मूल सिंह, 48
मैं 12 साल का था जब मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया। उसके एक महीने बाद ही पिताजी गाँव चले गए और कभी नहीं लौटे। वो भी चल बसे। हमारे हालात ऐसे थे की मैं आगे नहीं पढ़ सका। मैं पांच भाइयों में चौथे नंबर पे था। मैं घर संभालता था और घर का काम करता था , फिर मेरे कुछ रिश्तेदारों ने मुझसे कहा - "अब क्या करोगे तुम? तुम पढ़ नहीं रहे तो घर ही चला लो"। मैंने एक साइकिल मरम्मत की दुकान पर काम करना शुरू किया। उससे हमारे पास जो भी फालतू पैसा आता था, हम फिल्म देखने चले जाते। एक ही फिल्म को करीब 10 - 12 बार देखने से मुझे गाने याद हो जाते थे। जब मैं 17 का था तब मेरे कुछ दोस्त थे जो कहते थे, "हम बम्बई जा रहे है। क्या तुम भी आओगे?" मैंने कहा हाँ क्यूंकि मुझे फिल्में देखना पसंद था और मैं अमिताभ बच्चन को देखना चाहता था और आ गया बम्बई उनके साथ। बम्बई में आने के बाद सोचने लगा की क्या काम करूँ और काम की तलाश में इधर उधर भटकने लगा। दिन में मजदूरी करता था और रात में फुटपाथ पर अपने तीन दोस्तों के साथ सोता था । जो भी काम मिला, मैंने वो किया। कभी कैटरर का काम किया तो कभी होटल में काम किया, चौकीदारी भी की और गाड़ी चलाना सीखा ताकि ड्राइवर की नौकरी कर सकूँ। जब मैं एक कैटरिंग कंपनी में काम कर रहा था, तब मेरी मुलाक़ात अमिताभ बच्चन जी से हुई थी और मैंने उनसे हाथ भी मिलाया था । ये बात कल्याणजी आनंदजी की 25 वीं सालगिरह की पार्टी की हैं । पार्टी में उन्होंने कहा कि जो कोई भी गाना चाहता हैं वो मंच पर आकर गा सकता हैं। मैंने मौके का फायदा उठाया और मुक़द्दर का सिकंदर फिल्म का गाना "रोते हुए आते हैं सब, हस्ता हुआ जो जाएगा, वो मुक़द्दर का सिकंदर, जान-ए-मन कहलायेगा ।" मैंने ये गाना कल्याणजी आनंदजी और उनके सभी मेहमानो के सामने गाय था। वे [कल्याणजी आनंदजी] इतने खुश हुए की उन्होंने मुझे एक उपहार दिया और मुझसे कहा की गाते रहो और खुश रहो।लवली, 23
मैं 7 वीं क्लास में शादी करने वाली आखिरी लड़कियों में से एक थी। मेरी सहेलियों की एक एक करके शादी हो रही थी। मैं तब 13 साल की थी । मेरा आदमी तब 20 साल का था जब मुझे देखने आया था , तुरंत ही हाँ बोल दिया था मुझे देख के । मैं तब काफी सुन्दर थी । मुझे भी खुशी हुई। अच्छे खानदान से था । मेरे परिवार वाले भी खुश थे । वह भी मतलब जवान ही था। एक हफ्ते बाद ही मेरी शादी भी हो गयी थी मेरे लिए प्यार मेरे आदमी का साथ था।जब भी मेरी सास ने मुझे डांटा तब तब मेरे आदमी ने मेरा साथ दिया । वैसे तो मेरी सास मुझे अपनी बेटी की तरह मानती थी , चूँकि मैं खाना बनाने में कच्ची थी , इसीलिए मुझे डांट पड़ती थी । जब मेरी सासु माँ मुझे आके दो चार शब्द कह जाती थी , मुझे बुरा लगता था। मेरा आदमी उनसे कहता था की शांत रह, बेबी से ऐसे बात न कर। यही मेरे लिए मेरे पति का प्यार था । वह ऐसे ही मस्ती भी कर लेता था , जैसे झाड़ू पकड़ के नाटक करता था जैसे की मैं उसकी सास हूँ और उसे डांट रही हू। ऐसे ही मैं जब पेट से थी तब 15 साल की थी । मुझे लड़का चाहिए था। जब लड़का हुआ , हम बहुत खुश थे । बहुत