Agents of Ishq Loading...

आँखों के तारे - मीना कुमारी

सिनेमा की बड़ी बड़ी हस्तियों  का प्रभाव, सिर्फ स्क्रीन पे उनके काम तक सीमित नहीं । हमारी लाइफ और कल्चर पर भी उनका काफ़ी असर है, एक नज़दीकी असर । वो फिर  सितारे नहीं रहते, बल्कि  'आइकॉन'/icon  बन जाते हैं और इसकी ख़ास वजह है उनका किसी न किसी तरह,  हमसे एक नज़दीकी रिश्ता बना लेना। वो हमारी कल्पनाओं को जिंदा कर देते हैं, हमारे सामने नई संभावनाओं की दुनिया खोल देते हैं। उनके सहारे हम अपनी कई सारी भावनाओं और अनुभवों को ज़ुबान दे पाते हैं- फिर चाहे वो हमारे सपने हों , प्यार हो, दोस्ती हो, दिल टूटने की बात हो, मतभेद हो, हमारा क्वीयर होना हो,  यानी हमारे खुद के प्राइवेट आव-भाव।


एक ऐसी ही अदाकारा जो कि हिंदी सिनेमा की विरासत के लिए एक आइकॉन थी, वो थी मीना कुमारी। उनका जन्मदिन 1 अगस्त को आता है।


वो अपनी बेहतरीन अदाकारी, अपने गीत और अपनी कविताओं के लिए आज भी याद की जाती हैं। उन्हें उनके प्रतिष्ठित रोल, गीतों और उनकी शायरी  के लिए याद किया जाता है। जिस तरीके से उन्होंने साहिब, बीबी और गुलाम (1962) और पाकीज़ा (1972) में अकेलापन, चाहत और दुःख-दर्द को रंग किया, उन्हें 'ट्रेजेडी क्वीन' का ख़िताब ही मिल गया।


बेनज़ीर (1964) के एक गाने में वो गाती हैं,


हमें अपना इलाज-ए-दर्द-ए-दिल करना भी आता है...

हम ऐसे जीने वाले हैं, जिन्हें मरना भी आता है।


ऐसा कहा जाता था कि उनकी लाइफ उनके ऑन-स्क्रीन व्यक्तित्व से बहुत अलग नहीं थी।


60-80 दशक के बीच वो क्वीयर आइकॉन भी बनी।  उनके गीत, उनकी फिल्में और यहां तक ​​कि उनकी कविताओं ने भी कितने क्वीयर लोगों को एक भाषा दी। जिससे वो अपने प्यार, अपनी चाहत और अपना दर्द, जिसे अक्सर बाकी दुनिया खारिज़ कर देती थी, उसे बयां कर पाते थे।


हमने कुछ लोगों से पूछा कि मीना कुमारी उनके लिए क्या मायने रखती हैं।  

देखिए, उन्होंने हमें क्या बताया:


आदित्य, 24, क्वीयर, गे

मुझे लगता है कि मीना कुमारी की पब्लिक इमेज़, उनकी फिल्मों और निज़ी जिंदगी में दुःख और दर्द का गहरा मज़मून रहा है। मेरा झुकाव उनकी अदाकारी की तरफ है, जिससे वो उस दर्द को बख़ूबी दिखाती थीं।


जब मैं छोटा था, मेरे पास ऐसी कोई भाषा नहीं थी जिससे मैं अपने क्वीयर पहलू को दिखा पाता या अपने अनुभव फ्रेम कर पाता। फिर भी मीना कुमारी से मेरा कुछ कनेक्शन था। मुझे लगता था जैसे मैं जो महसूस कर रहा था, वो उनका शरीर व्यक्त कर रहा था। उन्होंने मानो मुझे एक सरोगेट (surrogate) भाषा दे दी, उनके ज़रिए जैसे मैं अपनी बात को जगह दे पाया,  मैं अपना दुःख बयां कर पाया।


जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया और उनकी ज़्यादा से ज़्यादा कविताएं पढ़ीं, मुझे ऐसा लगा जैसे मैं मीना कुमारी को सिर्फ एक स्क्रीन की अदाकारा की तरह नहीं, बल्कि एक इंसान के रूप में जानने लगा। तभी मुझे एहसास हुआ, कि अच्छा, इसलिए वो [ऑन स्क्रीन] इतनी अच्छी हैं। स्क्रीन पर जो फीलिंग वो लेकर आती थी, वो उनके व्यक्तित्व से ही तो आता था।


एक बेमिसाल गीत है, जिसे उन्होंने ही गाया और लिखा है। चांद तन्हा के नाम से! मुझे उस गाने से ख़ास प्यार है। वो अकेलेपन के बारे में है। ये गाना सिर्फ किसी ऐसे इंसान के लिए नहीं है जो अकेला हो। बल्कि जैसे कभी-कभी कोई कपल साथ होकर भी अकेलापन महसूस करता है, ये उस बारे में है। मानो दुनिया के सभी अकेलेपन को इस गाने में इकट्ठा कर लिया गया हो। इतनी गहराई, भव्य गीत !


चाँद-तन्हा - https://www.youtube.com/watch?v=z_L8eFA5a6c 


ठीक वैसे जैसे कि आप कैसे दिखते हैं, कैसे बैठते हैं और कैसे लेटते हैं, इसकी एक भाषा है। वैसे ही अपने दर्द को बयान करने की भी भाषा है। दुख को दूर करने का मतलब ये नहीं है कि आप इसे कोई रूप नहीं दे सकते। अपनी नाज़ुक स्थिति को एक रूप देकर, आप दरअसल उसका सम्मान कर रहे हैं। ये अपमानजनक या नकली नहीं है।  मीना कुमारी जैसी हस्ती आपको थोड़ा और खुलने और अपनी भावनाओं या नाज़ुक पहलु के बारे में अलग तरह से सोचने में मदद करती हैं।


मानिक महना, 57, गे

31 मार्च 1972, जब मैं साढ़े छह साल का था, उनका देहांत हो गया। मुझे आज भी याद है उस दिन के हिंदुस्तान टाइम्स के पहले पन्ने पर छपा आर्टिकल। लिखा था- "मीना कुमारी ना रहीं" और साथ में पाकीज़ा से उनकी वो तस्वीर, जिसमें वो राजकुमार के प्रस्तावित निकाह (शादी) से भाग रही थीं। मुझे अचानक ही एक कनेक्शन महसूस हुआ। अब मैं लगभग 57 साल का हो गया हूं लेकिन मुझे आज भी वो एहसास अच्छे से याद है। कभी-कभी अचरज  भी होता है, कि कहीं ये पिछले जनम का कोई संबंध तो नहीं?


अगर मीना-जी और मैं एक ही पीढ़ी के होते, तो मुझे उनका प्रेमी होने से कोई एकराज ना होता। उनके अलावा और कोई नहीं जिसके लिए मैं विषमलैंगिक बनने का सोचूँ। 


14 साल की उम्र में, जब मैंने मीना जी की कविता "मैं लिखती हूँ, मैं पढ़ती हूँ" का रिकॉर्ड सुना, तो मैं उनकी आवाज़ से पूरी तरह मंत्रमुग्ध हो गया था। यहीं से उर्दू शायरी की मेरी कोशिश भी शुरु हुई। मैं अपने कवि-ज्ञान का श्रेय उन्हें ही दूंगा।


अगर आप पाकीज़ा देखेंगे तो आपको लगेगा जैसे वो फ़िल्म ख़ुद एक कविता है।  लेकिन साथ साथ,  ये एक ऐसी औरत की भी कहानी है, जो प्यार करने और प्यार पाना के लिए तरस रही है  । पर क्योंकि वो एक तवायफ़ है, वो ये सब हासिल नहीं कर पाती है। उनकी निज़ी ज़िंदगी भी तो प्यार और संतोष की खोज़ में बीती। मुझे लगता है कि बहुत सारे समलैंगिक पुरुष इस दर्द को पहचानते हैं।  ऐसा कहा जाता है कि वो चाहती थी कि उनकी कब्र पर ये शब्द खुदवाए जाएँ कि उन्होंने  एक टूटे हुए दिल और टूटे हुए गीत के साथ अपनी जिंदगी खत्म की। मगर बिना एक भी पछतावे के!


