“ओय, उसके चूचे देखो, भाई,” एक दिन “मेरे भली सोच वाले सहपाठी ने सामाजिक विज्ञान की क्लास में मुझसे कहा ।
“हैं,” मैंने जवाब दिया “वो तब ज़्यादा सेक्सी लग रहे थे जब उसने कपड़े नहीं उतारे थे ।“
उसने मुझे यूँ देखा जैसे मैंने पोर्न देखने के सारे के सारे दिव्य क़ानून एक साथ तोड़ दिए हों “केला, यार तो ऐसे क्यूँ कह रहा है ? देख ना! “
मैंने देखा, फिर से देखा और मुझे यक़ीन है कि शायद टीचर ने भी देखा, लेकिन मुझे वो बात समझने में आधा दशक और लगा, जो शायद मुझे पहले ही समझ में आ जानी चाहिए थी ।
मैंने अपने स्कूल के शुरुआती दिनों में सबको यक़ीन दिला दिया था कि पावर रेंजर असली होते हैं, मैंने सबसे ये कहा था “मेरी बात मानो, पीला रेंजर यहीं रहता है, हमारे स्कूल में “। बस उसको मिलने के लिए कच्ची पक्की, अपने को कंक्रीट की बताने वालीं, तीन सीढ़ियाँ चढ़नी थीं, और वो ख़ुशी ख़ुशी हमें ऐसे गैडजेट/ मशीन पकड़ा देगा जिससे हम अपना रूप बदल सकते हैं । बस, मेरे सहपाठी इस बात पे बहस करने लगते कि कौन किस रंग में अपने को बदलेगा और मैं ख़ुद को एकदम ख़ुश और इम्पोर्टेंट फ़ील करने लगता । यही ग़नीमत थी कि किसी में इतना जज़्बा नहीं था कि उस कमरे तक जाए। हमें कभी पता नहीं चलने वाला था कि वहाँ कौन रहता है- हो सकता है चपरासी रहते हों, या सिस्टर लोग, जिनके चहरे कठोर भी थे, मुलायम और थके हुए भी ।
एक बार मेरे सहपाठियों के झाँट के बाल निकल आए, तो वो मेरी मन गड़त कहानियाँ भूल गए, पर अब वो मेरी बकवास सुनने को तैय्यार नहीं थे। उन्होंने मुझे धोरा धोरी नामक अपने खेल से निकाल बाहर किया । उस खेल में बच्चे एक दूसरे के पीछे ऐसे भागते थे, जैसे टीमों और पुम्बा । पर मुझे नहीं लगता था कि हमारी क्लास में कोई भी इतना क्यूट दिखता था कि उसे टीमों या पुम्बा कहा जाए । मैं तो उनको लाइयन किंग / Lion King पिक्चर के लक्कड़बग्गों के रूप में देखता था - यानी शत्रु के रोल में, लेकिन साइड वाला रोल, मेन वाला नहीं ।
मेरे क्लास के ये लक्कडबग्ग़े, जब ख़ुश होते तो अपने बेवक़ूफ़ से बत्तीसी दिखाते हुए, हे हे करके हँसते थे, और जब टीचर अपने को गब्बर सिंह मान के उनपे कस के छड़ी चलाते, तो वो अपने बेवक़ूफ़ से बत्तीसी दिखाते हुए रोते थे । सालों बाद, मेटरिक के इग्ज़ैम के पहले, दो लक्कडबग्गे एक दूसरे के साथ भाग गए थे । पहले तो टीचर्स डे पर उन्होंने ज़बरदस्त सेक्स किया था। कहीं ना कहीं, ज़रूर ये उस टीचर से पड़ी छड़ी की मार के सदमे का नतीजा था, बपता का अजीब सा इज़हार, जो उनपे अजीब मानसिक प्रभाव छोड़ गया था ।
मुझे लगता था कि मैं भी तो उन लक्कडबग्गों के जैसा ही हूँ -कि मैं भी अपने पार्ट्नर के साथ स्कूल से भाग सकता था- पर फिर भी कुछ गड़बड़ थी। और हर अगले क्लास तक प्रमोट होने पे, ये गड़बड़ और साफ़ दिखने लगी ।
