ज़वानी की तरफ़ बढ़ रहे इस शताब्दी एक्सप्रेस पे आपका स्वागत है। ये सफ़र कुछ सालों तक चलने वाला है ।काफी खास भी है। आपकी खुद से खुद की पहचान बढ़ेगी। अपनी सेक्सुअल इच्छाओं, पहचान और जेंडर पे सवाल खड़े होंगे । हौले हौले सुलझने भी लगेंगे। किशोरावस्था के इन्हीं सालों में आप हर तरह के हालात को झेल पाने, मुश्किलों का हल ढूंढने और खतरों का खिलाड़ी बनने के बड़े सारे हुनर भी सीखेंगे। एक और बात, आप चिड़चिड़ाना भी सीख लेंगे । और बात बात पर ये भी सोचेंगे कि "ओह ! कोई मेरी बात ठीक से समझ क्यों नहीं रहा है "।
प्यूबर्टी - जवानी के पहले कदम - के साथ बॉडी में वैसे ही कई बदलाव आते हैं। उन परेशानियों से आप पूरी तरह निपटे भी नहीं होते, कि फीलिंग्स की उथल-पुथल में फंस जाते हो। कभी-कभी ये सब मिलकर, पूरी ज़िंदगी ही बदल डालते हैं। तो सिंपल भाषा में, किशोरावस्था/ चढ़ती जवानी का वो टाइम है जो 10-19 साल वाली उम्र में आता है। इसमें बॉडी में हो रहे बदलाव के साथ-साथ, आपको अपने अंदर हो रहे कई सोसिअल और इमोशनल बदलाव का भी सामना करना होगा। मतलब खिलता बदन ! और साथ में, तूफानी मन!
डब्ल्यू.एच.ओ (WHO - वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन) का कहना है कि मेन्टल हेल्थ की लगभग आधी दिक्कतें तो 14 साल की उम्र के आसपास ही शुरू हो जाती हैं। इनमें से बहुतों का न पता चल पाता है, न इलाज होता है । पूरी दुनियां में देखा जाए तो, 15-19 साल के जवान लोगों में,बीमारी और विकलांगता का चौथा सबसे बड़ा कारण, डिप्रेशन है । उसी एज में, मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण, आत्महत्या है। ऐसा कई बार होता है, कि बड़े-बूढ़े जवान लोगों के मेन्टल हेल्थ पे ध्यान नहीं देते। "अरे, ये तो बस इन टीनएजर (teenager) बच्चों का गुस्सा है। वो खुद ही इससे बाहर निकल आएंगे।" लेकिन दरअसल, इन सालों में जो तकलीफें मन में घर बना लेती हैं, वो आगे की लाइफ पे बहुत असर करती है ।
इसीलिए ये ज़रूरी है कि जवानी की ओर बढ़ रहे इन लोगों को ऐसी कोई जगह और माहौल मिलें, जहां वो खुलकर अपनी बात कह सकें। अपने इमोशन और डर शेयर कर सकें, अपने सवालों के ज़वाब पा सकें। शायद आपको याद हो, मई 2019 में, हमने नंदिता चौधरी (जो कि एक चाइल्ड डेवलपमेंट एक्सपर्ट हैं) और इट्स ओ.के. टू टाक (Its Okay to Talk) नाम की संस्था, जो कि जवान लोगों पे फोकस करने वाला मानसिक स्वास्थ्य अभियान है, से इस टॉपिक पे बात की थी। हमने उनसे, भारत के किशोरों की आम मेन्टल दिक्कतों के बारे में बातचीत की ।
आप उनके साथ हुई 'चैट' देखो, और अगर आपको लगे कि उसमें कुछ ऐसी बातें हैं जो आपकी जिंदगी से मिलती-जुलती हैं, तो लास्ट में दिए गए मेन्टल हेल्थ के रिसोर्स देखो। और हां, जहां भी हो डाउट, हमारी ओर लगाना शाऊट! हम आपकी हेल्प करने को हाज़िर हो जाएंगे!
नंदिता चौधरी और 'इट्स ओके टू टॉक' के साथ हुई चैट का कुछ पार्ट यहां दिया गया है।
इट्स ओके टू टॉक (इस संस्था का बढ़िया नाम है, जिसका मतलब है, बात करने में कोई हर्ज़ नहीं है): जवान लोगों में सबसे आम मेन्टल हेल्थ प्रॉब्लम, फिक्र और डिप्रेशन हैं । इंडिया में आत्महत्या, युवा लोगों के मरने का एक बड़ा कारण रही है। एक किशोर के तनाव के पीछे बहुत सारी वजहें होती हैं। जैसे कि: स्कूल-कॉलेज में नम्बरों का दबाव! जेंडर, सेक्सुअलिटी, प्यार और संबंधों वाले सवाल मन में उठते तो हैं, पर आप उनके बारे में अक्सर किसी से पूछ ही नहीं पाते । इससे, इन सवालों को लेके टेंशन बढ़ जाती है। साथ- साथ बॉडी की सुंदरता की फिक्र! -यानि हम कैसे दिखें, कैसे बात करें, ताकि सब हमें पसन्द करें।
नंदिता चौधरी: जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, वो अपने परिवार और बचपन के संगी-साथी के अलावा, दूसरे रिश्तों की तलाश करने लगते हैं। इस तरह वो अपनी आइडेंटिटी को और विस्तार देना चाहते हैं, नई चीज़ों को एक्स्प्लोर करना चाहते हैं । कई और लोगों तक पहुंचना चाहते हैं। इससे उनको एक अलग सी आज़ादी का एहसास मिलता है। खुद की खोज़ में निकले इन युवा लोगों को हमें बढ़ावा देना चाहिए।
हालांकि, जैसे-जैसे अपने आप को ढूंढने का जुनून बढ़ता है, कई मुद्दों पर हमारा पारा भी ऊपर-नीचे होने लगता है। जैसे कि बॉडी के आकार की चिंता, सेक्सुअलिटी की पुकार, आज़ादी और खुद पे अधिकार, दोस्तों का प्यार, दूसरे ग्रुप में शामिल होने की मार, अकेलेपन का ख़याल, फैमिली में आये दिन होते झगड़ों का शोर और नशे की लत!