वैसे मेरे पास मीना-जी की कोई फ़ेवरेट यादगार स्मृति तो नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि वो हमेशा मेरे साथ रहती है। मेरा पार्टनर, जो कभी-कभी मेरे साथ रहता है, वो भी कहता है कि उसे हर समय कमरे में किसी के होने का एहसास होता है। और मैं कह देता हूँ, कि हाँ, मीना जी होंगी। ऐसा कोई भी दिन नहीं होता जब मैं उनको याद नहीं करता, या उनके यू-ट्यूब वीडियो नहीं देखता या उनके बारे में कुछ नहीं पढ़ता।


यहां तक कि मैं जो उनकी लाइफ पर फिल्म बना रहा हूं, वो भी एक तरह से उनका शुक्रिया अदा करने के लिए। क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी आत्मा, उनकी रूह ही इसे संभव कर रही है।  3 जून, 2022 को, मुझे आखिरकार उनकी भतीजी और बड़ी बहन के साथ अमृतसर में मिलने का मौका मिला। उनकी बहन की हाज़री में मुझे  ऐसा लगा कि जाने कितने सारे रिश्ते नातों के घेरे में हूँ ।



इंद्रजीत नेगी, 41, क्वीयर मर्द

मैंने उन्हें पहली बार डीडी नेशनल पर चित्रलेखा नाम की फिल्म में देखा था।  यह एक पीरियड फिल्म है जिसमें उन्होंने एक वैश्या, एक सेक्स वर्कर की भूमिका निभाई है।  और, उनके सामने हैं अशोक कुमार, जो कि एक साधु हैं, एक ऋषि, एक संत, जिन्होंने संसार को त्याग दिया है। इस फिल्म का एक गाना है- संसार से भागे फिरते हो। वो मानो आपको कह रहा हो कि ख़ुद को अपनाओ, अपने क्वीयर रूप को, अपने शरीर और उसकी जरूरतों को, उसकी भूख को स्वीकार करो। खाने की भूख या शरीर की और तरह की भूख! वैसे मैं मीना कुमारी का कट्टर फैन तो नहीं हूं, लेकिन उनके गानों में जो ये कई तरह की परतें हैं, उनसे जुड़ा हुआ ज़रूर महसूस करता हूं।


संसार से भागे…: https://www.youtube.com/watch?v=17kq4TkpeUE


उनके गानों में कुछ बहुत ही दुखद और दिल को छूने वाले बोल होते थे। एक और गाना है- हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे हैं। जिसमें वो कहती हैं कि मैं तुमसे इतना टूटकर प्यार करती हूँ कि मैंने ख़ुद को ही पूरी तरह से खो दिया है। वो कहती हैं कि प्यार एक पिंजरे की तरह है जिसमें तुमने मुझे क़ैद कर रखा है। लेकिन मुझे तो इस पिंजरे से भी प्यार हो गया है क्योंकि यहां तुम मेरे साथ हो। ये बहुत कुछ लड़कपन के प्यार जैसा है, जिसमें आप खुलकर अपनी बात बोल नहीं पाते। क्योंकि उस वक़्त आप ख़ुद ही अपनी सेक्शुएलिटी वगैरह से जूझ रहे होते हैं। शायद यही जोड़ता है मुझे उनसे।

हम तेरे प्यार में: https://www.youtube.com/watch?v=ONB3SBZ3XV4

 

अगर आप पाकीज़ा देखोगे, तो उसमें उन्होंने अपनी दोहरी पहचान बना रखी है। दुनियां के लिए वो अलग किस्म के कपड़े पहनती हैं और अकेले में अलग। ऐसा क्वीयर समुदाय में भी काफी लोग करते हैं। वो ड्रैग में ड्रेस-अप करते हैं, हंसते हैं, सबका दिल लगाते हैं, लेकिन उनकी  रूह को दर्द बना रहता  है । दुनियां के सामने खुद का असली रूप नहीं अपना पाते हैं, क्योंकि दुनियां जज़मेंटल हैं। तो क्वीयर लोगों के लिए, खुद को व्यक्त करने का एक ही तरीका था- फिल्में, फिल्मी गाने और फिल्मी क़िरदार। मीना जी के दर्द में वो अपना दर्द देखते थे। उनकी वो फिल्में जिसमें वो अपने प्रेमी से आख़िरकार मिल पाती हैं- क्वीयर लोगों भी उम्मीद जगाती थीं।