लक्कडबग्गे अपनी सारी एनर्जी लगाके मुझे आसाम के मिट्टी के खेतों की सैर कराते, टिफ़िन के डब्बे चोरी करते, पेशाबघर की दीवारों के ऊपर से झाँक के मेरे लिंग का साइज़ पता करते, और अगले एक घंटे मुझे मेरे गोटों पे, लगा के यूँ मारते जैसे कोई सेनापति अपनी सेना के लिमिट आज़मा रहा हो। और ये सब करने का मक़सद? बस बातचीत को लड़कियों और उनके उनके बुर की तरफ़ ले जाना । दूसरी तरफ़ मैं, तब भी अपने कमरे में कूदने और नाचने में गहरे रूप से इंट्रेस्ट ले रहा था, ड्रैगन को मारने की कल्पना में व्यस्त रहता, मन में जादूगरों से स्पेशल समझौते करता, ख़ूबसूरत नज़ारों में बहादुर कारनामे करते हुए गुज़रता, और हर वक़्त उसकी कल्पना करता जिसके साथ मैं अपनी ज़िंदगी और अपने ये बहादुर कारनामे शेयर कर सकूँ ।
ये तो साफ़ था कि उम्र और बढ़ जाने पे भी, मैं मेरे लक्कडबग्गे दोस्तों की कामुक फंटसी में हिस्सा नहीं ले रहा था, तब भी नहीं जब मुझे पावर रेंजरस बोरिंग लगने लगे (उनके CGI यानी स्पेशल इफ़ेक्ट हक़ीक़त से मेल ही नहीं खा रहे थे )। तब भी नहीं जब और लड़कों के जैसे, मैं भी देवदास का सा चहरा लिए, दुनिया के बोझ को ख़ुशी ख़ुशी उठाने लगा था और वो सेल्फ़ हेल्प वाली सारी किताबें भी पढ़ने लगा था जिनसे उस उम्र के देवदास क़िस्म के मायूस लड़के प्रभावित होते हैं । मुझे तो लग रहा था कि ये सब बड़े होने की निशानी है । इस बीच मेरे लक्कडबग्गे दोस्त छलाँगे लगा के काफ़ी आगे निकल गए थे और वो मियाँ ख़लीफ़ा (लेबनानी- अमरीकी अभिनेत्री जो पोर्न में काम करती है ) और जानी सिंज़ (अमरीकी पोर्न अभिनेता ) पे सारा ध्यान लगा रहे थे । उनमें से अधिक साइयन्स करने का निश्चय कर चुके थे, और मोटी फ़ीस और सेक्सी बीवी जो उनको ख़ूब ख़ुश रखेगी, के सपने देख रहे थे । यो यो हनी सिंह जितना ख़ुश। उसके गाने एकदम टॉप पे थे, जब तक कि एड शीरन के गाने ने वो सब भुला दिया और हर किसी को किसी अनजाने इंसान के बदन से प्यार करा दिया ।
मुझ जैसे फक्कड़ लोगों ने आर्ट्स की पढ़ाई को चुना । मुझे लगा था, यहाँ पे मेरे जैसे फक्कड़ ही मिलेंगे । पर घर से दूर, देश के एकदम दूसरे भाग में, कुछ भी नहीं बदला था । हर एक किसी दूसरे का दीवाना था । पर यहाँ बैंगलोर आकर मुझे ये समझ में आया कि दुनिया में केवल दाँत दिखाते हुए जंगली लकादबग्गे ही नहीं रहते, यहाँ तो अलग अलग क़िस्म के ख़ूबसूरत जानवरों का विस्तार है ।
इग्वाना, जो कि कॉलेज में अपने बेबस रोमांटिक इंसान होने का ऐलान कर चुकी थी , मुझसे पूछती रहती कि क्या मैंने कभी किसी को लाइक किया है ? मैं ना कहता रहता, पर वो मेरी बात ही नहीं मानतीं “ भाई, ऐसा कैसे हो सकता है ?”
