‘इसलिए नहीं कि मैं ख़ास समझदार हूँ, पर इसलिए क्यूंकि मैं परवाह करती हूँ’: सुनीति नामजोशी संग इंटरव्यू
Poet, fabulist, lesbian - She tells AOI about her journey as a writer, lover & person!
सुनीति नामजोशी की 1941 की पैदाइश है । इन्होने कुछ समय IAS में सर्विस की और 1981 में अपनी पहली किताब लिखी - फेमिनिस्ट फेबल्स (Feminist Fables)। ये गद्य लिख चुकी हैं, दंतकथाएं भी, ये कवि हैं, समलैंगिक हैं, नारीवादी हैं और भारत से आनी वाली सबसे चमचमाती, मज़ेदार, ज़िंदगी से बहुत प्रेम करने वाली और समझदार आवाज़ों में एक हैं। अगर आप उनकी कोई किताब पढ़ें- वो चाहे कन्वर्सेशन विथ काऊ (Conversations with Cow) हो, या फिर द ब्लू डोंकी फेबल्स (The Blue Donkey Fables), मदर्स ऑफ़ मयदीप (The Mothers of Maya Diip), गोजा: ऐन ऑटोबायोग्राफिकल मिथ (Goja: An Autobiographical Myth) , या फिर सेंट सुनीति एंड द ड्रैगन (Saint Suniti and the Dragon), या कोई और, आप ज़ोर ज़ोर से हँसेंगे । आप एकाएक जोर से कह पड़ेंगे 'बिलकुल सही कहा !', भला आसपास सुनने वाला कोई न हो।
अगर आप किसी ग्रुप या संसथान से कभी जुड़े हो, तो आप इनके लिखे में ऐसे किरदारओं को पाएंगे जो 'बोर मत कर यार' टाइप की,शेखी बघारने की आदत से पहचाने जाएंगे । या अपनी लकीर के फ़कीर किस्म की आदत से एक दम से पहचान में आ जाएंगे । आपकी हंसी में थोड़ी राहत की फीलिंग होगी , साथ साथ उस हंसी में प्यार भी होगा। किसी को नीचा नहीं दिखाया जाएगा, और आपके किसी पोलिटिकल सिद्धांत के साथ गद्दारी भी नहीं होगी। इन करारी कथाओं, ज़िंदादिल कविताओं और करारे वाक्यों में नज़दीकिया हैं, तो कभी दूरियां। जैसे आँख मिचौली का एक मज़ेदार खेल चल रहा हो।
उनका काम बहुत आनंद देता है, और इसलिए भी ये गहन रूप से पोलिटिकल है। को ले कर, किसी भी किस्म की रूढ़ीवाद सोच इन पन्नों पर नहीं भटकती ।ये काम हिंदुस्तानी बनने की कोशिश नहीं करता, पर हिंदुस्तानी है, क्यूंकि इसके पन्नों में वह पहचाना हुआ, करारा सा व्यंग है जो भारत की कितनी ही भाषाओं का हिस्सा रहा है।
सबके साथ न्याय, आज़ादी , इन बातों का सच्चा मतलब क्या है ? सुनीति ये सवाल करती हैं, एक शैतानी के साथ, या व्यंग से । कहानियों में जानवरों के, या अनोखी लेडीज़ पात्रों के साथ, खूबसूरत वाक्यों के संग । उनकी लेखनी के छोटे छोटे नमूनों को लेकर ,जुबां बुक्स ने एक ख़ास, रसीली रचना छापी है, द फैबुलस फेमिनिस्ट : अ सुनीति नामजोशी रीडर (The Fabulous Feminist: A Suniti Namjoshi Reader)। तो इसको अपने हाथ में लें और कुछ लज़ीज़ पकवानो का जश्न मनाएं।
सुनीति ने एजेंट्स ऑफ़ इश्क़ से बात करते समय अपने निर्णयों के बारे में बातचीत की... मसलन, कि वो दंतकथाओं के रूप में लिखने का चुनाव क्यों करती हैं। उनका लेस्बियन होना, उनकी ज़िंदगी और काम के लिए क्या मायने रखता है, और एक राइटर के रूप में, एक प्रेमी के रूप में, एक इंसान के रूप में उनका सफर कैसा रहा है ।
हाँ, बिलकुल !हमने उनसे ये भी पूछा कि, "प्यार क्या होता है "
और उन्होंने जवाब भी दिया, तो ...आगे पढ़िए !
