मैंने अपनी ज़िंदगी के दो सबसे बुरे साल लड़कों की टीम/"बॉयज़ क्लब" में बिताए। वैसे सच तो ये है कि किन्हें दो चीज़ों में कनेक्शन देखने से ये तो नहीं कहा जा सकता, कि एक की वजह से ही दूसरी हुई । तो शायद मुझे भी ऐसा नहीं कहना चाहिए ।
मुझे मेरी ज़िंदगी बर्बाद टाइप लग रही है, तो जरूरी नहीं कि इसकी वज़ह ये बॉयज़ क्लब ही है। पर हां, मेरे ज़िंदगी में जो कुछ गड़बड़ था, वो सब उस बॉयज क्लब में भी दिखता था।
मैंने अपनी पूरी स्कूल लाइफ में दोस्त बनाने की बहुत कोशिश की। मेरे माता-पिता और टीचर्स का मानना था, कि मुझे दोस्तों के मामले में इतना ज़्यादा नकचढ़ा नहीं होना चाहिए। बल्कि अगर कोई मुझे अपना दोस्त बनाये, तो मुझे अपने आपको लकी समझना चाहिए। ये सब सुनकर, मुझे लगने लगा कि मैं ही बेकार इंसान हूँ, जो किसी की दोस्त बनने के लायक ही नहीं । तो बस ये बातें मेरे मन में पहले ही घर कर गयी थीं, जिसकी वजह से बॉयज क्लब वाली टेढ़ी सोच, जोड़ तोड़ और घृणा, मुझपे एकदम असर कर गए ।
हाई स्कूल में मैं लड़कियों के किसी भी ग्रूपमें शामिल नहीं हो पा रही थी। फिर एक दिन मैंने अपने डेस्क पार्टनर (जो कि एक लड़का था), उससे पूछा- कि क्या मैं लंच में उसके ग्रूपके साथ बैठ सकती थी। उसने थोड़ा हिचकिचाते हुए हामी भर दी। उसने अपने किसी भी दोस्त से इसपे सलाह लेने की ज़रूरत भी नहीं समझी। जैसे किसी अकेली लड़की का उसके ग्रूपमें होना कोई बड़ी बात नहीं थी। आप मेरी खुशी का अंदाज़ा लगा सकते हैं। पहली बार किसी ने मुझे एहसास कराया कि मैं कहीं फिट हो पा रही थी। या यूं कहूँ, कि पहली बार मुझे ऐसे लोग मिले जो मुझे सहन कर पा रहे थे।
मैं रैप करने वाले कलाकार या फास्ट कार या क्रिकेट के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। पर सच कहूँ, उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। मेरे लिए उनके ग्रूपमें शामिल हो पाना ही बड़ी बात थी।पिछले 14 सालों में, पहली बार मुझे एक ग्रूपका हिस्सा बनने को मिल रहा था। और बॉयज ग्रूप के लड़के, वो भी तो खुश थे! उनको लगा मैं दूसरी लड़कियों से अलग थी। अब इसका मतलब चाहे जो भी हो, पर इसके लिए वो मेरी खूब वाह वाही करते थे। बात-बात पे कहते, "अरे! ये दूसरी लकड़ियों जैसी थोड़ी ना है। ये तो टॉम-बॉय है"। और बस, इस तरह मैंने भी हर बेवकूफ़ी और कमज़ोरी वाली चीज़ को 'लड़कियों' के साथ जोड़ना शुरू कर दिया। मैं भी अपनी लंबी जुल्फ़ों को खुला छोड़ने वाली और ‘फॉरएवर 21’ ब्रांड के कपड़े पहनने वाली लड़कियों को देखकर, शक्लें बनाने लगी। रोमांटिक कॉमेडी पसंद करने वाली लड़कियों का मज़ाक उड़ाने लगी। क्योंकि 'प्यार का पंचनामा' मूवी में कार्तिक आर्यन ने साफ-साफ कहा था- "भाई, सारी लड़कियां एक जैसी होती हैं।" और मैं उन "सारी लड़कियों" में से एक नहीं होना चाहती थी।