बिल्ली मेरी मदद करती “ अगर हम तुम्हें किसी से मिला दें तो ? जैसे उस सीरीयल कम्यूनिटी में होता है ना, जब वो आबिद के लिए गर्ल्फ़्रेंड ढूँढने की कोशिश करते हैं, फिर उन्हें ये समझ आता है कि आबिद हर वो हॉट लड़की को पा सकता है जिसे वो अपने आप से चाहता है “।
रेकून एक ऐसे लड़के को डेट कर रही थी जिसका नाम एक जाने माने निंटेंडो के गेम में पड़ा था । वो बोली कि वो कॉलेज में ऐसे किसी को जानती है जो मेरे पे फ़िदा है । मैंने अपने चहरे पे कोई भाव ना आने दिया और कहा “बढ़िया “।
बनमानुश बोला “ मैं तो हर दूसरे सेकंड प्यार में पड़ जाता था। एक बार में एक बिल्ली के प्यार में पड़ गया और मुझे बाद में पता चला कि उसको भी मुझ से प्यार था। उसने कविता लिखी थी और मेरे नाम से स्कूल मैगज़ीन में छापी भी । लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।”
टैक्सी की सैर और कैंटीन के खाने के बीच, लामा, जो अपने से नाटे किसी से भी डेट नहीं कर सकती थी, ने पूछा, “तुम्हें पक्का विश्वास है कि तुम स्ट्रेट/ विषमलैंगिक हो? “
हर तरफ़ सवाल ही सवाल और मेरे पास कोई जवाब नहीं । फिर एक दिन एक रेड्डिट मीम ने मुझे एक अधूरा की-वर्ड/keyword दिया जिससे मेरी बत्ती थोड़ी चमकी । की-वर्ड था “अलैंगिक लोग …” . गूगल के सुझाव इतने टेढ़े मेढ़े थे, जैसे “डेनमार्क पे चढ़ाई कर रहे हैं “ “भगवान” और “राजगद्दी पे क़ब्ज़ा करने आ रहे हैं”।
मेरे दोस्तों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था, पहले तो वो साथी थे, फिर उनको समझ आया कि वो ख़ुद क़्वीयर हैं, तो वो बदल गए । मुझे ख़ुद कहाँ पता था कि मैं एसेक्शूअल हूँ । मुझे तब होश आया जब मैंने देखा कि मैं उन मीम से अपने आप को कितना ज़्यादा कनेक्ट कर पा रहा हूँ ।
इस तरह मैं अलैंगिक लोगों के ऑनलाइन संसाधनों को ढूँढ पाया, जैसेr/aaaaaaacccccccce और AVEN Wiki।। इस नयी पहचान में एक विस्तार की फ़ीलिंग थी, एक दोस्ताना सा लगा, जहाँ हर, एक अपने हिसाब से, अपने लिए, अपने शब्द चुन सकता है । इससे मुझे वो क़दर मिली, जिसका मैं हक़दार था । मुझे मौक़ा मिला कि मैं उस सीमित सोच की दुनिया के दायरे के बाहर सोच पाऊँ, जिसमें हर एक इंसान सेक्शूअल होता है । इससे पहले तो यूँ लगता था कि ये सीमित सोच हमारे समाज, उसके संस्थान और उसके लोगों पे इस क़दर हावी है कि कुछ और सोचने की जगह ही नहीं है ।
मैं पहले भी रिलेश्न्शिप में रहा हूँ । जो आख़री वाली रेलशिनशिप रही, उसमें मुझे परवरिश मिली, मुझे आगे जाने का प्रोत्साहन मिला और यूँ लगा था जैसे उसके चार साल बहुत कम समय था । बंगलूरू में भी मुझे आख़िरकर कोई पसंद आया - मेरी क़रीबी दोस्त- जो इगुआना थी- पर मैं उससे किसी और तरह से तभी आकर्षित हुआ, जब मैं उसपे टोटली फ़िदा हो चुका था, उसके पहले नहीं।
भारत जैसे देश में अलैंगिकता के इस विस्तार पे रहना, थोड़ी अजीब सी बात है । ये देश सेक्स के बारे में बात नहीं करता और रोमांस को भी अब जाके थोड़ा जायज़ समझे जाने लगा है । मेरे चारों तरफ़ ऐसे बूढ़े लोग हैं जो मेरे ‘ब्रह्मचार्य’ की सराहना करेंगे (तब तक, जब तक मैं शादी वाली उम्र का ना हो जाऊँ ) और सेक्स पोसिटिव जवान लोग जो इस बात से परेशान रहते हैं कि जब मैं अलैंगिक हूँ, तो फिर समय समय पे सेक्स की ओर झुकाव कैसे दिखाता हूँ ?
