मेरे देश में लॉकडाउन हुए काफी दिन बीत चुके हैं, और मेरे किसी को छुए हुए कुछ और ज़्यादा दिन l
शुरुआत में तो ये दिलासा था कि हम अकेले नहीं हैं, ये आपदा पूरी दुनिया पे है। किसी तरह के FOMO (Fear Of Missing Out- ये घबराहट कि और सब कोई ऐसे मज़े ले रहे हैं जिसमें आप शामिल नहीं) की घबराहट की गुंजाइश नहीं थी। क्योंकि हर कोई ऑनलाइन था, कभी भी, किसी से भी, बात हो सकती थी। लेकिन जल्दी ही इतने सारे इंस्टाग्राम लाइव और ज़ूम (Zoom- ऑनलाइन मीटिंग सॉफ्टवेयर) कॉन्फ्रेंस होने लगे, जिनसे फिर लगने लगा कि अरे, कुछ ज़रूरी मिस तो नहीं कर दिया ? और इस सबके बीच, यानी महामारी के दौरान ही, मेरा एक्स लवर, फिर से नज़रों से ओझल होने लगा। बस कुछ दिन पहले ही तो हम दोनों ने एक दूसरे को छुआ था। पर अब देखभाल करने की बजाय वो महामारी के पहले से पनप रही अपनी बेपरवाही को हवा देते हुए, गायब ही हो गया।
"महामारी का पूरा फायदा उठाएं। आप कब से जो नॉवेल लिखना चाहते थे, लिख डालें। कोई नया म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट (उपकरण) सीखें। कोई नई भाषा सीखें!" मतलब कि इस महामारी में भी दुनिया ये चाहती है कि आप कुछ कर दिखाएं, अपनी योग्यता साबित करें। जैसे कि जिन लोगों ने आजतक कभी रसोई में पैर नहीं रखे थे, वे बड़े शौक़ीन शेफ/chef बन रहे थे। अपनी फैमिली रेसिपी सबके साथ शेयर कर रहे थे। कई और लोगों ने तो उन म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट को वापस उठा लिया, जिसे सालों पहले छोड़ चुके थे। महामारी ने उनको संगीतकार बना दिया। और यहां मैं! जहां थी, अब भी उसी जगह पे थी। ऐसा लग रहा था कि पूरी दुनिया आगे बढ़ रही थी, पर मैं एक मैं एक जगह पे जम गयी हूँ। अब भी बिस्तर से उठने और उस खोए हुए प्यार की यादों से लड़ने की हिम्मत जुटा रही थी।
शुरुआत के 35 दिन तो मैंने खुद से नफरत कर करके बिताए। खाना नहीं खाकर, उन चीजों से परहेज़ कर जो आमतौर पर मुझे दुख से लड़ने में मदद करते हैं। एक ऐसे प्यार के लिए रोने पर खुद को कोसकर, जिसके बदले प्यार ही ना मिला। खुद पे तरस भी खाया की इस महामारी में भी एक्स को मेरी तरफ देखने की फुर्सत नहीं मिली। 35 दिनों तक नफरत का खेल खेलते-खेलते मैं थक गई। अब मैं प्यार करना चाहती थी, और इस काम के लिए पूरे अपार्टमेंट में सिर्फ एक ही इंसान था- और वो थी खुद मैं!
तो मैंने वापस खाना खाने से शुरुआत की। और हां, रोज़ शॉवर भी लेने लगी। कुछ गाने सुने। कुछ मूवी डेट्स भी प्लान की। कुछ किताबों के वो हिस्से भी जोर-जोर से पढ़े जो मेरे फ़ेवरेट थे। मैंने खुद के नाचते, गाते और यहां तक कि कुछ भी बकवास बातें करते वीडियो भी बनाए। कई तो सोशल मीडिया पर डाले और कई बस मस्ती के लिए रखे। ये सब थोड़ा अजीब लग रहा था। क्योंकि भले ही मैंने पहले भी खाना बनाया है, साफ-सफाई की है, पर वो हमेशा दूसरों के लिए रहा है। अक्सर किसी रोमांटिक पार्टनर के लिए। हे भगवान, तो क्या मैं भी मैं भी वो ट्रेंडी चीज़ करने लगी थी जिसकी सब बात करते हैं! जब मेरी थेरेपिस्ट मुझे ये कहती थी कि हर तरह से अपने आप को अपनाओ, तो क्या उसका मतलब यही था?
दरअसल अकेलेपन के डर में बिताए पिछले 24 सालों में, मुझे कभी इतने लंबे समय तक अकेले रहने का मौका ही नहीं मिला। मैं कई बार ये सोच-सोच कर रोई हूँ कि मुझे वैसा प्यार नहीं मिला जैसा मैं चाहती थी। लेकिन सच मानो तो मुझे पता ही नहीं था कि मुझे आखिर चाहिए क्या था। ऊपरी बातों और जज़्बातों पे ज्यादा ध्यान देने की वजह से किसी के दो चार मीठे बोल भी मुझे प्यार जैसे लगते। और वहीं सामने वाला कुछ मन का कह दे, जो तारीफों से भरा न हो, तो बस लगता था कि कोई प्यार ही नहीं करता है। ये दूसरों के मन को भांपने का पूरा कार्यक्रम बहुत ही थकाऊ होता था। पर मेरे लिए ये जानना जरूरी होता था कि सामने वाले के मन में क्या चल रहा है, ताकि थोड़ी भी बहस या असहमति की गुंजाईश ना हो। क्योंकि मेरे लिए ऐसा कुछ होना मेरे पूरे अस्तित्व पर सवाल उठा देता था। किसी का प्यार मिलना मेरे लिए ऐसा होता था जैसे कि बच्चों की लंबी लाइन में से मुझे खास चुना गया हो, एक ऐसा खेल खेलने के लिए जिसके नियम मुझे पता ही नहीं। ये बस तब तक रोमांचक रहता है, जब तक कि आपको चुनने वाला आदमी खेल में इतना खो ना जाए कि खेल की असली वजह ही भूल जाये। खेल की वजह तो मस्ती होती है, न ? फिर ये सब क्या था ? फिर वो खेल बस स्कोर बनाने के बारे में हो जाता था। छोटी सी भूल पे बड़े भुगतान करने पड़ते । मस्ती की जगह वो खेल परेशानी का मैदान बन जाता । और ना जाने कैसे वो इंसान, जिसने मुझको चुना था, खुद मैदान के बाहर खड़ा होकर, या बेंच पे बैठकर, हर छोटी-बड़ी गलती पे चिल्लाता रहता , मुझको खेल बिगाड़ने की वज़ह बना देता है। बस! और घबराहट, और परेशानी!
पिछले कुछ दिनों में मैंने खुद से प्यार करने के कुछ तरीके सीखे हैं। मैं ये तो नहीं कहूंगी की खुद की देखभाल करने और खुद से प्यार करने में मैंने महारथ हासिल कर लिया है, पर हाँ, इस लॉकडाउन के दौरान खुद से दोस्ती जरूर कर ली है। बरसों से मैं दूसरों की नज़रों में अच्छी बनने की कोशिश में लगी रही हूँ, उनके द्वारा अपनाये जाने की चाहत लिए । लेकिन अब, अकेलेपन में, मुझे खुद ही खुद को अपनाना पड़ा है।
खुद की देखभाल या खुद को प्यार करने का मतलब ये नहीं है कि हममें दूसरों का प्यार पाने की चाह नहीं रहेगी। अरे! टीम में खेलने के लिए चुने जाने का उत्साह ही अलग है। खुद को प्यार करके आप अपने को हर दुख या दर्द से बचा भी नहीं पाएंगे। पर हाँ, एक बार जब हम खुद को अपना लेते हैं तो अपने प्रतिद्वंदी होने के बजाय अपने चीयरलीडर बनने लगते हैं । खुद के साथ रहते-रहते मैंने अपने आप को इतना मजबूत तो बना लिया है कि लगता है कि अब खेल में मज़ा आने लगेगा।
मैथिली सागरा को हर चीज़ लगातार चाहिए, फिर चाहे वो खाने की चीज़ हो, फिल्में हो, कोई सीरीज़ हो या कार्टून। (खासकर कार्टून)। उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वो प्यार को डिकोड (decode) जरूर कर पाएंगी और फिर उसकी ज़बरदस्त गाइड बन जाएंगी। हालांकि उनके ज़्यादातर दिन मीठी झपकियों में बीतते हैं।
लॉकडाऊन में खुद से प्यार, और अन्य अजीब ओ गरीब चीज़ें
क्या लोकदौन का अकेलापन ज़िन्दगी में नया प्यार ला सकता है ?
लेखन : मैथिली सागरा
चित्र: देबस्मिता दस
अनुवादक: नेहा
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