द ब्लू डोंकी फेबल्स (The Blue Donkey Fables)और द कंवरसेसशन्स ऑफ़ काऊ (The Conversations of Cow) -इन दोनों किताबों में, सटीक लिखाई और अनोखे, हंसने हंसाने के अंदाज़ की, एक ज़बरदस्त जुगलबंदी है । पढ़ते हुए यूं लगता है जैसे बड़े आराम से बड़ी सारी बातें कह दीं गयी हैं। आप अपने पाठक को इस सब के ज़रिये कैसा एक्सपीरियंस देना चाह रही हैं?
अपनी लिखाई के बारे में ये सब सुनकर मैं बेहद खुश हूँ- जैसे कोई भी लेखक होगा! लिखने का मतलब है- कड़ी मेहनत । प्रेरणा या गुड लक टाइप की बातें कुल मिला के इस काम के बस 10% होंगे । लेकिन ये भी बहुत ज़रूरी हैं ।मैं चाहती हूँ कि मेरी लिखाई साफ़ हो, जिससे उसमें दम आये । और सारे पहलू इस तरह से जुगलबंदी करें, कि
पढ़ने वाले में एक खुशी पैदा हो।
ऑनलाइन सर्च में जब हम आपका नाम ढूंढते हैं, तो आपका ज़िक्र अक्सर एक लेस्बियन/समलैंगिक लेखिका के रूप में होता है । आपको क्या लगता है, ये हुलिया आपके फिट बैठता है?
हाँ, मैंने जान के ये दिशा पकड़ी । मुझे लगा था कि ये सामने से ही पड़ेगा कि मैं समलैंगिक हूँ, ताकि लोग ये समझ सकें कि मैं और अन्य समलैंगिक लोग इंसान होते हैं, किसी और प्रजाति के नहीं.. दो आँख, एक नाक वाले इंसान !
सामान्य रूप से लोग पहचान, सेक्सुअलिटी, और ग्रुप डायनामिक्स पर बात करने के लिए यथार्थवाद का इस्तेमाल करते हैं। पर आप आत्मकथा, अफ़साने, कविता को इस्तेमाल में लाती हैं। आपको अपना काम पोलिटिकल लगता है? अगर आपको इसकी पॉलिटिक्स की बात करनी हो, तो कैसे करेंगी ?
मैंने ये ढाँचे जान बूझ कर नहीं चुने हैं। मेरा मिजाज कुछ ऐसा है कि यही चाहती हूँ कि कुछ अच्छा लिख डालूं, कविता या कहानी और फिर लिखी हुई किताब के पीछे, अपना मुंह छिपा लूं। मैं समलैंगिक नारीवाद की पॉलिटिक्स में नहीं उलझना चाहती थी। मैंने ऐसा तब करना चालू किया जब मुझे ये समझ में आया कि ऐसे लोग हैं, जो मेरी आज़ादियों के लिए इन पॉलिटिक्स से उलझ रहे हैं। ये मैंने खासकर अपनी दोस्त और एक्स पार्टनर, क्रिस्टीन डॉनल्ड, जो हिलेरी क्लैर के नाम से भी जानी जाती है, को देखकर समझा।
अब ऐसे में हाथ पे हाथ धरे बैठे रहना गलत होता। मुझे ये भी समझ में आया कि पॉलिटिक्स और नीतिशास्त्र - एथिक्स(ethics) - एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मेरी खुशकिस्मती है कि दंतकथा का ढांचा, जिसे मैं सरलता से अपना पाती हूँ, अक्सर एक किस्म की सीख देने का ज़रिया रहा है। मैं चाहती हूँ कि मेरे काम के ज़रिये, लोग सोचें, खुद सोचने की आदत डालें। मैं उन्हें ये नहीं सिखाना चाहती कि क्या सोचना चाहिए।
आपकी किताब, द मदर्स ऑफ़ मायादीप त्राही त्राही में डूबे, सत्तावादी सरकार से परेशान एक समाज की कल्पना करती है। सोचने की बात ये है, कि इस समाज में एक स्त्री प्रधान शासन है ! ऐसे लगता है, जैसे ये किताब किसी भी ‘आदर्श राज्य’ पे सवाल उठा रही है- आदर्शवाद की खोज या कल्पना को नकार नहीं रही, पर सवाल ज़रूर उठा रही है। ये किताब और उसको लिखने का तरीका, इनकी शुरुआत किन कारणों से हुई ?
