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एक विकलांग आदमी हिरोइन का साथ पाता है, वो भी माधुरी का! कैसे ?

अभिषेक अन्नीका, जो कि अक्तूबर में एओआई के अतिथी संपादक हैं, ऐसी पाँच हिन्दुस्तानी फिल्में गिनवाते हैं, जहां विकलांगता को एक मार्मिक और संवेदनशील रूप से दिखाया गया है, जहां उसे बस नाम के वास्ते जगह नहीं दी गई है ।

विकलांगता पे पाँच भारतीय फिल्में - और ये क्यूँ मायने रखती हैं 

द्वारा: अतिथी संपादक अभिषेक अन्निका

साजन 

एक विकलांग जवान आदमी (संजय दत्त), जो कि एक कवि भी है, एक औरत (माधुरी दीक्षित ) से प्यार कर बैठता है, पर फिर उसे पता लगता है कि उसका सबसे प्यारा दोस्त (सलमान खान ) भी उसी औरत से प्यार करता है । ऊपर से उस दोस्त के माँ बाप ने संजय दत्त की पढ़ाई पे खर्चे किए हैं । 

साजन  क्यूँ मायने रखती हैं 

आज अगर फिल्मों में विकलांगता दिखा भी दें, तो वो केवल एक घिसे पीटे ढांचे में होगा ।  जो विकलांग है, ये ज़रूरी बन जाता है कि वो जीनियस से कम न होगा ।  कि वो कहानी प्रेरणा से भरी हो।  

जबकि इस फिल्म में, एक आम सा लड़का बैसाखी ले के चलता है और हीरोइन को पटा ले जाता है।  और हीरोइन  भी कोई ऐसी वैसी नहीं।  माधुरी, यानी उस ज़माने की सबसे मशहूर हीरोइन।  

उसकी विकलांगता को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ दिखाया है।  और वो अपने सक्षम शरीर वाले दोस्त से ज़्यादा अनुशासन में रहने वाला , ज़्यादा काम करने वाला और मेहनती है।  उसको गंभीरता से लिया जाता है।  वो बस राजनैतिक तौर पे सही दिखने के लिए नहीं रचा गया है ।  

सेक्स से दूर, पर गहरे प्यार की जीत होती है।  और फिर सब सही हो जाता है। टिंडर के ज़माने की कहानियों में इस तरह की कहानियां तो कहीं खो सी गयीं है।  लेकिन जब आप विकलांग होते हो, इस तरह की कहानियां आपको उम्मीद दे जातीं है।  और कहीं न कहीं एकदम रोमांटिक भी बना देतीं है।  कि कोई बस आपसे प्यार करे , जैसे आप हो, उसे उससे प्यार हो जाये । 

अन्नबे सीवम ( 2003 ) 

नल्ला ( कमल हसन ) , जो कि शारीरिक रूप से विकलांग है, और ट्रेड यूनियन में मजदूरों के हक के लिए लड़ता है, और अरस ( माधवन ) जो विज्ञापन बनाता है,   भुवनेश्वर में कहीं एक साथ फँस जाते है।  

और एक दूसरे से जान पहचान बढ़ाते है।  नल्ला  शारीरिक रूप से विकलांग आदमी है, वो  एक बड़े उद्योगपति की बेटी, बाला से प्यार करता है और उसने उसके साथ भागने का प्लान बनाता है ।  लेकिन एक बस एक्सीडेंट की वजह से उसको लकवा मार जाता  है।  बाला के पिता बाला को बताते है  कि नल्ला मर गया।  खुद नल्ला बाला के पास वापिस जाने से डरता है, क्यूंकी वो विकलांग हो चुका है।  

माधवन नल्ला को अपनी शादी में बुलाता है।  पता चलता है दुल्हन बाला ही है।  नल्ला को एहसास होता है , कि यहाँ बाला का सामना करना पड़ेगा। वो अपने प्यार की बजाय मज़दूरों के हक़ को चुनता है। 

अन्नबे सीवम महत्वपूर्ण क्यों है ? 

यह लोकप्रिय तमिल फिल्मों में से एक है और इसकी कहानी का आधार विकलांगता है।  लेकिन फिर भी इसकी चर्चा विकलांगता वाली फिल्म' के रूप में नहीं होती।  इस वजह से यह फिल्म भावनाओं और सहानुभूति से भरपूर और दमदार लगती है।  

विकलांगता और कुछ खोने का एहसास इस कहानी का भावनात्मक आधार हैं ।  जवानी , ख़ूबसूरती और सक्षम शरीर का खोना, नल्ला  के किरदार को बहुत खलता है, जो कि कईं विकलांग ज़िन्दगियों का सच है।  ये देख के बहुत दुख होता है कि वो अपनी विरूपता और विकलांगता की वजह से दूर रहके, अपने प्यार की कुर्बानी देता है ।  लेकिन इस बात  पे बार बार ज़ोर नहीं दिया जाता।  और फिर भी ये सच सबको समझ आता है।  लोगों को इस फिल्म से इतना जुड़ाव क्यों है ? नल्ला विकलांग होने से पहले भी वही था और बाद में भी।  लेकिन क्या अलग है ? बस यही वो सवाल है जो फिल्म को बार बार देखने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता।  

कोशिश ( 1972 ) 

हरिचरण ( संजीव कुमार  ) और आरती ( जया भादुड़ी ) दोनों बहरे और मूक पति -पत्नी हैं ।  उनका बच्चा है , अमित।  

अमित एकदम अच्छे से बोल और सुन सकता है।  

हरी  का बॉस, अमित की शादी अपनी मूक और बहरी बेटी से करवाना चाहता है।  

पहले तो हरी मना कर देता है।  लेकिन फिर वो बेटी, हरी को आरती की याद दिलाती है, जो कि तब तक मर चुकी है।  हरी अमित से इस बारे में बात करता है । अमित मूक और बहरी लड़की से शादी करने से साफ़ मना कर देता है। इससे हरिचरण को बहुत दुख होता है ।  लेकिन अंत में अमित मान ही जाता है, जब उसको याद दिलाया जाता है कि उसकी माँ भी मूक और बहरी थी।  

मेरे लिए यह महत्वपूर्ण क्यों थी, यह जानने के लिए स्वाइप करें।  

जब मैंने यह फिल्म पहली बार देखी, तो मुझे यह एकदम दुखों का महासागर ही लगी।  ऐसा सोचना आसान था।  लेकिन फिर उस फिल्म में होने वाली रोज़मर्रे की भारी तकलीफ़ों और दुखों में खुद को देखा, जो सिर्फ इसलिए आते हैं क्यूंकि मैं विकलांग हूँ।  और फिर मेरे विकलांग दोस्तों और जान पहचान वालों ने भी खुद को देखा।  संघर्ष तो सही दिखाया ही गया था।  और परदे पे उसे उभरते देखना काफी तकलीफ देता है।  लेकिन यह फिल्म, इतना कुछ होने के बावजूद, ख़ुशी और जीने की इच्छा भी दर्शाती है।  जो कि तारीफ़ के लायक है।  

फिल्म में यह भी दिखाया है कि कैसे आम लोगों को प्यार होता है। उनके अरमान उनके समय के सन्दर्भ में है।  ऐसी फिल्में, भावनाओं के ब्रह्माण्ड से उभरती थीं , कोई बस नाम के वास्ते, विविधता पे बनायीं फिल्म नहीं होती थीं ।  

स्पर्श ( 1980 ) 

कविता ( शबाना आज़मी ) एक विधवा है जो अनिरुद्ध के अंधे लोगों के स्कूल में काम करती है।  वो करीबी दोस्त बन जाते हैं और फिर उनकी सगाई हो जाती है।  अनिरुद्ध देख नहीं सकता लेकिन किसी पे निर्भर भी नहीं है।  उसको बाद में लगता है, कहीं कविता उस पे तरस खा के तो उससे शादी नहीं करना चाहती। और कहीं अपने विधवा जीवन से परेशान हो के ऐसा कदम तो नहीं उठा रही ? 

इस बात को ले कर दोनों में झगडे होने लगते हैं और फिर वो सगाई तोड़ देते हैं।  

स्पर्श महत्वपूर्ण क्यों थी ? 

जब शारीरिक रूप से सक्षम लोग विकलांगता पे पिक्चर बनाते है तो पता नहीं होता है कि क्या बन के आएगा।  इस बात का साई परांजपे को पूरा श्रेय मिलता है, कि उन्होने  देख पाने और न देख पाने की राजनीति को बखूबी समझा ।  

यहाँ दिखती हैं वो बड़ी सारी आँखें जो अंधे लोगों पे टिकी रहती हैं, जब वो अपनी ज़िंदगी जीते हैं, , रोज़मर्रा की चीज़ें करते हैं , असली या काल्पनिक।  देख सकने वाली आँखें उनकी जटिलता को नकारते हुए या तो उनको प्रेरणादायक बना देती हैं, या तो दया का पात्र।  अंधे लोग और बाकी विकलांग लोग, अपना सारा जीवन बस इन सक्षम लोगों की नज़र से बचते हुए बिता देते हैं।  फिल्म में इन दो अलग दुनिया के टकराव को काफी अच्छे से दिखाया गया है।  और इसे देख सकने वाली दुनिया में, प्यार और कामना को तलाशते हुए एक अंधे आदमी की बेचैनी को भी दिखाया गया है।  और फिल्म में अंधे लोगों की आवाज़ , लय , संस्थाएं , और उत्सवों को भी काफी अच्छे से दिखाया है।  

मन ( 1999 ) 

प्लाट : देव ( आमिर खान ) और प्रिया ( मनीषा कोइराला ) जहाज़ पे मिलते है और उनको एक दूसरे से प्यार हो जाता है।  वो एक दूसरे से वादा करते है कि अपने अपने मंगेतर  से रिश्ता तोड़ने के बाद, वह छह महीने बाद फिर एक होंगे।  

प्रिया देव से मिलने ही जा रही होती है और उसका एक्सीडेंट हो जाता है।  उसके पैरों को काटना पड़ता है।  वो देव के पास वापिस जाना नहीं चाहती क्यूंकि उसको लगता है वो देव पे बोझ बन जायेगी।  देव बहुत निराश होता है और एक मशहूर चित्रकार बन जाता है।  फिर बाद में प्रिया देव की पेंटिंग खरीदती है और देव को सच पता चलता है।  अंत में दोनों की शादी हो जाती है।  

यह फिल्म मेरे लिए महत्वपूर्ण क्यों थी यह जानने के लिए स्वाइप करें।  

मन महत्वपूर्ण क्यों थी।  

जब कोई सक्षम से विकलांग हो जाता है तो उसको इस बात की चिंता सताती है की वो दुनिया जिसने उसको सिर्फ सक्षम रूप में देखा है , उसको अब कैसे स्वीकारेगी।  

और जब आप औरत हो तो यह डर काफी गुना बढ़ जाता है। ये सोच कि अब वो कामुक रूप से आकर्षक नहीं रहेगी, तमाशबीनों के भूत का रूप ले लेती है और उस औरत का पीछा करती है।  

प्रिया की झिझक का कारण सिर्फ उसकी विकलांगता ही नहीं ।  ख़ूबसूरती , औरतपन और रोमांस को ले के समाज का नज़रिया भी उसका मन भारी करता है, क्यूंकी ये नज़रिया,  विकलांग औरतों पे लांछन करता है, उन्हें कमतर बताता है ।

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