इज़्ज़त मिलती है लड़का होने से। मेरा आदमी भी खुश था । हम रात को हंसी मज़ाक भी काफी कर लिया करते थे जब मुन्ना सो जाता था। मेरा आदमी भी गांव के उन गिने चुने आदमियों में से था जो घर के कामों में हाथ बटातें थे। मेरी सहेलियों के आदमी उन्हें डांटते थे अगर उन्हें किराने की दुकान से राशन लाने को कहा जाता था। पर मेरे आदमी ने मुझे कभी कुछ नहीं कहा, अगर मैं उससे दुकान से एक हल्दी की डंडी भी मँगवाऊं, तो ज़रूरत पड़ने पर वो भी ला देगा। जॉली सैकिया, 26 किशोरावस्था/प्यूबर्टी ने 2006 में मेरे दरवाज़े पे खटखटाया। मैं उस वक़्त, दादी के साथ रूम शेयर करती थी। वो पहली इंसान थीं, जिनको मैंने बताया कि मेरा महीना / पीरियड्स शुरू हो चुका था। बीच रात उठाकर उनको बताया था । मेरे शहर में जब किसी लड़की को पहली बार पीरियड्स आता है, तो उसे बड़े त्योहार की तरह मनाया जाता है। हमारी भाषा असामी में इसे 'हंती बियां' कहते हैं। उस एरिया के पुजारी ये तय करते हैं कि इस किस दिन पड़ेगा और ये रस्म कितने दिन मनाई जाएगी । अलग अलग लोग के लिए ये रस्म की अवधि भी अलग होती है : कभी कम चलती है, कभी ज़्यादा। पहले 3 दिनों तक, आपको अपने परिवार के किसी भी मर्द या किसी और को भी देखने की आज़ादी नहीं होती है। आपका वॉशरूम अलग होता है। और खाने के लिए सिर्फ ड्राई फ्रूट दिए जाते हैं। फिर चौथे दिन, आपके परिवार की औरतें आकर आपको नहलाती हैं। उसके बाद भी आपको पूरे दिन में बस एक बार खाना मिलता है। और वो खाना, परिवार के खाने के साथ नहीं, बल्कि अलग जगह पर बनता है। मेरी दादी को तो बस इस बात की खुशी थी, कि आखिरकार मेरे पीरियड्स शुरू हो गए थे। मैं परिवार में लास्ट लड़की थी ना, इसलिए। तो बस, भगवान का शुक्रिया अदा करने, वो गाँव चली गईं। उनके ना होने का फायदा उठाकर, पापा ने नियम-कानून ताक पर रख, मुझे दिन में दो बार खाना देना शुरू कर दिया। वैसे तो पीरियड्स के टाइम चॉकलेट और चिप्स खाने से मना किया जाता है, लेकिन मेरे भाई-बहन कभी-कभी उसका जुगाड़ भी कर देते थे। मुझे ढेर सारे तोहफ़े भी मिले, ढेर सारा पैसा और सोना भी मिला ! सच, बहुत बहुत मज़े किये थे। जब मेरे ब्रेस्ट (बूब्स) बढ़ने लगे, मैंने माँ को ब्रा खरीदने के लिए बहुत तंग किया। पर वो सुनती ही नहीं थी। तो मैंने उनकी और अपनी बहन की बड़ी साइज़ वाली ब्रा पहन-पहन कर मज़ाक बनाना शुरू कर दिया। "ओह! मेरे बूब्स कितने बड़े हैं!" हारकर माँ ने मान लिया कि मुझे सच में ब्रा की जरूरत थी। ब्रा पहनकर क्या खुशी मिली थी! मन यही कह रहा था कि यार, कब बड़ी होऊंगी?! मैंने प्यूबर्टी को गले लगाया ही था, कि मेरे दो करीबी दोस्त भी जवानी के दरवाज़े के अंदर आ गए। फिर तो हमारे बीच, अक्सर इसी की बात होने लगी। प्यूबर्टी के लिए, असामी भाषा में बहुत सारे कोड शब्द हैं। जैसे - जैसे हंती होलो या मुर हीतु होई गोल या महेक्य होल। मुझे अभी भी याद है, जब मेरी एक दोस्त को स्कूल में पहली बार पीरियड्स आया। वो एकदम घबरा गई थी। उसे शांत करने के लिए मैंने झट से कह दिया, “अरे कुछ नहीं है! कैटरीना कैफ को भी पीरियड्स होता है।” सुनकर सब हँसने लगे! 