मुझे याद है एक बार मैं अपने इसी एकलौते ग्रूप के साथ डिनर के लिए जाने वाली थी, पर एक लड़का मुझे साथ नहीं ले जाना चाहता था। मेरे दोस्त ने झट से कहा "फ़िकर मत करो, ये दूसरी लड़कियों की तरह नहीं है। हमारे जैसी ही कूल है। है ना?" फिर पलटकर मुस्कुराते हुए मुझे देखने लगा। मैं भी शरमाकर हंस दी। उस समय मुझे लगा कि वो मुझे कूल इसलिए कह रहा था क्योंकि मैं- मैं थी। मैं समझ ही नहीं पाई कि मेरा वो सारे लड़के मुझे इसलिए कूल समझते थे, क्योंकि उनको लगता था मैं स्कूल की दूसरी 'लड़कियों' से अलग थी। तो, लड़कियों को दो 'टाइप्स' में बांट दिया गया था। अगर आप एक लड़की हैं, पर आप नार्मल लड़कियों से अलग हैं, तो आप लड़कों जैसी हैं। फिर यकीनन लड़के आपको भाव देंगे। अब अगर इस सिस्टम को ध्यान से देखें तो 'लड़की टाइप/फेमिनिन' का मतलब था, वो लड़की , जिसपे रौंद के चलना आसान हो। जिसे सब एक इस्तेमाल का सामान समझें। और 'लड़के टाइप/मर्दाना' का मतलब था, ऐसा लड़का, जिसकी सब इज़्ज़त करें। ये सोच, ये गणित किसने बैठागणित किसने बैठाई ? ये कहां से आई? ये सब सवाल मेरे दिमाग में उठने लगे। किसे इज़्ज़त मिलनी चाहिये और किसे नहीं, ये कौन तय करता है?
मेरे ग्रूप के लड़के, लंच ब्रेक में अक्सर लड़कियों के रूप-रंग पर कमेंट किया करते थे। उनपर सेक्सुअल जोक्स मारा करते थे और उनको उनको एक 'चीज़' बता के बात करते थे। यानि बेइज़्ज़ती करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। मुझे याद है एक लड़की के पीछे कैसे वो सब लट्टू हो गए थे। वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो गोरी थी, हल्के भूरे रंग के बाल थे, उसी रंग की आँखें और बिल्कुल पतली बॉडी। उसके बारे में बात करते समय ना जाने उन्होंने कितनी बार "सिम्प"/लल्लू और "स्लट"/छिनाल जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया । simp एक्चुअली वो लड़के कहलाते हैं, जो लड़कियों को खुश करने के लिए कुछ भी करते हैं और सेक्स में उनके सामने झुके रहते हैं। यानी शब्दों का सही इस्तेमाल भी नहीं, बस बराबर लड़की को गाली देने का इरादा।
लॉकर रूम में होने वाली इन बातों को पचाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। ये सब सुन-सुन के मेरा ध्यान मेरे अपने लुक पे जाने लगा था। ना ही मैं उतनी पतली थी और न ही गोरी। ब्राउन स्किन, घुंघराले बाल और मोटे-मोटे चश्मे! ये लड़के मुझे कितना नंबर देंगे ? बार-बार ऐसे ख्याल आने लगे। कभी लगता, कि अगर मेरे सितारे बुलंद हुए, तो मेरे सुंदर पिछवाड़े को देखकर,( मुझे मेरे नितम्ब वाकई सुन्दर लगते हैं ), शायद 6 नंबर दे देंगे। फिर लगता कि अगर कभी मेरी स्किन धूप से और काली हो गई, तो क्या मुझे ग्रूप का हिस्सा रहने भी देंगे! ऐसी-ऐसी सोच मेरे मन में उठने लगी थी। कहीं न कहीं मुझे पता था कि वो लोग, लड़कियों के बारे में जिस तरह की गंदी बातें करते थे, वो गलत था। पर मैं उनके सामने बुरी नहीं बनना चाहती थी। तो मैंने अपने आपको ये कहकर मना लिया था कि 'भई, लड़के हैं! ऐसी बातें तो करेंगे ही'! और अब मुझे ये बात बिल्कुल नहीं पचती! सब अक्सर कहते हैं ना- "कि लड़के तो लड़कों वाली हरक़तें ही करेंगे"- 'लड़के' शब्द का डेफिनिशन क्या है।
