काले और सफेद रंग की दो दूसरी औरतें हैं, जिन्हें ग्रेजुएशन टोपी के साथ दिखाया गया है। कार्ड में पृष्ठभूमि में दूसरी लड़कियों के रूप भी दर्शाए गए हैं।

कार्ड पर लिखा है:

जोतिबा फुले के पिता को भी स्कूल के ख़िलाफ़ विरोध का सामना करना पड़ा। दबाव में आकर, 1849 में उन्होंने जोतिबा और सावित्रीबाई को घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया। मुंशी गफ़र बेग (उस्मान और फ़ातिमा के गार्डियन) ने फिर जोतिबा की मदद की। बेग ने उस्मान को फुले दंपति को आश्रय और सहयोग देने के लिए प्रोत्साहित किया।

शेख के घर में, उन्होंने फ़ातिमा के साथ मिलकर, लड़कियों के लिए एक और स्कूल खोला- नाम था- द इंडिजिनस/स्वदेशी लाइब्रेरी। अब उनका काम जमा।

1848 से 1853 के बीच इन तीनों ने लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले! लड़कियों ने इतिहास, भूगोल, व्याकरण और गणित, सब सीखा। फ़ातिमा ने घर-घर जाकर माता-पिता को समझाया कि वो अपनी बेटियों को स्कूल भेजें। 1851 के आखिर तक, 150 से ज्यादा लड़कियाँ स्कूल में शामिल हो चुकी थीं।

कार्ड में फ़ातिमा शेख़ और पहले वाले कार्ड में ग्रेजुएशन टोपी पहनी दूसरी औरतों में से एक का चित्रण दर्शाया गया है। ये औरत भी अब फ़ातिमा की तरह पुष्प छाया से घिरी हुई है, जो शैक्षिक ज्ञान का सुझाव देती है। ये दोनों एक मंच के सामने माइक्रोफोन के साथ खड़े हैं। पृष्ठभूमि में दर्शकों की एक बड़ी भीड़ दिखाई दे रही है। कार्ड के ऊपरी दो कोनों में फूल के चित्र हैं।

कार्ड पर लिखा है:

1852: मकर संक्रांति पर, फ़ातिमा और सावित्रीबाई ने लोकल औरतों के लिए हल्दी-कुमकुम का समारोह रखा। वहां, सावित्रीबाई ने उनसे शिक्षा की और  बंधन से मुक्त होने के आपसी जोड़ पे  बात की।

1853: बहुत  प्रतिरोध का सामना करने के बाद, फ़ातिमा और सावित्रीबाई का उद्देश्य था अपने काम के महत्त्व को उज़ागर करना। 12 फरवरी को, उन्होंने एक पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित किया और लोकल कुलीन वर्ग और ब्रिटिश लोगों को आमंत्रित किया।

उन्होंने स्टेज पर मौजूद लड़कियों के साथ सवाल-जवाब खेला। छात्राओं ने सभी सवालों का सही उत्तर दिया। कार्यक्रम बहुत सफल रहा !

सावित्रीबाई अपने काम का दायरा बढ़ाना चाहती थी। उन्हें फ़ातिमा पर सबसे ज्यादा भरोसा था। उन्होंने फ़ातिमा को अपने स्कूलों की प्रधानाध्यापिका बना दिया।

कार्ड में निचले-दाहिने कोने में शादी के निमंत्रण का थोड़ा झुका हुआ चित्रण है। सफेद रंग की पृष्ठभूमि पर, इसमें मेंहीदार काम किया हुआ नीला बॉर्डर है और इसका शीर्षक 'निकाहनामा' है। इसमें फ़ातिमा और बरक़त के नाम और फ़ातिमा शेख़ की एक छवि भी शामिल है। निमंत्रण में दो गुलाबी रंग के दिल भी हैं, जिनके अंदर सावित्रीबाई फुले और जोतिबा फुले की तस्वीरें हैं।

कार्ड पर लिखा है:

उस समय की प्रथा के अनुसार, फ़ातिमा शेख की (संभवतः) मंगनी बचपन में ही कर दी गई थी।

वज़ह तो पता नहीं, लेकिन जिस इंसान से उनकी सगाई हुई थी, वो उनके जवानी में कदम रखने के बाद भी, कभीउनको लेने को  नहीं आया।

इतिहासकारों का अनुमान है कि 1856 के कुछ बाद फ़ातिमा शेख़ ने आगरा के एक होटल के मालिक, बरक़त से शादी की। वो जोतिबा और सावित्रीबाई ही थी, जिन्होंने शादी में उनका हाथ बरक़त के हाथ में दिया। फिर वो आगरा चली गईं और धीरे-धीरे फुले परिवार से उनका संपर्क टूट गया। सावित्रीबाई से उनकी आख़िरी मुलाकात 1862 में (संभवतः) सिंथिया फर्रार के अंतिम संस्कार के दौरान हुई थी।

कार्ड में फ़ातिमा शेख़ की वास्तविक जीवन की तस्वीर है, जो एक तस्वीर के नैगेटिव पर आधारित है। तस्वीर में शेख़ को सावित्रीबाई फुले, एक दूसरे वयस्क और दो बच्चों के साथ बैठे दिखाया गया है। कार्ड के ऊपरी दो कोनों में फूल के चित्र हैं।

कार्ड पर लिखा है:

ये फ़ातिमा शेख़ की एकमात्र जानी पहचानी तस्वीर है।

ये 1924 और 1930 के बीच प्रकाशित पुणे के अखबार माजुर में छपी एक तस्वीर के नेगेटिव से मिली है।

फ़ातिमा का एक और सीधा संदर्भ 10 अक्टूबर, 1956 की उस चिट्ठी में है, जो सावित्रीबाई ने जोतिबा को लिखी थी।

अपने मायके में किसी बीमारी से उबर रही सावित्रीबाई लिखती हैं, “मैं जानती हूं कि मेरे वहां ना होने से फ़ातिमा को कितनी परेशानी होती है। हमारे नसीब अच्छे हैं कि वो चिड़-चिड़ करने वालों में से नहीं है।”

कार्ड में फ़ातिमा शेख़ का गूगल द्वारा बनाया गया डूडल है। इसमें शेख़ को नीले पल्लू और पृष्ठभूमि में दो खुली किताबों के साथ दिखाया गया है। किताबें और शेख़ कमल जैसे चित्रण में लिपटे हुए हैं, जिसकी ऊपरी पंखुड़ियाँ पीले रंग में हैं और किनारे की पंखुड़ियाँ नीले रंग में हैं, जो किनारे की ओर फैली हुई हैं।

कार्ड पर लिखा है:

9 जनवरी 2022 को गूगल ने एक डूडल बनाकर फ़ातिमा शेख़ को याद किया।

सावित्रीबाई और फ़ातिमा की दोस्ती हमें ये बताती है कि कैसे प्यार, देखभाल और एकजुटता क्रांतिकारी हो सकती है।

तो पेश है इश्क और इंकलाब का ये असली उदाहरण!

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