जब हम अत्याचार के खिलाफ लड़ते हैं तो हमें लगने लगता है कि हम हर तरह से सही हैं। पर हम बस उस एक मायने में सही होते हैं, उस लड़ाई लड़ने तक सीमित। औरत होने के नाते, इंसान होने के नाते, हमको अपने आप से भी सवाल करने होंगे । मैं ऐसे समाज की कल्पना करना चाहती थी, जिसमें औरतों का राज हो । और फिर ये दिखाना चाहती थी कि हम लोग- यानी औरतें - भी करप्शन के प्रभाव में आ सकते हैं ।
मैं ये भी दिखाना चाहती थी, कि हर समाज में, अक्सर लोगों के बीच के रिश्ते, समाज की किसी अजीबो गरीब,पर मानी हुई रीत पर निर्भर होते हैं ।
द कंवरसेसशन्स ऑफ़ काऊ को यूं भी पढ़ा जा सकता है कि ये एक रिश्तों की दास्ताँ है । आप अपनी सेक्सुअलिटी की सच्चाई दूसरों के सामने रख रही हैं, बल्कि पढ़ने से यूं लगता है कि अपने आप से भी ज़ाहिर कर रही हैं। आपको कभी इन तजुर्बों को सीधे सादे तरीके से बतलाने का मन क्यों नहीं किया?
नहीं, मैं इसके ज़रिये अपनी सेक्सुअलिटी का सच बताने की कोशिश नहीं कर रही थी । मैं उन दिनों कनाडा के नारीवाद, बाद में ब्रिटैन के नारीवादी आंदोलन का हिस्सा रही ।मैं चाहती थी कि उस आंदोलन को नकारे बिना, उससे सवाल कर पाऊं ।पार्टी ने जो निर्णय लिया, क्या उसपर और सवाल नहीं होने चाहिए?
इसलिए मैंने सोचा अपने पात्र को अपना ही नाम दूंगी। सुनीति हर वक्त किसी मुश्किल में फंसी रहती है, वो जेंडर को लेकर लोगों के घिसे पिटे नज़रिये से परेशान हो जाती है । कभी अपनी पहचान को लेकर परेशान रहती है और कभी अपने ही पके पकाये विचारों की वजह से ।
द फैबुलस फेमिनिस्ट (जुबां , २०१२) में मैंने अपने तजुर्बों के बारे में काफी सीधे सीधे लिखा है। इस किताब में अलग अलग सेक्शन हैं, हर सेक्शन का इंट्रोडक्शन है - वहां मैंने अपने बारे में साफ़ लिखा है । उस किताब में मेरे बहुत सारी किताबों के अंश छपे हैं और हर अंश के साथ उसके सन्दर्भ के बारे में भी लिखा गया है ।कि मैंने किन कारणों से, किन परिस्तिथियों को देखते हुए, वो किताब लिखी । देखा जाए तो गोजा दंतकथा के रूप में एक आत्म कथा है। आप बीती को सीधे सीधे लिख डालने का मतलब ये नहीं है कि आप अपने तजुर्बे का सबसे सच्चा वर्णन कर रहे हैं । हाँ , मैं ये मानती हूँ कि यथार्थवाद बहुत प्रभावशाली हो सकता है । ये भी लिखने का एक ढांचा है । मैं अपने काम में जब जो करना चाहती हूँ, उस हिसाब से ढांचा चुनती हूँ । मुझ में भी तो उस ढाँचे को इस्तेमाल करने की कुशलता होनी चाहिए, है न ।
आपकी किताबों में अक्सर सुनीति नाम की एक करैक्टर होती है। वो हर किताब में एक सी नहीं होती पर हाँ, उसकी पर्सनालिटी की कुछ बातें हर जगह कायम रहती हैं। एकदम सिंसियर (sincere), निष्ठावान, और अक्सर आस पास घटती बातों पे झेंप जाने वाली - वो पुरानी फिल्मों में अक्सर ऐसा एक भोंदू नहीं होता थाजो हमेशा झेंपता था- तो वैसे ही ..तो ये सुनीति यूं क्यों बनाई गयी है ?