अगर ये कोई पिक्चर होती, तो वो लोग मेरे अच्छे दोस्त होते, मेरी परवाह करते, मुझसे प्यार करते। लेकिन ये तो असली जिंदगी थी! तो बात-बात पर उनका मेरे ज़ख्मों पर नमक छिड़कना लाज़मी था। जब भी पी. टी. क्लास के बाद मैं उनसे मिलती तो- "अबे, डार्क चॉकलेट!" "अरे, कीचड़ में नहा के आई है क्या?" - जैसी बातों से मेरा स्वागत किया जाता। मुझे बार-बार याद दिलाया जाता कि कोई बेवकूफ़ ही होगा जो मेरे साथ डेट करेगा। या कि मैं कितनी बदसूरत थी और शायद मुझे वर्जिन ही मरना पड़े। और इन सबके बीच में मेरी स्किन के रंग का मज़ाक उड़ाना, दूसरी लड़कियों को ऑब्जेक्टिफाई ( इंसान का नहीं, उन्हें एक चीज़ कर दर्जा देना ) करना। उफ! लेकिन 'कूल टॉम्बॉय' बने रहने के भी कुछ नियम थे ना! भले ही मुझे उनकी बातें बुरी लगे, पर उनके जोक्स पे तो हँसना ही था। क्योंकि अगर मैं ऐसा नहीं करती, तो मुझे 'कूल गर्ल' के सिंघासन से उतार कर 'बेवकूफ़, नाज़ुक टाइप की लड़कीयों' वाले दर्जे में डाल दिया जाता। उनके उस बेवकूफी भरे स्टैण्डर्ड पर मैं खुद को और दूसरी लड़कियों को जज करने लगी थी। और नतीज़ा ये हुआ, कि मैं उन्ही स्टैण्डर्ड पर अपनी जान पहचान वाली लड़कियों और यहां तक कि एडल्ट औरतों को भी मापने लगी थी। अपने आस-पास की औरतों को देखकर, हमेशा उनके लुक को रेटिंग देना, उनको जज करना, मेरी आदत बन चुकी थी। खुद की इन हरकतों का बुरा भी लगता था, पर फिर भी, जैसे मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी। एक बार तो, उन लड़कों की हां में हां मिलाते हुए, मैंने भी एक लड़की को हॉट कह दिया। बस फिर क्या था! उन्होंने मुझे "डाइक" (dyke यानि लेस्बियन) और "फैग" (fag यानि होमोसेक्सयूअल) कहना शुरू कर दिया!
और इस सबके ऊपर, मर्दों में मर्द, यानी अल्फा मेल/ alpha male होने की उनकी लालसा। हमेशा वही "प्रोटीन-प्रोटीन-प्रोटीन" और बॉडी बनाने की बातें। और कि, औरतें कैसे 'बदचलन' और "पैसों के पीछे भागने वाली' होती हैं। उनकी बातें सुनकर,तो कभी-कभी लगता था जैसे औरत जात में जन्म लेकर, मैंने कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया हो। और हस्तमैथुन/ मास्टरबेटिंग के बारे में तो ऐसे-ऐसे बेवकूफ़ी वाले कमेंट्स, कि पूछो ही मत। जैसे कि वो 'नो नट नवंबर' वाला चैलेंज, जिसमें मर्दों को 1 महीने तक बिना झड़े/ स्खलन किये रहना होता था। मानो उसके बाद , वो ग्रीक गॉड की तरह सूपर मर्द बन जाने वाले थे। उनके साथ बात करके, मुझे हमेशा दोषी सा महसूस होता था। मैं कमज़ोर, दुखी और बद से बदतर महसूस करती थी। वैसे मुझे लगता था, कि मैं फेमिनिस्ट हूँ। पर शायद मैंने उसकी बारीकियों को नहीं समझा था। और ना पितृसत्ता के फैले हुए पावर गेम को समझा, जो औरतों को दबा के तो रखता है, पर और भी बहुत सारी गड़बड़ करता है। धीरे-धीरे, मुझे ये भी समझ में आया कि मेरे ये मर्द दोस्त ऐसे कमेंट इसलिए किया करते थे, क्योंकि उनको लगता था, इससे वो 'असली मर्द' दिखेंगे। मतलब उनको अपनी मर्दानगी पर ही शक रहता । और भले ही, उस समय वो स्कूल में थे, कुछ कमाते नहीं थे, पर उनको लगता था कि पैसे का रौब दिखाने से, उनकी मर्दानगी और चमकेगी । और लड़कियां पटेंगी। ये पितृसत्ता समाज क्या क्या करता है, उस टाइम समझ थोड़ी आया । ये ऐसी संस्कृति है, जो उन लड़कों को बढ़ावा देती है जो लड़कियों को जज करते हैं, उनको इंसान की तरह नहीं, एक चीज़ की तरह देखते हैं । वही पितृसत्ता संस्कृति उन लड़कों को नीचा महसूस कराती है जिनके पास पैसा या फिट-फाट बॉडी ना हो। उस समय के बारे में अब सोचती हूँ, तो समझ आता है कि मैं किसी ग्रूप में शामिली होने के लिए कितनी बेचैन थी । औरों के साथ शामिल होने की फ़िक्र ने मुझसे मेरे सिद्धांत तो छुड़वाए ही, साथ साथ अपने खुद के बचाव कर पाने में भी मुझे कमज़ोर कर दिया ।