14 की एज में, मैंने पहले बार डेटिंग की। वो लड़का मुझसे 6 साल बड़ा था। हम एक दूसरे को चिट्ठी लिखा करते थे। उस वक़्त मुझे आईडिया भी नहीं था, कि रोमांटिक रिश्ते कैसे होते हैं। बस प्यार की भूख सी थी, कोई भी प्यार। 12 क्लास तक कई डेट किये, कई छोड़े। एक के बाद एक किसी रिश्ते के पीछे भागती रही! ज़वानी के उन दिनों में मुझे सेक्स और जेंडर के बीच का अंतर भी नहीं पता था। मुझे बस दो टाइप पता थे- बाइनरी (यानि सोसाइटी के मर्द और औरत, इन दो पाटों वाले सिस्टम में फिट बैठने वाले) और गे (Others- समलैंगिक)। मुझे ये तो पता था कि मैं समलैंगिक नहीं थी। लेकिन मैं बाइनरी के सिस्टम में भी फिट नहीं हो पा रही थी। मुझे बस इतना पता था कि मेरे व्यवहार में दोनों लक्षण थे - मर्दाना और जनाना, यानि मर्द वाले भी और औरत वाले भी। मेरे साथ बड़े होते दोस्तों में से कोई भी क्वीयर नहीं था। इसलिए वो कांसेप्ट मेरे दिमाग में क्लियर नहीं था। आख़िरकार जब मैंने मास्टर्स की पढ़ाई शुरू की, तब कुछ क्वीयर लोगों से मुलाकात हुई। उनमें से कुछ तो ज़िंदगी भर के लिए फैमिली का हिस्सा बन चुके हैं। पर उस वक़्त उनसे मिलकर भी बात पूरी तरफ से साफ नहीं हो पाई थी। पर्दा तब उठा जब एक नज़दीकी दोस्त आर (R) ने एक दिन मुझसे कहा, "शायद तुम बाईजेंडर हो?" (Bigender- जो बाइनरी से परे, अपने आप को मर्द भी समझे और औरत भी, या कभी एक या दूजी पहचान अपनाये) बस ये बात एकदम क्लिक हो गई! ये जो खुद की पहचान को लेकर सालों की जद्दोजहद चल रही थी, बड़े सालों बाद लगा, कि कुछ समझ में आने लगा है शायद । एक हल्कापन महसूस हुआ। अंजू राय, 79 जब मैं सोलह साल की थी, तब मेरी माँ की तबियत बहुत खराब थी| फ़िर दो साल बाद, वो चल बसी| इसलिए जो सोलह साल में लड़कियों को कुछ कुछ होता है, वो मेरे साथ कभी नहीं हुआ| क्योंकि मैं सारे समय, घर पर ही रहती थी| सरस्वती पूजा के समय स्कूल के लड़के मुझ पर लाइन मारते थे| वो भी इसलिए, क्योंकि हम कोरस में साथ गाते थे| बस इतनी सी थी जवानी की छेड़ छाड़ की दास्ताँ| उन्नीस की हुई, और मेरी शादी हो गयी| सोलह से लेकर उन्नीस तक, बहुत कुछ हुआ मेरी ज़िन्दगी में| वो तीन साल पलक झपकते हुए चले गए | मैं कब लड़की से औरत बन गयी, पता ही नहीं चला | मेरे बाबा काफ़ी पुराने ख़यालात वाले थे| हमें सलवार कमीज़ पहनने की भी आज़ादी नहीं थी| आठवीं क्लास से ही हम साड़ी पहनने लगे थे| स्पोर्ट्स डे पर, मैं अपने दोस्त के यहाँ जा कर सलवार कमीज़ पहनकर, स्कूल जाती थी| बाबा को संगीत काफ़ी पसंद था| इसलिए जब मेरे म्यूज़िक टीचर आते थे, तो वो भी साथ में बैठ कर मेरा रियाज़ सुनते थे| म्यूज़िक एग्ज़ाम के कुछ दिन पहले, तबला वाला मेरे साथ प्रैक्टिस करने आता था| बेचारा तबलिया| वो जितनी देर रहा, उतनी देर तक मेरे बूढ़े और लगभग अंधे बाबा उसके पीछे बैठे रहते थे | उस समय चीन के साथ युद्ध चालू था| इसलिए मेरे पति के परिवार को उनकी शादी कराने की बहुत जल्दी थी| जब हमारी शादी तय हुई, उसे उसकी भनक तक नहीं थी| तय होने के हफ्ते भर बाद, उसको यह खबर एक चिट्ठी के द्वारा मिली| जिसमें लिखा था- “आपको सूचित किया जाता