सबकी प्रॉब्लम कम्युनिटी, कल्चर, क्लास, ऐज और जेंडर के हिसाब से अलग-अलग हो सकती हैं। मुद्दे भी ऐज, जेंडर, क्लास, कम्युनिटी, फैमिली, रिश्तों और ऐसी ही दूसरी चीजों से संबंधित होंगे। । याद रखने वाली बात ये है, कि प्यूबर्टी की उम्र में सब नाज़ुक होते हैं, बहुत संवेदनशील और चोट खाना आसान होता है ।
नंदिता चौधरी: किशोरावस्था में, दूसरों की राय बहुत मायने रखती है। इससे हमें बहुत फर्क पड़ता है कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोच रहे हैं । दूसरों की सोच पे अगर बहुत ध्यान देना भी गलत है, और बहुत कम ध्यान देना भी सही नहीं। बैलेंस कैसे बने!
जो दूसरों की बातों पे ज़्यादा ध्यान देते हैं, उनकी अलग मुसीबत है, ऐसी मुसीबत जो बढ़ती रहती है । कोई अगर उनकी लुक, उनके कैरेक्टर या कि उनके हालात के बारे में कुछ भी गलत बोलता है, तो उनके लिए शर्मंदगी वाली स्तिथि बन जाती है। अगर कोई अपने बारे में बार-बार बुरा ही सुने, तो उसका खुद पर से भरोसा उठने लगता है। दूसरी प्रोब्लेम्स, सो अलग, पर उसे तो खुद से नफ़रत होने लगती है।
अगर अपने ऊपर का भरोसा इस हद तक उठ जाए कि इंसान खुद पे यकीन ना कर पाए, अकेले रहने लगे, डर कर जिये, किसी दूसरे पर भरोसा ना कर पाए और गाइड करने के लिए भी कोई न हो- तो ऐसे में खुद को नुकसान पहुंचाने के चांस बढ़ जाते हैं। इस बात को भी याद रखिये किएक हद तक ये नार्मल भी है ।बस हमें ये पता होना चाहिए कि पानी कब सिर से ऊपर जा रहा है (यही फिक्र का टाइम है) । तो ध्यान दो कि खुद पर यकीन ना कर पाने वाले एपिसोड बार-बार तो नहीं आ रहे। और ज़्यादा देर तक तो नहीं चल रहे!
इट्स ओके टू टॉक : समाज ने अपने स्टैण्डर्ड बना रखे हैं। जब भी हमें लगता है कि हम उस पर खरे नहीं उतर पा रहे, तो हमें अपने आप पर शर्म आने लगती है। जैसे कि अगर कोई हमारे साथ दादागिरी करता है, हमारा मज़ाक उड़ाता है, तो हमारा आत्मविश्वास हिल जाता है। हम परेशान हो जाते हैं, अपने आप को छोटा महसूस करते हैं।
यहां पर मीडिया का भी एक अहम रोल है। मीडिया हमें एक काल्पनिक तस्वीर दिखाती है, कि कल्चरल/सांस्कृतिक तरीके से क्या अच्छा है, सुंदर है या ये, कि लोग किसे पाने की लालसा रखते हैं। जब इंसान को ये लगने लगे कि वो जैसा है, काफी नहीं है, तब उसकी अपने पे शर्मिंदगी की फीलिंग बढ़ जाती है। ये बात उसके अंदर बैठ जाती है, कि उसमें कोई कमी है।
शर्म अलग-अलग लोगों पर अलग वार करती है। लेकिन इसका सबसे आम असर है, युवा लोगों में आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास की कमी। इससे फिक्र, डिप्रेशन, और मेन्टल हेल्थ के इशू पैदा होते हैं ।
इट्स ओके टू टॉक : हमारे समाज और संस्कृति को जवान लोगों का समर्थन करना चाहिए। उनको हिम्मत देनी चाहिए, ताकि वो खुलकर बाहर आ सकें। उनको ये चिंता न होने पाए कि लोग उनकी बात पे उंगलियां उठाएंगे, या उनकी निंदा करेंगे । हमें अपने कल्चर में ऐसे बदलाव लाने होंगे।
अगर आप भी किशोर हैं, और ये पढ़ रहे हो, मेरी बात पे ध्यान दीजिये : जब भी आपकी सोच इस ओर बढ़ने लगे कि आप अच्छे नहीं हो, या लायक नहीं या काफी नहीं हो, या पतले या मोटे क्यों हो, या क्यों नहीं हो- तो रुको, एक लंबी सांस लो। इस तरह की सोच को अपने ऊपर हावी मत होने दो।