मैंने अलग अलग किताबों में 'सुनीति' का अलग अलग इस्तेमाल किया है।द कंवरसेसशन्स ऑफ़ काऊ में मैंने इसके ज़रिये एक नेक, लेकिन थोड़ी कट्टरवादी, लेस्बियन फेमिनिस्ट के बारे में कोमलता के साथ व्यंग किया है । सुनीति- इस नाम के ज़रिये, मैं भारत के सन्दर्भ को भी, बड़ी सरलता से किताब में ले आती हूँ । नहीं तो सन्दर्भ समझाते समझाते, कहानी ही किसी दलदल में फंसने लगती है। सेंट सुनीति एंड द ड्रैगन में, इस नाम के इस्तेमाल से, मैं अपनी पात्र के अच्छे होने की कोशिश के तीन पहलू दिखा पाती हूँ - उसके अपने मन में कोशिश, शब्दों की दुनिया में और बाहरी दुनिया में भी ।
आपकी पीढ़ी में, बहुत कम लोग अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में, खासकर समलैंगिकता के बारे में, खुलकर बात कर पाते थे। समाज में बहुत कम लोग पब्लिक में ये कह पाते थे कि वो क्वीयर या लेस्बियन हैं। आपने ये सफर कैसे तय किया? आपकी लिखाई ने इस सफर में आपका कैसे साथ दिया ? समलैंगिक औरत की आपकी पहचान पर अलग अलग सामाजिक प्रतिक्रियाओं का आप पर क्या असर रहा?
ये मुश्किल सफर था । बहुत दर्द भी था इसमें । विलायत जाने के कुछ समय पहले ही मैंने अपनी माँ से अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में साफ़ साफ़ बात की । मैं कुछ २५/२६ साल की थी ।उसका जवाब ? वो जवाब शेयर करने लायक नहीं । जो मर गया, वो अपनी सफाई भी नहीं दे सकता । पर उसका जवाब बहुत कठोर था । लेकिन अपनी सच्चाई छिपाने से भी तो हानि होती है, बहुत हानि । शायद एड्रिएन रिच कहीं पे ये कहती है कि जिसका ज़िक्र नहीं करोगे, वो बात अमान्य बन जाएगी। सबको फिर यूं लगने लगता है कि छिपा रहे हो, तो ज़रूर वो कोई शर्मनाक बात है।
ये किसी भी इंसान के लिए बहुत बुरा है, लेखक के लिए तो गवारा नहीं । क्यूंकि फिर उसे एक बनावटी आवाज़ में लिखना पड़ता है। धीरे धीरे उसकी अपनी आवाज़ का दम घुटने लगता है, उस में दम नहीं रहता ।
मैं वैसे भी विलायत जाकर अंग्रेज़ी पढ़ना चाहती थी। पर ये भी सच है कि इंडिया में एक समलैंगिक औरत की पहचान लेकर खुले आम जीना असंभव था .. तो एक तरह से मुझे प्रवासी बनना पड़ा ।
वो चोट- या वो गुस्सा भी- आपकी लिखे में शायद नहीं दिखता । जब हमारे बहुत करीब का कोई हमें अस्वीकार कर देता है और हमें चोट पहुंचाता है, तो फिर उस रिश्ते का क्या होता है ? क्या उस रिश्ते को जोड़ने की संभावना रहती है ? उसमें प्यार की कोई गुंजाइश बचती है ?
तकरीबन हर एक की ज़िंदगी में कोई एक ऐसा होता है जो उसे प्यार देता है। जिसके प्यार से हम प्यार करना सीखते हैं। इससे हमारे घाव भी भरने लगते हैं। गोजा में मैंने इसके बारे में कुछ लिखा है। समय के साथ भी तो घाव भरने लगते हैं। हम ये समझने लगते हैं कि हमें दुत्कारने वाले का अक्सर अपना, गहरा घाव है ।
हमारी सेक्सुअल ज़िंदगी - पहचान के मामले में, और एक स्वतन्त्र इंडिविजुअल होने के नाते - हमारे आने वालों दिनों पर क्या असर करती है? हम ज़िंदगी में जिन बातों को अहम् समझते हैं, कला, रिश्ते, ये उन सब पर क्या असर करती है ?