है, कि आपकी सगाई कुमारी मंजुला घोष के साथ तय हो चुकी है|” उन्हें काफ़ी गुस्सा आया| ज़ाहिर है आएगा ही, खुद की शादी हो रही है और आपको लास्ट में खबर मिलती है | वो मज़ाक करते थे, कि उन्होंने शादी इसलिए की, क्योंकि उनको मेरी फ़ोटो पसंद आ गयी थी| कहते थे “मैंने फ़ोटोज़ देखे और कहा, ठीक आच्छे, चोलते पारे( ठीक है, मुझे चलेगा)” जवानी के चौखट के उन दिनों को लेकर, बस एक तमन्ना रह गयी, कि मैं अपनी माँ के साथ ज़्यादा वक़्त नहीं बिता पाई | मो, 24 चढ़ती जवानी के शुरुआती दिन, मेरे लिए एक खाली पन्ने जैसे रहे| उनमें क्या लिखा था, वो मैं धीरे धीरे याद करने की कोशिश कर रहा हूँ| मैंने उन यादों को किसी संदूक में बंद कर रखा है| क्योंकि उन यादों में मेरे लिए दर्द के अलावा और कुछ नहीं है | मैं हमेशा से ही एक शांत टाइप लड़का था| जिसका ज़्यादा समय बाकी लड़कों के साथ पी.टी. टाइम में खेलने से ज़्यादा, लाइब्रेरी में बीतता था | जिस दिन मेरे शरीर पर पहला बाल निकला, मेरी तो जान ही निकल गयी थी| मैं चिल्लाते हुए मम्मी के पास दिखाने भागा | मैं उस समय बाहरवीं कक्षा में था| मेरी क्लास के बाकी लड़कों के गब्बर वाली दाढ़ी और बच्चन जैसी आवाज़ फ़ूटने लगी थी| उनके मुकाबले, मैं बच्चा दिखता था| जिसके कारण मेरा कंफ्यूज़न बढ़ता ही जा रहा था| और मैं बाकी लड़कों से भी दूर होता जा रहा था | उस समय मैं सऊदी में था| और वहाँ स्कूल में रिप्रोडक्शन के चैप्टर, सारी जानकारी को दबा दबा के पढ़ाया जाता था| मुझे नहीं पता था, कि यह सब नोर्मल होता है| हमारी किताबों में इंटरसेक्स (मध्य लिंगी:जन्म के समय जिनके जननांग स्त्री या पुरुष के बदन की साधारण धारणा में फिट न बैठें) के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं था| जो भी था, उसमें इसे एक बीमारी के रूप में ही दिखाया गया था| इंटरसेक्स शरीरों के बारे में पढ़ा, तो अंदर ही अंदर मुझे अपने बारे में कुछ समझ में आया| पर इस सच को मानने में मुझे कुछ समय लगा था | मुझे किसी ने स्कूल में तंग नहीं किया| पर मेरे और बाकी लड़कों के बीच, हमेशा एक दूरी बनी रही| मैंने एन.सी.ई. आर.टी.(NCERT) की बुक में, रिप्रोडक्शन के बारे में पढ़ा था| कैसे मेरे उम्र के लड़के ‘ऐसे’ दिखने चाहिए| और लड़कियाँ ‘ऐसी’ दिखनी चाहिए| मुझे याद है, उन तस्वीरों को देखकर मेरे अन्दर क्या फ़ीलिंग आई थी| मेरा शरीर, उन दोनों टाइप में, फिट नहीं बैठ रहा था | आज मैं अपने शरीर को पूरे दिल से अपनाता हूँ, प्यार करता हूँ| काश उस समय मेरे पास खुद को स्वीकारने के साधन होते, जिनसे मेरी हिम्मत बढ़ती |सैफो, 23
सोलह साल में हम, परिवार के साथ, एक बहुत छोटे से शहर में रहने चले गए थे| जो हमारे लिए काफ़ी अजीब था| हमारे पास ज़्यादा इन्टरनेट इस्तेमाल करने का साधन नहीं था| जिससे हम अपनी पहचान को जानने के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते थे| जिसके कारण, इस दौरान, हमारा ‘ट्रांसपन’ का अनुभव, अंदरूनी ही था| उस एहसास को समझने के लिए, हमारे पास ना कोई शब्द था, ना किसी और का अनुभव| थोड़ा बड़े होने के बाद, हम थोड़े बदमाश हो गए| स्कूल