LGBTQ का हिस्सा होना भी इन दिनों मज़ेदार होता है । मेरा एक द्विलिंगी/ बाई सेक्शूअल दोस्त मुझ से हाल में बोला “अगर तुम अलैंगिक हो तो तुम्हें ये कैसे पता कि तुम आदमियों की तरफ़ आकर्षित नहीं होते ? “ उसे बहुत सालों से मुझ पे कृश था, और उसने मुझे ये सुझाव दिया कि मैं आदमियों को डेट करने की कोशिश करूँ, ये देखने के लिए कि क्या ये अच्छा लगता है ? उसने ये भी कहा कि मैं उसे किस करके पता कर सकता हूँ । अब स्ट्रेट लोग भी तो गे लोगों से यही कहते हैं- अगर तुमने लड़कियों को किस ही नहीं किया है, तो तुम कैसे कह सकते हो कि तुमको उसकी चाह नहीं ?
एसेक्शूअल/अलैंगिक लोगों के समुदाय को संक्षिप्त में एस/ace भी कहते हैं । तो एस वाले, अपने मीम लेके आ जाते हैं । “मैं ख़ूबसूरत लोगों को ढलते हुए सूरज की तरह देखता हूँ । मैं ढलते हुए सूरज से साथ लो लपाटा थोड़े ही करना चाहता हूँ ।”
मासलो नामक मनोवैज्ञानिक ने ज़रूरतों पे एक थेयोरी बनायी, जो मनोविज्ञान और बिज़्नेस में रूची रखने वालों में बहुत लोग प्रिय रही । ज़रूरत की प्राथमिकता के अनुसार एक त्रिकोण बनाते हुए, उसने बेस पे सेक्स को रखा, खाना, सर पे छत, हवा जैसी चीज़ों के साथ - यानी उन चीज़ों के साथ जो हमें ज़िंदा रखती हैं । यानी सेक्स को इंसानी तजुरबे का इतना ज़रूरी पहलू समझा गया कि फिर तो हर वक़्त उसे चाहना और बहुत ज़्यादा चाहना, एकदम नोर्मल माना जाएगा ।
पर इसका विपरीत भी सच होगा । जब शर्लाक होम्ज़- जाने माने साहित्यिक डिटेक्टिव पात्र के शो के निर्माता से पूछा गया कि क्या शर्लाक होम्ज़ अलैंगिक थे, तो वो बोले “ अरे, उसमें तो कोई मज़ा नहीं आएगा’। फिर तो अनुमान लगाया ही जा सकता है कि tv पे अलैंगिक पात्र दिखायी भी दिए तो वो या अंतरिक्ष के किसी दूसरे सितारे से आए होंगे, या रोबो होंगे या फिर ख़ूनी दरिंदे । इससे याद आता है कि कैसे बीसवीं शताब्दी के tv स्टूडीओ, जो आदमी- औरत के बीच के प्यार को ही जायज़ मानते थे, वे गे पात्रों को एक क़िस्म की ड्रेस देते थे, उनकी अड़ाएँ भी फ़िक्स की जाती थीं, ताकि उनको सामने से गे कहना ना पड़े । इस सब की वजह से, अलैंगिकता की जानकारी और वो शक्ति जो इस पहचान को अपनाने से मिल सकती है, मुख्यधारा के बाहर ही रही । मुझ जैसे लोगों को इसके बारे में ज़िंदगी में बहुत बाद पता चला । पिछले दशक में, गे और लेसबियन पात्रों के जाने पहचाने और माने हुए साँचे बढ़ते ही गए हैं । पश्चिमी देशों में तो tv स्टूडीओ में होड़ लगी है, कि इन पात्रों को अपने कथानक में डाल के, नाम के वास्ते अपने खुले विचारों का प्रदर्शन किया जाए। अलैंगिकता को साफ़ साफ़ नाम देते हुए फ़िल्म का अभी भी इंटेज़ार है ।
