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रविवार के कुछ दिन

चाय की चुस्कियों के साथ मैं एक उभरते हुए रोमांस की चाह में था - बचा अंत में बस मैं और ग्रीन टी

मैं कभी अकेला नहीं रहता। मेरा शरीर हरदम मेरे साथ रहता है। बीमार विकलांग शरीर। बात बात पर रूठने वाला शरीर। कुछ दिन ऐसे होते हैं जब अपने शरीर से सामंजस्य बनाते बनाते ही पूरा समय निकल जाता है। इससे निकलती है एक ऐसी  थकान, जो सोने से भी खत्म नहीं होती। एक बेचैनी। एक सुगबुगाहट। मन करता है कहीं और भाग जाने का । पर कही और भागने से कुछ होगा नहीं। शरीर तो साथ ही रहेगा, बड़ बड़ करता हुआ। मैंने उतना अकेलापन कभी अकेले महसूस नहीं किया जितना इस बातूनी शरीर के साथ किया है। फिर लगता है काश कोई होता मेरे साथ ताकि मैं शरीर की बातों से मन भटका सकूं। और इसी क्रम में, एक के बाद एक, फोन पर डेटिंग एप्स इंस्टॉल होते जाते है। मैं प्यार ढूंढ रहा हूं। मैं संभोग ढूंढ रहा हूं। मैं बस इंटिमेसी ढूंढ रहा हूं। यह जानते हुए भी कि दुनिया मेरे शरीर को किस तरह से देखती है। हर्ज़ की क्या है?

मेरा उसके साथ मैच होना बहुत भौचक्का करने वाली बात नहीं थी? । मेरे साथ ऐसा छोटे शहरों में पहले भी हुआ था। कोई मिलता था ऑनलाइन। उम्मीद से भरा हुआ। तड़प से लबलबाता। क्या ख़ोज रही हो तुम? कुछ नहीं, बस टाइम पास। बाहर की दुनिया जब दबाती है हर एक शारीरिक कामना तो कमरे के अंदर बैठे शरीर को कसमसाहट होने लगती है। कुछ हफ्तों की बात होती है, फिर यह जानते कि बात कहीं बढ़नी नहीं थी, या तो वो ऊब जाती या मैं ऊब जाता हूं। ऐसा नहीं है कि मैं किसी के साथ ले लिए गंभीर नहीं हूं। पर जिस तरह से वो मेरे शरीर को देखते , मुझे पता चल जाता है कुछ होने वाला नहीं है। कोई कहती है, तुम बहुत बहादुर हो, जो अपने आप को खोल रहे हो, सबके सामने। बहादुर? क्या कोई किसी विकलांग को बहादुर कहने के बाद उससे शाहारिरिक संबंध बनाने की सोच सकता है? मुझे नहीं लगता।

उस लड़की का मिलना एक अच्छा बदलाव ज़रूर था। एक थके हुए शरीर, एक अकेले मन को थोड़ा सा रोमांच जो मिल रहा था। "मैं पास ही रहती हूं। आज आ जाऊं?" कितनी बहादुर है। इस अनजान शहर में एक अंजाने मर्द से मिलना आसान काम नहीं। कितना खतरा है। "हां, हां, आओ"। शाम में घंटी बाजी। साधारण सी पोशाक। जैसे टहलने निकली हो। उसके पास एक किताब है। मुराकामी की। दौड़ने का क्या अर्थ है उनके जीवन में, यह बताती हुई। मैं पढ़ चुका हूं। सब कुछ पढ़ लिया मुराकामी का एक अरसा पहले। एक फेज था। वह बुक देते हुए हिचक रही है। क्या हुआ? नहीं मुझे लगा दौड़ने पर किताब ठीक होगा कि नहीं? मैं हंसने लगा। तो क्या कोई विकलांग दौड़ने के बारे में किताब नहीं पढ सकता? उसकी हिचक समझता था मैं। आजकल पॉलिटिकल करेक्टनेस का ज़माना है। कुछ भी आहत कर सकता है।

चाय बनाऊं? नहीं चाय नहीं पीती। ग्रीन टी? हां। ठीक है। मैं दो कप ले आया और आराम से बेड पर लेट कर पानी गर्म करने लगा। वो कमरे के दूसरे कोने में एक कुर्सी पर बैठ सिगरेट पीने लगी। मेरी सिगरेट शराब बीमारी ने कब की छीन ली है। अब मेरा साम्राज्य बस बिस्तर है । काम करो, किताबें बढ़ो, और ग्रीन टी बनाओ। चाय पीते पीते हम बातों के समंदर में डूब गए। एक दूसरे के अतीत को टटोलते । मेरी कहानियां अक्सर मुझे उस दौर में ले जाती हैं, जब मैं अपने आप को सकलांग समझता था। अतीत का यह प्यार अक्सर एक ग्लानि भर देता है मेरे अंदर। पर उसके आने वाले सपने और संघर्षों को सुनकर मैं भी बह गया था । मेरे पास आने वाले कल के लिए कुछ खास नहीं था, पर किसी अनजान व्यक्ति का मेरे कमरे में बैठकर खुलना, मेरे अंदर एक नई उम्मीद जगा देता था। 

कार्ड पे दो लोगों को दर्शाया गया है, जो आमने सामने बैठे हैं। सिर्फ उनके चहरे हमें दिखाई देते हैं। उनमें से एक के सिर के ऊपर एक थॉट बबल है, जिसमे उन दोनों को चूमते हुए दर्शाया गया है।

इसके बाद हर वीकेंड उसका मैसेज आ जाता। आ जाऊं? हां आ जाओ। वो भी बोर हो रही होगी। बड़े शहरों में रही थी। अब कोविड ने हम जैसे को घर पर लाके छोड़ दिया था। हर बार वही रूटीन होता। वो आती। हम बातें करते। कला की, कलाकारों की, पेंटर्स की। पसंदीदा संगीत एक दूसरे से साझा करते। मुराकामी के बारे में बात करते। या काफ़का। ग्रीन टी पीते। काफी रोमानी था सब कुछ। पर जैसे जैसे समय बढ़ता गया, उस कमरे में कुछ काले बादल आते गए, पूछते हुए हमसे 'अब कहां जाना है?’ उसके घर में उसकी शादी की बात चल रही थी। मेरे दिमाग में वो अकेलापन वापस घर करने लगा था। बस बात करने के लिए बहुत लोग थे मेरे जीवन में। मैं उस पड़ाव पर नहीं था जहां बस किसी दूसरे जेंडर से बात करके मुझे जीवन में संतुलन नज़र आता था। मैं डेटिंग साइट पर जाता था क्योंकि मुझे प्यार चाहिए था, सेक्स चाहिए था, इंटिमेसी चाहिए थी। अपने शरीर को देखने का अलग नज़रिया चाहिए था। यह भरोसा चाहिए था कि ऐसे लोग हैं जो मेरे विकलांग शरीर को चाह सकते हैं, उसे पाना चाहते हैं, प्यार करना चाहते हैं।

जैसे जैसे दिन बीतते गए, मेरे अंदर के सवाल बढ़ते गए। क्या फिर से मैं उसी चक्कर में फंस गया हूं जहां लोग बस मेरा भावात्मक लाभ उठाना चाहते हैं, बिना मेरे शरीर को छुए? मेरा गुरुत्वाकर्षण कभी शरीर तक नहीं पहुंचेगा? क्या था ऐसे रिश्ते का मतलब। हम दोस्त नहीं थे। दोस्ती में एक संतुलन होता है। यहां ऐसा कुछ भी नहीं था। मेरे अंदर तो सब कुछ उथल पुथल हो रहा था।

अगली बार जब वो आई तो मैंने पूछ ही लिया। क्या मतलब है इस रिश्ते का? शायद उसे पता था कि यह सवाल आने वाला है। उसने कुछ नहीं कहा। मैंने उसे बतलाया मैं क्या चाहता हूं और अब क्यों मैं उससे नहीं मिल सकता। कुछ देर कमरे में सन्नाटा था। मुझे लगा दरवाज़ा अब बंद हो रहा है। पर उसने धीमे से स्वर में कहा। जो आप चाहो ट्राई कर सकते हैं। आई डोंट माइंड। उसने एक नया दरवाज़ा खोला। परत दर परत नई  चीजें खुलती गईं। कामनाएं। उत्तेजना। फैंटेसी। उसकी और मेरी। क्या सचमुच वो मेरे शरीर को अपना सकती थी? मैं हवाई सपने बनाने लगा, उससे आंखों में आंखे मिलाए। तभी उसने कुछ ऐसा कहा जिससे सारे महल गिर गए। 

मुझे बस एक प्रोब्लम है। अगर आपका शरीर मुझे घिनौना लगा तो आप बुरा तो नहीं मानोगे?

कार्ड पे एक व्यक्ति को दर्शाया गया है, जो बिस्तर पर लेटे हुए हैं। वे पूरी तरह से नग्न हैं। उनका एक हाथ उनके सिर के नीचे है। उनका एक पैर थोड़ा ऊपर है, जिस वजह से उनका लिंग छिप गया है। उनके पीछे बड़ी बड़ी आंखों को दर्शाया गया है, जो उनको नाप तोल रहें हैं नजरों से।

घिनौना। एक शब्द जो पता नहीं कैसे यहां आ गया। इतने हफ्तों की बातचीत के बाद। इतना भावात्मत मिलन। फिर भी यह शब्द पता नहीं कैसे आया। क्या मेरे विकलांग शरीर में इतनी ताकत है कि बस इसके बारे में एक सेक्सुअल प्रकार से सोचना किसी के मन में इतना गहरा भाव भर देता है। घृणा। मुझे घिन आती है नरसंहार से। मुझे घिन आती है दोगलेपन से। मुझे घिन आती है बर्बरता से। मैंने कभी नहीं सोचा था मेरे शरीर के बारे में सोचने से किसी के मन में घिन आ सकती है। अगर घिन आती है तो मेरे पास आकर इतनी सारी बातें करना? मेरा शरीर मुझसे इतना अलग भी नहीं। बाहरी दुनिया के लिए तो नहीं।

शायद मुझे उस दिन कुछ करना चाहिए था। अपना आक्रोश व्यक्त करना चाहिए था। पर जब तक आक्रोश का उबाल आया, सब खत्म हो चुका था। वो अपना सोशल मीडिया अकाउंट डिएक्टिवेट कर चुकी थी। इस घिनौने शरीर के साथ खेलने की शक्ति उसमें नहीं थी। या फिर शायद वो बार बार मुझे घिनौना कह कर मुझे तोड़ना नहीं चाहती थी। मैंने भी उसे ब्लॉक कर दिया। पर कोई फायदा नहीं। वह शब्द मेरे शरीर का हिस्सा बन चुका है। कैसे कोई अपने आप को पूरी तरह पा सकता है, यह जानते हुए कि उनका कोई हिस्सा दूसरों के लिए घिनौना है। कैसे कोई अपनी विकलांगता में प्राइड खोजे, यह सब जानते हुए जब समाज अब भी हमारे शरीरों को इस तरह देखता है।

इससे उभरने में समय लगेगा। पता नहीं कितना। एक समय था मेरे जीवन में जब मैं प्लेटोनिक रिश्तों को बहुत अहम मानता था। शायद उस समय का भूत मुझे वापस आकर सता रहा है। सब कुछ नए सिरे से सोचने की ज़रूरत  है। तब तक, मैं डेटिंग साइट्स और ग्रीन टी, दोनो से दूर रहूंगा। 

कवि हृदय  एक शख्स हैं  जिन को लोकोमोटर डिसेबिलिटी है 

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