में पेन ड्राइव स्मगल कर, इंटरनेट से इंटरेस्टिंग चीज़ें डाउनलोड कर लाना, हमारे बायें हाथ का खेल था| फ़िर ऑनलाइन की दुनिया में कई ग्रुप्स का हिस्सा बनने से काफ़ी मदद मिली| ये ग्रुप्स हमारे लिए एक ऑनलाइन परिवार जैसे थे| जहाँ हमें अपने बारे में जानकारी मिलती| जिसकी मदद से हमें खुद के बारे में बात करने और समझाने का मौका मिला| मैं टम्बलर, डिस्कोर्ड, रेडिट के क्वीयर ग्रुप्स पर काफ़ी एक्टिव हूँ| वहाँ से हमें काफ़ी क्वीयर इतिहास और लिटरेचर पढ़ने का मौका मिला| हम अब एक पूरी तरीके से ट्रांस साफ़ो हैं ( साफ़ो एक फ़ेमस ग्रीक पोएट थी जो क्वीयर थीं, कामुकता की संस्कृति को लेके, सुन्दर कवितायें लिखती थीं|)|संजय शर्मा, 34
जब मैं छोटा था तब प्यूबर्टी के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता था | मैं एक जॉइंट फ़ैमिली में बड़ा हुआ जहाँ किसी के पास इतना टाइम ही नहीं होता था की अपने बारें में सोचूं। और वैसे भी कौनसा मम्मी पापा ने हमें सिखाया था या बताया था की कब खड़ा होगा। बस एन.जी.ओ. और स्कूल टीचर्स ही थे , वहां भी दो अलग अलग बातें होती थी। जहाँ एन.जी.ओ. कहती थी की हाँ ये सब होता है इस उम्र में, वही टीचर्स बोलते थे की लड़कियों को बहनो की तरह देखो, अपना निकालो मत, दिमाग काम करना बंद करदेगा वरना। तो मैं भी कन्फ्यूज़् था की क्या सही है और क्या नहीं। प्यूबर्टी के बारे छठी - सांतवी क्लास में पता चला था. मुझे आज भी याद है, मेरी क्लास में बैठे कुछ लड़के अपने आप को छूते रहते थे। एक बार तो मैंने पहली पंक्ति में बैठे लड़को को अपना हिलाते हुए देखा। मैं उनके पीछे वाली डेस्क पर बैठा था। तब मुझे नहीं पता था की वो लोग क्या कर रहे थे। एक दिन मैं नाहा रहा था तो मुझे निर्माण आया। क्यूंकि सब एक ही गुस्लख़ाना प्रयोग करते थे तो मैं जल्दी से तौलिया लपेट के रूम में भागा। मुझे लगा पानी और साबुन रगड़ने से हुआ होगा पर शायद उस दिन मुझे प्यूबर्टी का अनुभव हुआ। आठवीं क्लास की बात है - मेरा एक दोस्त था। वो और मैं साथ में पढ़ते थे और होमवर्क करते थे। मैं एक दिन उसके घर गया। मैंने पठानी कुरता पहना हुआ था। मैं दुबला पतला - और लड़कों को तो पतली लड़किया कितनी पसंद है। हम छत पर पढ़ रहे थे, वो मुझे अपने रूम में ले गया। उसने मेरा पजामा खोला और मुझे छूने लग गया। फिर मैंने भी उसको टच किया और हम दोनों ने एक दूसरे को एक्सप्लोर करना शुरू कर दिया। बहुत ही क्यूट था वो। फिर तो हम बहाने ढूंढ़ते रहे ये सब करने के। फिर वो कहीं चला गया, स्कूल बदल लिया। और मेरा पहला प्यार अधूरा रह गया। मेरी क्लास में एक लड़का था बहुत लम्बा - 6 फुट 2 इंच। उसको दिल्ली पुलिस में भर्ती होना था। उसपे तो मैंने खूब लाइन मारी थी। और वो पिघल भी गया था। फिर स्कूल के पीछे एक जंगल था। हम वहां जाते थे और जंगल में मंगल करते थे , पूरा नहीं पर थोड़ा थोड़ा। अब सोचता हु शायद पूरा मंगल किया होता। मुझे पता ही नहीं था की मैं कुछ अलग हूँ। मुझे ये सारे अनुभव कभी अजीब नहीं लगे - सब लड़के लाइन मारते थे। मेरे लिए सब नॉर्मल था। ग्रैजुएशन के बाद मुझे पता चला की मैं गे हूँ।