मुझे यूं लगता है- ये मेरी आशा है- कि समलैंगिक औरत होने की वजह से जब आप सताये जाते हो, तो इससे, जब और लोगों को बेबुनियाद सताया जाता है, जब उनका उत्पीड़न होता है- कभी जाती या रंग सा सामाजिक तबके की वजह से- आपको थोड़ा थोड़ा समझ में आने लगता है । ये समझ में आने लगता है कि उन्हें कैसा लगता होगा। इस वजह से मैं और पोलिटिकल हो गयी और मेरा मन कहने लगा कि इन अत्याचारों पर आवाज़ उठाओ।
लेस्बियन/ समलैंगिक औरत के नज़रिये नाम की कोई चीज़ अगर दुनिया में है, तो मुझे लगता है कि वो वर्जिनिया वूल्फ के इन शब्दों में निहित है कि 'क्लोई को ओलिविआ पसंद थी " । पितृसत्ता समाज में हालांकि हमें तुच्छ समझा जाता है, पर ये नज़रिया औरतों को पसंद करता है, उनको मानता है । यानी सामाजिक व्यवस्था की ऊंच नीच पर सवाल उठाता है। ये नज़रिया चाहता है कि हम सब लोगों को बराबरी दें ।
एक लेस्बियन नारीवादी होने से मुझे ये समझ में आया कि ऐसी कला कृतियाँ भी हैं, जो हैं तो गज़ब, पर उनमें या औरतों या किसी जाती के प्रति भेद भाव है। ये सोच उन कृतियों की शोभा कम करती है ।
आप झुण्ड और ग्रुप पर मज़े से अठखेलियां करती हैं, लेकिन आप समुदाय को नकारती नहीं हैं। आपको आज की तारीख में एक जवान क्वीयर औरत के लिए आंदोलन कितना अहम् लगता है? साथ साथ उसकी क्या लिमिटेशंस लगती हैं ?
किसी ग्रुप को लेकर कभी हां, कभी ना, वाली ये फीलिंग, पता नहीं क्यों आती है। शायद कलाकारों की फितरत ही ऐसे होती है। हम समय में यूं रहते हैं, जैसे एक बहाव में। साथ में ये भी सच है कि किन्हीं बातों को हमेशा के लिए मान्य समझना अपने आपको उन बातों में बाँध लेने के जैसे है। आन्दोलनों में ये प्रॉब्लम है कि कोई भी आंदोलन अक्सर ये नियमित करने लगता है कि आपको क्या और कैसे सोचना है। शायद कारगर संगठन होने के लिए ये ज़रूरी भी है। और ये सच है कि आंदोलन अकेले इंसान को बहुत सहारा भी देते हैं, जिनसे वो अपनी ज़िंदगी की अन्य रूढ़ीवादी तत्वों का सामना कर सके।
आंदोलन जब अपनी सोच को पूजनीय समझने लगता है, लोग एकदम लकीर के फ़कीर होने लगते हैं, अपनी सोच को सबसे बेहतर समझने लगते हैं… आप अपनी लिखाई में उनकी इस आदत पे व्यंग करती हैं.. वो पूजनीय भाव भला नारीवाद से जुड़ा हो, सेक्सुअल पहचान से या फिर संबंधों से । ये जो लोगों में साधू संत बनने की या सेलिब्रिटी बनने की तमन्ना होती है, आपने उस का भी मज़ाक उड़ाया है (द ब्लू डोंकी फेबल्स ) ।द मदर्स ऑफ़ मायादीप में तो आप पढ़ने वाले के सामने ये बात, परत दर परत खोलती हैं ।एक पॉइंट पर ब्लू डॉनकी (नीला गधा , जो किताब का किरदार है ) साफ़ साफ़ कहता है "मधु, तुम एक ऐंठ , एक दिखावे में फँस रही हो ।ये कितना खतरनाक हो सकता है, तुम्हें समझ नहीं आता क्या ?" ।आपकी ये सोच आपके सारे लेखन पर एक रोशनी सी है - ये आपके लिए इतनी ज़रूरी क्यों है ?