ऐसे माहौल में बड़े होते हुए, मैं दिल से चाहता था कि अपने असली रूप में लोगों को दिख सकूँ । मैं चाहता था कि कोई तो ऐसा हो जिसके तजुरबों से मैं जुड़ सकूँ । इससे मैं दुखी हो जाता था ।
एक जापानी ड्रामा है जिसका नाम है कैसेनु फ़ूतारी । प्लॉट तो बहुत सरल सा है - कि अगर दो अलैंगिक लोग जिनकी प्रवृत्ति रोमांटिक भी नहीं, एक साथ रहने लगें, अपने को परिवार कहने लगें, तो क्या होगा । (और हाँ, वो ये शब्द इस्तेमाल करते हैं - अलैंगिक, एरोमांटिक ।)। उस एक जापानी ड्रामा को देखके मुझे लगा कि मेरी बात ज़िंदगी में पहली बार इतनी समझी और सुनी गयी है । हालाँकि मैं एरोमांटिक नहीं हूँ, बल्कि मैं अलैंगिक विस्तार के दूसरे छोर पे हूँ । फिर भी यूँ हाशियों में रहके लड़ते रहना और फिर उन हाशियों में भी अपनी जगह ढूँढना, इससे बड़ी बेबसी और अजीबपन पैदा होता है । उस tv शो से, और ऑनलाइन समुदाय से, मुझे ये समझ में आया कि मेरे जैसे लोग हर जगह पे हैं। शायद इतने स्पष्ट दिखे नहीं । ये इसलिए हो सकता है क्यूँकि अपनी पहचान को खुल के अपनाना सुरक्षित ना हो, या शायद इसलिए क्यूँकि इतनी कहानियाँ ही नहीं हैं जो हमें बताएँ कि उसके बाद क्या होता है ।या शायद इसलिए क्यूँकि वो जानते नहीं कि खुल के अपनी पहचान को अपनाने का मतलब क्या है। शायद मैं इसके बारे में कुछ कर सकता था ।
बड़े होते हुए, मैं हर तरह से अलग था, अलैंगिक और स्वलीन (ऑटिस्टिक) । फ़ैंटसी, जैसे कि मेरी वो पावर रेंजर कहानी, वो माध्यम थी, जो असल हालातों और मेरे बीच के दायरे को जोड़ती थी । पर साथ साथ वो एक और काम भी करती थी, वो मुझे एक दिशा देती थी, आशा देती थी और दुनिया के बारे में कुछ सुंदर दिखाती थी । उसने मुझे बहुत दिया, और आख़िर वो दिन आया जब मैं दुनिया में केवल लक्कडबग्गे ही नहीं देख रहा था ।। मैं देख रहा था मज़ेदार, समवेदनशील लोग जो अलग और ग़ज़ब के तरीक़ों से नाचते हैं, सेक्स करते हैं… फिर चाहे मुझे उसका उतना शौक़ ना हो, या मैं उसे अलग तरह से फ़ील करता हूँ।
इससे मुझमें ताक़त आयी है कि मैं सेक्शूअल इच्छा को लेके आर या पार वाली सोच पे सवाल उठा सकूँ… ऐसी मान्यता पे सवाल उठा सकूँ जो कहती है कि सेक्शूअल चाहत हर एक के अंदर बसी ही है, कभी बदलती नहीं, कि इसे आँका जा सकता है और बड़े सलीक़े से इस-उस डब्बे में फ़िट किया जा सकता है, या ये मान्यता कि तुम इन चारों में से एक ही हो सकते हो - विशमलैंगिक, समलैंगिक, द्विलैंगिक या अलैंगिक, कि इनको छोड़ के तुम कुछ हो ही नहीं सकते .. मैं अब इन सारी बातों के सवाल उठा सकता हूँ।
सबसे ज़रूरी बात, इसने मुझे लिखने को कहानियाँ दी हैं, और ऐसे लोग जो शायद मेरी कहानियाँ पढ़ें ।
अनुवाद: हंसा