पर भगवान का शुक्र है, धीरे-धीरे ग्रूप का बर्ताव सुधरा, थोड़ा तमीज़दार होने लगा, ताकि होने वाली गर्लफ्रेंड्स के साथ निभाया जा सके । जल्द ही, मैंने अपने अल्फा-मेल दोस्त की गर्लफ्रैंड दीप्ति से दोस्ती कर ली (वैसे बात दूं, कि दीप्ति मेरे उस दोस्त के ‘स्टैण्डर्ड’ में कहीं से भी फिट नहीं बैठती थी)। अब ये भी साफ हो चुका था, कि मेरा वो दोस्त , किस तरह दूसरे लड़कों के सामने अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए, मुखौटा लगा के रखता था । जब भी लड़कों के बीच होता था, तो उसका बर्ताव अलग ही होता था। बात-बात पर मानो मर्द होने का सबूत देता था। एक बार जब दीप्ति हमारे साथ लंच के लिए आयी, ग्रूप के हर लड़के के मुंह से मिश्री सी बातें निकल रही थीं। सब दयालु बन बैठे थे, उसकी इज़्ज़त कर रहे थे। इतनी तमीज़ तो उन्होंने पहले कभी मेरे साथ या ग्रूप के बाहर की किसी लड़की के साथ नहीं दिखाई थी। और मज़े की बात तो ये है, कि मेरा ये दोस्त अगर सिर्फ लड़कों के साथ होता, तो इतना मीठा बर्ताव कभी नहीं करता । खैर, इस सबके बीच, मेरा फायदा हो गया। उस दिन मेरी टांग खींचने या मेरे ऊपर हंसने की बजाय, वो लोग ऐसी बातें कर रहे थे, जिसपर मैं भी उनके साथ हँस पा रही थी ।
दीप्ति और मुझे, हम दोनों को खाली टाइम में स्विमिंग करना पसंद था। तो बस हम अक्सर स्विमिंग डेट पे जाने लगे । अब मेरे हिसाब से, मेरी बॉडी तो पेअर-शेप (नाशपाती से आकार की) थी । तो मैं स्किन से चिपके हुए, या बिना स्लीव के या जांघों तक वाले स्विमसूट पहनने से कतराती थी । हमेशा यही लगता था, कि पूल में लड़के मुझे ऐसे देखेंगे तो क्या सोचेंगे । तो मेरे स्विमसूट घुटने तक लंबे और ढीले-ढाले होते थे। जब दीप्ति लॉकर रूम से बाहर आयी, तो मैं हैरान हो गई। उसने वैसा ही स्विमसूट पहना था जिसे मैं पब्लिक पूल में पहनने से डरती थी। और हाँ, पतली तो वो बिल्कुल नहीं थी। बल्कि उसकी बॉडी मेरे से भी ज्यादा पेअर-शेप की थी। लेकिन वो, बिना किसी हिचकिचाहट के, आराम से, वैसा स्विमसूट पहन पा रही थी । ना ही वो अपने कंधे झुका रही थी, ना ही बार-बार अपनी कमर को दबाकर अंदर कर रही थी। जबकि मैं ये सब करती थी, जब मुझे लगता था कि मैं किसी ड्रेस में मोटी लग रही हूँ। उससे प्रेरित होकर, मैंने जो टाइट, बैकलेस काले स्विमसूट को अंदर रखा था (कि कभी पतली हुई तो पहनूंगी), उसे पहनना शुरू कर दिया। और तब मुझे ये समझ में आया, कि किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने क्या पहना है, या आप कितने मोटे लग रहे हैं। बल्कि जिस तरह से वो ड्रेस मेरे आकार को खुलकर दिखा रहा था, मुझे वो अच्छा लग रहा था । अब स्विमिंग की रेस में और मज़ा आने लगा था। मेरा स्विमिंग सूट जो पानी के अंदर मेरी हरकतों से मेल खा रहा था!
हम तो अपने ग्रूपके लड़कों के बारे में भी गॉसिप करके खूब हँसा करते थे। मेरी तरह, उसे भी लगता था कि अश्विन एकदम घटिया आदमी था (बोले तो पादू टाइप का)। और अरहान की पूरी लाइफ तो मानो बस पकवान और पोर्न के इर्द-गिर्द घूमती थी । और देव, वो तो एकदम बिगड़ा हुआ आवारा लड़का था। वो तो अपने बॉयफ्रेंड के मर्दानगी भरे बर्ताव का भी मज़ाक उड़ाती थी । और उसे नज़रअंदाज़ भी करती थी। बताती थी, कि कैसे उसका बॉयफ्रेंड अंदर से काफी स्वीट, मज़ाकिया और चार्मिंग है। सच कहूँ, तो उससे ये सब सुनकर अच्छा लगा, क्योंकि मुझे तो अपनी पीढ़ी के लड़कों को देखकर चिंता होने लगी थी, कि ना जाने आगे चलकर ये लोग क्या बनेंगे । अब जब मुझे पता चल चुका था कि मेरे उस मर्द दोस्त के स्वभाव का एक हिस्सा मिठास भरा था, नरम था, तो मैं उसके बर्ताव पे ज्यादा ध्यान देने लगी। और फिर कई बार, मुझे उसका वो पहलू दिखा । जितना सोचा था, उससे ज़्यादा बार । ऐसे में मुझे लगा, कि शायद वो और मैं गहरे दोस्त बन सकते थे। मैं उसकी 'गर्ल बेस्ट फ्रेंड' तो बन ही सकती थी (हां, यहां शायद थोड़ी चापलूसी की ज़रूरत हो)! खैर हमने वास्तव में एक सच्चा और गहरा रिश्ता बनाया । ऐसा रिश्ता, जहां उसने मुझे खुद के बारे में अच्छा महसूस कराया। हम आर्ट और मीमस (memes- हँसी मज़ाक वाले चित्र) के ऊपर अपनी दोस्ती की नींव जमाने लगे । किसने सोचा होगा कि ए ऐसा दिन भी आएगा!