ये समझ लो, कि जो आपकी बुराईयां कर रहा है, वो आपके खुद के अंदर का आलोचक( वो होते हैं न जो अखबार में पिक्चर का रिव्यु लिखते हैं और बड़ी सारे निंदा करते हैं) है। इसको निंदा करने की आदत है । आपको उसकी बातों पर ध्यान देने की कोई ज़रूरत नहीं । सोचो, अगर आपका कोई अच्छा दोस्त ऐसा महसूस करे, तो आप उसे कैसे समझाओगे। बस वही मन्त्र खुद पर भी आजमाओ। अपने आप को समझाओ, अपनी मदद करो। हां, ये सब एक दिन में तो नहीं हो पाएगा। पर आप प्रैक्टिस करते रहो।
नंदिता चौधरी: इस स्टेज पर किसी को ये कह कर निकल जाना कि अरे ये तो बहुत सेंसिटिव है, मूरख है या अभी मैच्यूअर नहीं हुआ है- बिलकुल भी सही नहीं है। बल्कि उनको ये यकीन दिलाना चाहिये, कि ऐसा सबके साथ होता है (भले ही ये पूरी तरह से सच ना हो)। आपने या दूसरे लोगों ने क्या सहा, कैसे इस तरह की सोच का सामना किया- उनको ये सब बताना चाहिए। ज़वानी की ओर कदम बढ़ाते लोगों को ये समझाना चहिये कि कोई परफेक्ट नहीं होता,हर एक के अपने घाव होते हैं । और जैसा कि एक फेमस कवि ने कहा था- उसी छेद से तो रोशनी अंदर आएगी।
इट्स ओके टू टॉक : भारी इमोशन्स से निपटने के कुछ प्रैक्टिकल तरीके भी हैं। जैसे: ऐसे माहौल बनाना, जहां आप अपनी बात, खुल के सामने रख सकें । अपनी बात अंदर ही अंदर
दबा के रखने से, घुट के रहने से, इसका इलाज नहीं होगा। दोस्तों से या किसी ऐसे एडल्ट से, जिनपर आपको भरोसा है, बात करो। और अगर आपको लगे कि ये दर्द, ये इमोशन, आपकी रोज़मर्रा की जिंदगी को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं- तो और मत सोचो, आगे बढ़ के मदद लो!
हमें स्कूलों में सपोर्ट सिस्टम बनाने की जरूरत है, जहां युवा अपने आप से नरमी दिखाएं और दूसरे के प्रति भी सेंसिटिव हों। जहां अपने दोस्तों के साथ मिलकर, वो सपोर्ट ग्रुप बनाएं, जिससे सबको हेल्प मिल सके। साथ ही साथ, इस बात पे ध्यान दें कि हर किसी के लिए मेन्टल हेल्थ सर्विस उपलब्ध हो।
नंदिता चौधरी: फैमिली के अंदर के रिश्ते हों या बाहर, लोगों से दोस्ती, रिश्तों की गहराई इसपर निर्भर
करती है, कि आप एक दूसरे से कैसा व्यवहार कैसे व्यवहार करने का निर्णय लेते हैं । ये आपकी चॉइस है । जैसे कि- किसी की बात को समझना ना कि अनसुना करना ; बातचीत करना, न कि बस उपदेश देना; अपनाना ना कि नकारना; गाइड करना ना कि दबाना; प्यार देना ना कि लगाम कसना। पेरेंट्स के लिए ये ज़रूरी है कि वो अपने बच्चों से उन पलों का जिक्र करें, जब वो खुद अपने ऊपर भरोसा नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने कैसे खुद को सम्भाला, समझाया और किस तरह उस दौर से बाहर आ पाए, सब कुछ बताएं! दरअसल, जब बच्चे
को ये एहसास होगा कि कि हर इंसान के कमज़ोर पल होते हैं और उसके पेरेंट्स उसके साथ अपने पल शेयर कर रहे हैं, उसके पेरेंट्स उससे प्यार करते हैं और उनकी बात सुनने के लिए हमेशा ही तैयार हैं, तो उसमें हिम्मत आएगी और एक भरोसे का रिश्ता कायम होगा।
आप अकेले नहीं हो
यहां उन संगठनों और हेल्पलाइनों की सूची दी गई है जो युवा लोगों की मदद करते हैं।
चढ़ती जवानी-बढ़ती परेशानी! बताओ क्या करूं?
किशोरावस्था और मानसिक स्वास्थ पे एक प्राइमर!
Research and Writing by Nandini Sharma, Graphics by Anshumaan Sathe
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