बेझिझक बोल दूँ तो - मुझे लगता है इस किस्म की ऐंठ, ये दिखावटी पोलिटिकल पोजीशन, झूठ के बराबर है।तुम कहोगे कि कविता, अफ़साने भी झूठ ही तो बोलते हैं। हाँ, पर वो किसी बात को और साफ़ कह पाने के लिए झूठ कहते हैं ।जो कवी होते हैं, वो रूपक और उपमाओं से घबराते नहीं। बल्कि भाषा की उपमा का तो वो नाश्ता बना देते हैं। मानव जाती को चिन्हों से लगाव है। ये हमारी आदत है, हम हर बात से मतलब जोड़ते हैं । खाना, सोना,पीना, सम्भोग करना - हमें पता ही नहीं चलता कैसे हम जो भी कर रहे हैं, साथ साथ उससे दूसरे मतलब जोड़े जा रहे हैं । फिर हम कंफ्यूज हो जाते हैं और समझ भी नहीं पाते कि हम क्यों झगड़ रहे हैं या हम वाकई में क्या करना चाह रहे है, हमारी इच्छाएं क्या हैं ।
आपका काम क्वीयर यूं कहलाता है कि इसको किसी एक केटेगरी में नहीं बाँध सकते। इसमें रूप और आकार है, पर ये इमोशनल भी है ।ये पोलिटिकल है लेकिन किसी किस्म की रूढ़ीवाद या सीमित सोच से दूर भागता है । बनी बनायी सोच पर नहीं खड़ा है। आपको क्या लगता है, एक्टिविस्ट लोगों को आपके काम से जूझना पड़ता होगा ? आप उन्हें एक किस्म की चुनौती दे रही हैं? अगर हाँ, तो क्यों दे रही हैं? इस चुनौती देने में आपकी रूची है?
अब अगर मुझे कोई कहने पर मजबूर कर दे, तो मुझे ये इकरार करना होगा कि मुझे अच्छे ऐलाननामा /मैनिफेस्टो लिखने से ज़्यादा, अच्छी कविता लिखने में इंटरेस्ट है।मुझे सही राय रखने मेंy उतनी रुचि नहीं, जितना एक ज़बरदस्त अफ़साना लिख पाने में है। पर इनको साथ कर पाना, मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है ।किसी बढ़िया चीज़ को कहने और उस चीज़ को खूबसूरती से कहने में कोई अनबन नहीं होनी चाहिए। इन बातों की संगती हो सकती है। कविता एक पैटर्न की गति को पकड़ती है। ये कोई स्थिर चीज़ नहीं है। कविता हर चीज़ का- स्वर, गति, बल्कि मतलब तक का - पैटर्न बनाती है। ये जो आर्टिस्ट किस्म की आदतें हैं- किसी भी चीज़ को स्थिर न समझना, गति, प्रवाह में ज़्यादा रुचि रखना, ऐसी बातों को ख़ास पसंद न करना जिनकी व्याख्या करना आसान हो... अब अगर कोई एक्टिविस्ट पोलिटिकल रूप से निश्चित रहना चाहे, तो उसे इन सब आदतों से झुंझलाहट तो होगी ही।
आपकी किताबों में गद्य और कविता एक दूसरे के साथ आँख मिचौली खेलते हैं। यूं तो आपकी लिखाई बहुत सटीक होती है, कम शब्दों में अपनी बात कहती है, लेकिन कविता के आते ही छायावाद छलकने लगता है, दर्द का भी आभास होता है - थोड़ा ऐसे, जैसे पुराने हिंदी गानों में होता था। कविता इतनी ज़रूरी क्यों है ? आपके हिसाब से कविता और सच, इन दोनों का क्या रिश्ता है?
हम सोचने के लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं। जैसे भाषा एक तितली पकड़ने वाली जाल हो , जिसे हम सृष्टि की ओर दे फेंकते हैं, कि उसमें पकड़कर हम दुनिया भर के पैटर्न देख पाएंगे।और कविता हमेशा भाषा के दायरों से आगे जाने की कोशिश करती रहती है। ये उसकी कोशिश होती है, उन चीज़ों को बयान करने की कोशिश, जिनका बयान नामुमकिन है।
भारत में कई लेस्बियन/समलैंगिक स्त्रियों ये शब्द - लेस्बियन - इस्तेमाल नहीं करना चाहतीं। कुछ औरतें डाइक शब्द पसंद करती हैं, कुछ थोड़ी बहुत क्वीयर शब्द अपना लेती हैं, पर कौन सा शब्द इस्तेमाल होना चाहिए, इसका किसी के पास कोई सहज जवाब नहीं। समुदाय को नाम देने वाले शब्द को लेकर ये असजहता समलैंगिक यानी गे आदमियों में नहीं दिखती। ये फर्क क्यों है ?
मैं इस असहजता को समझ सकती हूँ। सालों साल इन शब्दों का इस्तेमाल लोगों को नीचे दिखाने के लिए किया गया- ज़्यादा से ज़्यादा ये एक मेडिकल टर्म बन गया। बेचारी सैफो और उसका वो लेस्बोस का द्वीप।उस द्वीप के नाम से ये शब्द, 'लेस्बियन' जन्मा। काश ये शब्द हमें किसी समुदाय की नहीं, सफ़्फ़ो की कविताओं की याद दिलाता। 'डाइक' शब्द भी तो एक 'अश्लील ' शब्द है जो हमारे खिलाफ रचे घटिया चुटकुलों में से उभरा है । हम सबकी कोशिश रही है कि इस शब्द को अपने हिसाब से, अलग पहचान और अलग मायने दे सकें । मैंने फेमिनिस्ट फेबल्स में एक दो जगह ये कोशिश भी की है।ये मेरी पार्टनर गिल्लिअन हंसकोम्ब की एक कविता है, ये दर्शाती है कि पितृसत्ता समाज में कितना द्वेष होता है, और उसका क्या असर होता है ।
डाईक्स पर किसी को गर्व नहीं, (न परिवार न पड़ोसी
न दोस्तों न सहकर्मियों न बॉस न
टीचर न उपदेशक न यूनिवर्सिटी न लिटरेचर
न समाज न किसी देश न किसी शासक न
कृपालु न पुजारी न चिकित्सक न
वकील को ) ।बस और डाईक्स , डाईक्स पर फक्र करती हैं ।
लोग कहते हैं जिओ और जीने दो, हम ऐसा क्यों करें ?
सिबिल से : द ग्लाइड ऑफ़ हर टंग (Spinifex, 1992)
शायद हमें अपने आप को हार कर गे ही कह कह लेना चाहिए, पर उसे अपनाने से यूं लगेगा कि हम थक हार गए और उस ही को मान गए- ऐसा क्यों करें ? क्वीयर कह सकते हैं, पर उस शब्द का भी तो ख़ास मतलब होता है, न?
फेमिनिस्ट फेबल्स आपकी सबसे जानी मानी किताब है.. आपको इस किताब की ख़ास सफलता के बारे में क्या लगता है ?
पता नहीं। हां, इस किताब में कुछ दंतकथाएं हैं जिन्हें मैं अपना बेहतरीन काम मानती हूँ। पर मैं ये भी चाहती हूँ कि लोग मेरे बाद का काम भी पढ़ें। सुकि - अगर आपको बिल्लियां पसंद हैं- और ध्यान पसंद है । फोक्सी एसोप (Foxy Aesop),अगर आपको दंतकथाएं पसंद हैं । गोजा अगर आप भारत में विपरीतता, हर किस्म की और इतनी ज़्यादा आपसी दूरियां - के बारे में सोचना चाहते हैं ।
आज की बात करें तो, भारत के क्वीयर समुदाय के कुछ लोग चाहते हैं कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिले। कुछ औरों को लगता है कि क्वीयर और फेमिनिस्ट कोशिश तो ये रही है, कि हम रिश्तों के पुराने दायरों को छोड़ कर, नए नज़रिये से देख पाएं - फिर यूं शादी की इजाज़त मांगना सही होगा क्या? आपकी अपनी किताबों में आप शादी और माँ बनने को थोड़ी शक्की नज़र से देखती हैं ।तो आपको इस बारे में क्या लगता है ?
मेरी शक्की नज़र पितृसत्ता समाज के तरीकों पे है ।पितृसत्ता समाज शादी के दायरे में औरत को जो रोल देती है, उसपे । ये बदला भी तो जा सकता है । रोज़ मर्रा के जीवन में, व्यावहारिक मामलों में, शादी आपको कानूनन फायदे भी दे सकती है, जैसे कि टैक्स और प्रॉपर्टी के मामलों में। मुझे किसी के माँ बनने से कोई संशय नहीं ।पर मुझे लगता है कि हमें साफ़ साफ़ समझना चाहिए कि इसमें कितनी मेहनत मशक्कत लगती है, ये कितनी ज़िम्मेदारी का काम है । हम औरत होने के नाते अपने आप के लिए किस तरह ज़िम्मेदार रहते हैं, बच्चों को लेकर सब लोगों की कितनी ज़िम्मेदारी है - ये सब वाकई बहुत ज़रूरी बातें हैं।
आप प्यार किसे कहती हैं ? इस प्यार को अपनी ज़िंदगी में, बल्कि दुनिया भर में, कैसे और पनपने दिया जाए ?
प्यार हमें बचाये रखे है। इंसान की प्रजाति कई मायनों में बद्द्तर है। पर हम प्यार करने के भी काबिल हैं, अपने दोस्तों से, बच्चों से, फॅमिली और पार्टनर्स से प्यार करने के काबिल ।जब वो प्यार मस्ती और उल्लास से भरा होता है, तो सेक्स एक भाषा का रूप ले लेता है , दैव्य रूप, अग्नि सा, ऊर्जा सा ! और प्यार का जो कोमल, निर्मल रूप होता है, हमें दूसरों की ओर बढ़ने को प्रोत्साहित करता है, कभी कभार किसी अनजान की ओर भी - ये तो शायद वो चीज़ है जो सबसे अच्छी है ।
तो मेरे पास जो थोड़ी बहुत समझ है, मैं आपके सामने हाज़िर कर रही हूँ- इसलिए नहीं कि मैं ख़ास समझदार हूँ, पर इसलिए क्यूंकि मुझे परवाह है। तो ये लीजिये, मेरी परवाह की आवाज़, ये सलाह, जो शायद आपके काम आ जाए :
अगर अपने तरीके से ज़िन्दगी जीनी है, तो आमदानी का ज़रिया ढूंढो। कोई काम सीख लो, नौकरी ले लो, एक किस्म की आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ो।
अपने समलैंगिक होने का सच दुनिया के सामने तब तक मत रखो जब तक तुम एकदम मज़बूत न हो, जब तक तुममें सच के नतीजे को झेल पाने की क्षमता न हो।नहीं तो ये सच औरों के हाथ में एक हथियार बन जाएगा, और वो जब चाहेंगे उसे उठाकर तुम पर वार करके - तुमसे तुम्हारी नौकरी या प्रोपरटी या सामजिक पोजीशन छीन सकते हैं।
अगर सेक्सुअल रुझान के आधार पर भेद भाव का विरोध करना है, तो अपने विपरीतलिंगी दोस्तों को ये काम करने दो। उनके लिए ये करना, ज़्यादा सेफ है ।
अगर तुम शोषित किये गए हो, तो इसमें कोई शर्म की बात नहीं। शोषण करना शर्मनाक और भयानक बात है। अपने आप में कोई भी सेक्सुअलिटी, नैतिक-या अनैतिक नहीं होती । किसी को जान कर चोट पहुंचाना , किसी से नफरत करना, किसी का क़त्ल करना , ये अनैतिक है।
तुम्हारी पहचान के आधार पर, इस बेबुनियाद वजह से, तुम्हें चोट पहुंचाई गयी है। अब अगर किसी और को बेबुनियाद वजह से - धर्म, जाती, तबके के आधार पे- चोट पहुंचाई जा रही है, तो उसका विरोध करो !
याद रखो प्यार ही असली क़ानून है । कई साल पहले जब मैं और मेरी पार्टनर, गिल, पहली बार मिले थे, हमने एक दूसरे के लिए कविताओं की एक श्रंखला रच डाली थी। मैं उनमें से एक कविता और उसका मैसेज, तुम सबके साथ शेयर करना चाहती हूँ :
सारे के सारे शब्द
सारे शब्द हवा में यूं उछले हैं जैसे
ऐलिस की कहानी के पत्ते, चिडयों से
मिलते, हटते, जुड़ते ,
गोते खाते, चढ़ते और हर शब्द
कहता, कि ये प्यार है। बिल्ली कहे ये प्यार है।
कहे," मैं हूँ और प्यार करती हूँ "। जंगल का
मृग छौना जिसका नाम खो गया, तुम्हारे हाथ
से खाता है।वो तुमसे कहता है "मेरा नाम प्यार है "।
उस कहानी के सफ़ेद सिपाही का खटर्-खटर् सामान, उसकी पुकारें
प्यार हैं। टाइगर लिली, गुलाब, बस ये ही कहते हैं कि
हम, हम हैं । और कि
वो, प्यार हैं । छोटे छोटे शब्द सारे
कहें कि वो प्यार हैं , उनके बीच की जगह, प्यार का जोड़
प्यार का तर्क। और मैं इस नशीले व्याकरण में कहीं आगे
न बढ़ पाती, कि अचानक
और यहां, तुम हो, मैं हूँ, और हम प्यार करते हैं ।
फ्लेशएंड पेपर से, 1986, फैबुलस फेमिनिस्ट में भी
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