विवेक आनंद, करता/ करते 

साहिब, बिबी और गुलाम में, उनकी एंट्री काफी देर बाद होती है। जब गुरु दत्त उनको पहली बार देखते हैं, कैमरा उनके पैर पर फ़ोकस करता है। फिर धीरे-धीरे फ़ोकस ऊपर की ओर बढ़ता है और उनका एक लोंग शॉट दिखता  है - शाही, राजसी अन्दाज़ , एक साड़ी में लिपटीं। और उस वक़्त जो गुरु दत्त के चेहरे पर भाव थे, वही भाव शायद उन लाखों लोगों के चेहरे पर भी थे, जिन्होंने ये सीन देखा। मानो सबने एक ही बात सोची-  "वाह! कौन है ये औरत?" मीना कुमारी  से मेरा परिचय भी ऐसे ही हुआ।


उस फिल्म और पाकीज़ा, दोनों में, मीना जी वो ऐसी औरत बनी हैं, जो प्यार और सम्मान की भूखी है। मुझे लगता है, ये चाहत भी हम समलैंगिक मर्दों की चाहत से मेल खाती है। लेकिन हां, दूसरी तरफ, वो काफ़ी भड़कीली भी थी, ग़ज़ब की अदाएँ, हाई लेवल का इतराना बलखाना । पाकीज़ा में उनकी वेशभूषा ही देख लो! हमेशा अपना सबसे सुंदर रूप सामने रखती थीं । ना ही वो साइज ज़ीरो थी, ना ही सेट किये गए मानकों  के हिसाब से कोई सेक्स सिंबल। फिर भी, ज़रा नज़र डालो उनपे, ना क़ुर्बान हो जाओ !


उनके क़िरदार कभी भी क्वीयर आइकॉन के नहीं थे, लेकिन फिर भी वो वही बन गयीं । 60 से लेकर 80 के दशक तक वो क्वीयर लोगों की आइकॉन थीं । उनको देखकर लगता था- "अगर ये कर सकती हैं तो मैं क्यों नहीं"।


वो पाकीज़ा का गाना- चलते-चलते यूं ही...समलैंगिक लोगों का ख़ास गान बन गया था। क्योंकि इसी तरह रेलवे स्टेशनों में, पार्कों में और ट्रेनों में, हम अपने पार्टनर्स से मुलाकात कर पा रहे थे। उस वक़्त कोई डेटिंग ऐप भी नहीं थे। 90 के दशक में लंदन में समलैंगिक कल्चर पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई गई। और वहां एक पार्टी में हमने ड्रैग क्वीन के जत्थे को पार्टी करते और  'चलते- चलते' पर डांस करते देखा। मीना जी ने जाति, वर्ग, कल्चर- सब सीमाओं को पार कर लिया था। वो ग्लोबल थीं ।


मैं उनसे सिर्फ इतना कहना चाहता हूं: "आपको गए 50 साल हो गए हैं, लेकिन ऐसा एक भी दिन नहीं है जब मुझे आपकी याद नहीं आती है। आप हमेशा से मेरे अस्तित्व का, मेरी लाइफ का एक हिस्सा रही हैं।"


चलते- चलते- https://www.youtube.com/watch?v=FH73Z7RVDQS


उमंग सबरवाल, 30, विषमलैंगिक

मैं मीना कुमारी की छवी  पर अपनी राय बना पाऊं, इसके लिए मैंने उनके सारे काम को तो नहीं देखा है। लेकिन हां, कही-सुनी कई  बातें हैं, जिससे उनकी एक छवि बन गयी है। सब उन्हें  'ट्रेजेडी क्वीन' बुलाते हैं, और ऐसा सिर्फ उनके क़िरदारों में नहीं दिखता, बल्कि उनकी जिंदगी के बारे में पढ़ी या सुनी हर बात में भी है । मुझे ये बात बड़ी प्यारी लगी। ऐसा लगा जैसे वो दुःख-दर्द की कल्चरल आइकॉन थी।