जब मैं 16 साल की हुई, तो दूसरे स्कूल में एडमिशन हुआ । उस नए स्कूल में एक ऐसे लड़के से दोस्ती हुई, जो वैसे तो अल्फा-मेल टाइप बनता था, पर दरअसल एकदम अलग था। खुलकर रोता था, रोम-कॉम (रोमांटिक-कॉमेडी) मूवी देखता था और अपनी पुरुष परम्परा पर सवाल भी उठाता था । (और शायद दुनिया का सबसे मस्त मिजाज़ आदमी भी था)। मुझे ये ऊपरी बुलबुलों की कहानी, अच्छी तरह से समझ में आ गयी थी । मुझे पता चल गया था, कि बनी बनाई, दकियानूसी राह ना चलकर, अगर हम अपना रास्ता खुद बनाएं, तो कुछ कमाल हो सकता था। मैंने ये भी पाया कि हर लड़का अल्फा-मेल नहीं होता है (और ना ही बनना चाहता है)।
हम जो नई चीज़ें सीख रहे थे, मेरी और मेरे उस मर्द दोस्त की बातें अक्सर उसके आस-पास ही घुमा करती थीं । उसको नार्मल और एब्नार्मल की हिस्ट्री में दिलचस्पी थी। कभी-कभी, जब किसी ऐसी चीज़ के बारे में बात होती थी, जो कि 'सेक्सिस्ट' (sexist- जेंडर के आधार पर भेद-भाव, अक्सर औरतों के खिलाफ) हो, तो मैं लेक्चर सुनने के लिए खुद को तैयार करती, कि अब वो मुझे बताएगा कि नारीवादी औरतें दरअसल आदमियों के नफरत करती हैं । (यानि मिसएन्डरिस्ट्स/misandrists हैं- ओह! मुझे ये शब्द बिल्कुल पसंद नहीं)। लेकिन ऐसा कभी हुआ ही नहीं । उल्टा हमारे बीच तो जोश से भरी बातचीत होती थी! उसी दौरान, मैंने "दूसरी लड़कियों की तरह नहीं" पर बने कुछ वीडियो देखे और ये महसूस किया कि वही सब मेरे साथ हो रहा था । अब लाइफकी सारी बिखरी बातें, मानो एक तस्वीर में फिट होती नज़र आ रही थी ।
वो लड़का बड़ा रिलैक्स सा था, पर हमारी बातचीत पर वो पूरा ध्यान देता था। खुलकर बोलता तो था (यानि एक्सट्रोवर्ट था) पर बहुत ज़्यादा भी नहीं। स्ट्रांग था, पर मेरे पुराने दोस्तों की तरह उसका दिखावा नहीं करता था। यानि एक तरह से बता भी देता था कि वो अपनी जगह पे कॉंफिडेंट और मजबूत है। इसलिए उसे औरों की निजी लक्ष्मण रेखाओं का उल्लंघन करने का कोई इरादा नहीं । दूसरों के दायरे में घुसने, या उनको तंग करने की, उसकी कोई मंशा नहीं थी। मुझे महसूस हुआ कि आप एक साथ कई चीज़ें कर सकते हैं । जैसे कि अपनी भावनाओं को खुलकर दिखाना, दूसरों को हंसाना और साथ ही साथ मर्दाना लेबल लगे फुटबॉल और स्पोर्ट्स कार को भी पसंद करना । मैं आखिरकार ये भी समझ गई कि अपनी फेमिनिटी/ स्त्रीत्व में कॉफिडेंट रहा जा सकता है । आज मैं दूसरी औरतों से दोस्ती बनाने में लगी हूँ । और अपनी साथी-सहेलियों की तारीफ़ करना नहीं भूलती हूँ । अब उनको नीचा दिखाना मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं है । ये सब करते हुए मुझे अब एक साल हो गया, और अब आखिरकार मैं अपने आप से मिल पाई हूँ ।
नयना एक 16 साल की आई.बी स्टूडेंट है जिसे ड्राइंग और राइटिंग पसंद है। वो मानती है कि वो दिन में सपने देखती है और बहुत ज्यादा संवेदनशील है। सनकी और काल्पनिक चीजों से तो उसे बहुत लगाव है। आप उसका पॉडकास्ट - प्रोजेक्ट हाई स्कूल - स्पॉटिफाई और पॉडबीन पर देख सकते हैं।
दोस्तों की नज़र, स्कूल का प्रेशर कुकर - लड़कों की टोली में शामिल एक लड़की!
नयना इस आर्टिकल में स्कूल के एक "बॉयज़ क्लब" यानि लड़कों के ग्रूप का हिस्सा बनने के बारे में हमें बताती है । अपने आप से पूछती है, क्या ऐसा करने से, उसकी सोच थोड़ी विकृत हो गई थी? वो ऐसे दौर से गुज़री जब उसके अपने मन में भी औरतों के खिलाफ़ नफ़रत और घृणा पैदा हो गई ।
लेख - नयना
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