लेकिन अभी कुछ साल पहले, मैंने एजेंट्स ऑफ इश्क पर उनकी कविता के कुछ हिस्से पढ़े। और फिर मेरे स्पॉटीफाई पर उनकी कविताओं की रिकॉर्डिंग भी मिल गयी। मैंने उनको सुनना शुरू किया - उनकी लिखी गज़लें, उनकी खुद की आवाज़ में! और ये वो पल था, जब मुझे उनसे प्यार हो गया। उनकी कविताएं, उनकी आवाज़ और उस आवाज़ में छुपा दर्द, मैं उनकी क़ायल हो गई।


मीना कुमारी की कविता चांद तन्हा में एक लाइन है। उसमें वो कहती हैं, 'हमसफ़र कोई मिले भी तो क्या, दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा!' (यानि आपके साथ आपका साथी हो भी तो क्या, दोनों साथ होकर भी अकेले चलते हैं)। उदासी का एक पॉपुलर चेहरा है, जैसे कि गुरु दत्त की उदासी- जो दुनिया को छोड़ जाने की बात करती है। पर इनका दर्द ज़्यादा प्राइवेट और काफ़ी काव्यात्मक था। इसी लाइन को ले लो, कितनी सुंदर है।  इसमें कड़वाहट नहीं है। बल्कि वो अपने सामने खड़े गम को एक सुन्दरता के साथ अपना रही हैं। ऐसा लगता है जैसे उनका वो दर्द हमारी लाइफ का भी हिस्सा है। हर किसी के लिए वो अलग-अलग वज़हों से ख़ास है। लेकिन मेरे कनेक्शन की वज़ह यही है। 


मैं उनसे सिर्फ इतना कहना चाहूंगी कि आप बहुत सुंदर हैं, पर शायद इस बार शराब कम पीएं! और हां, ये भी कि-  'ज्यादा लिखें'। 


नितिन, करता/करते 

फिल्मों में आम तौर पर अगर सुख और आनंद की बात की जाए, तो वो किसी के साथ होने पे मिलता है, है ना? लेकिन मीना कुमारी के साथ ऐसा नहीं था। उनकी फिल्में प्यार में मिले वनवास के सुख के बारे में हैं। ये मरने वालों या जुदा होने वालों के लिए जो प्यार होता है, उसके बारे में है। 


फेमिनिस्ट/नारीवादी लेखों और टिप्पणियों में  - खासकर फेमिनिस्ट की दूसरी लहर की प्रतिक्रियाओं में  - फिल्मों के मामले में देखी जाएं, तो वो आमतौर पर इस बारे में बात करती हैं कि जो औरतें समाज के नियमों का पालन नहीं करती हैं, उन्हें सज़ा क्यों दी जाती है। लेकिन, एक आर्टिकल में मैंने मीना कुमारी के बारे में ये लिखा था, कि वो ये बात कहती हैं कि इस तरह की सज़ा में एक मज़ा, एक सुख भी है ।


अगर आप उनके समय के आसपास के हिंदी गानों को देखें, तो उसमें भी ऐसी भावनाएं या भाव मिलेंगे। ये गाने ग़ज़लों की उस परंपरा में ढले हैं , जिसमें अलगाव, चुभन और तड़प को दिखाया जाता था। ये उनके लिए एक ट्रेनिंग की तरह था, मानो एक रचनात्मक ज़रिया। वो उन भावों पर परफॉर्म करती थी और फिर एक कवि के रूप में ऐसी ग़ज़ल लिखती थीं जो उन्हीं भावनाओं पर आधारित होती थीं । तो दरअसल ये उदासी कुछ ऐसी थी, जिसे उन्होंने अपने अंदर समा लिया था। 




Score: 0/
Follow us: