अनुवाद - नेहा मिश्रा
जब अपने शरीर, लिंग और कामुकता को समझने की बात होती है, या प्यार, रोमांस और आनंद को जानने की, तो उस समय सब कुछ ईमानदारी और खुलेपन से देखना ज़रूरी हो जाता है। फिर चाहे वो सेक्स एजुकेशन को लोगों तक पहुँचाने की बात हो, या खुद को बेहतर जानने की। या बिना झिझक अपने अंतरंग अनुभवों को औरों से बांटने की। ज़रूरी ये है कि आप अपनी बात खुल कर,साफ़ साफ़, दूसरों को बता पाएं ।
एक तरफ तो भारतीय संविधान इस बात की पुष्टि करता है और सबको समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। साथ ही साथ बोलने की आज़ादी और सही जानकारी तक पहुंचने का भी अधिकार देता है। वहीं दूसरी तरफ कभी कभी यूं लगने लगता है कि खुद क़ानून इन्हीं अधिकारों के आड़े आता है| खासकर तब, जब वो ये तय करने लग जाता है कि हमें कितनी जानकारी मिलनी चाहिए l हमारे अपनी बात कहने पर भी वो बंदिशें लगाता है, खासकर जब हमारी कही बात को वो 'अश्लील' मानता है।
अब ‘अश्लील’ तो एक अस्पष्ट सा शब्द है जो काफी हद तक, हर एक की नैतिकता, अलग अलग सोच और निजी विचारों पर निर्भर है ।
चलिए कामुकता और सेक्सुअल अभिव्यक्ति को अनुशासित करने वाले क़ानूनों को गौर से देखते हैं। यहां हमें दो चीज़ें दिखाई देती हैं: एक तो सेक्स के नाम से ही बहुत परेशानी और मचलाहट l
दूसरी, ये मानना कि वयस्क लोग भी बच्चे समान हैं ( खासकर वयस्क औरतें, जिनके बारे में माना जाता है कि वो नादान हैं और उनकी इज़्ज़त को सुरक्षा की ज़रुरत है ) l यानी ये माना जाता है कि इस मामले में वयस्क लोग खुद अपने अच्छे बुरे का निर्णय नहीं कर पाएंगे । ये सोच हमें खदेड़कर उस कोलोनियल समय में ले जाती है जहां 'देशी' (native) लोगों के साथ पिछड़े बच्चों की तरह व्यवहार किया जाता था और उन्हें निगरानी में रखा जाता था। 1920 के दशक के अंत में, भारतीय सिनेमैटोग्राफ़ समिति ने भारत में फिल्मों की सेंसरशिप की आवश्यकता की जांच करते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसके शुरुआती पन्नों में ये कहा गया कि दुनिया के अन्य हिस्सों में सेंसरशिप की आवश्यकता शायद ना हो, लेकिन, "जहां तक भारत का संबंध है, तो यहां पब्लिक की राय उतनी व्यवस्थित या स्पष्ट नहीं है। इसलिए यहां से सेंसरशिप नहीं हटाना चाहिए।"
कानून के दायरे से बाहर, हमारी संस्कृति में, हम निडर और स्पष्टवादी होने की बात ज़रूर करते हैं, लेकिन साथ साथ स्पष्ट और अस्पष्ट तरीकों से, सेंसरशिप भी की जाती है। इसे सामाजिक मानकों और नीतियों के रूप में देखा जा सकता है (जैसे कि फेसबुक पर अगर कोई सेक्स की जानकारी सम्बन्धी आर्टिकल निकाले और उसे ब्लॉक कर दिया जाए) l यानी वही, खुलेपन का दावा और फिर जानकारी पर भी सेंसरशिप l
नीचे कुछ भारतीय कानून और पालिसी हैं जो निजी और कामुक जीवन की अभिव्यक्ति को सेंसर (नियंत्रित) करते हैं:
सिनेमैटोग्राफ अधिनियम/ The Cinematograph Act, 1952
सिनेमैटोग्राफ अधिनियम और इससे जुड़े नियम फिल्मों की सेंसरशिप से संबंधित हैं। ये सेंट्रल बोर्ड ऑफ फ़िल्म सर्टिफिकेशन (Central Board of Film Certification- CBFC) नाम की निकाय को अधिकार देता है कि वो फ़िल्म के किसी भाग को सेंसर करके उसे काट-छांट सकें। ये सेंसरशिप "शालीनता और नैतिकता" को बरकरार रखने, नियम कानून बनाये रखने और अपराध को रोकने के उद्देश्य से लागू किया जाता है।
ये अधिनियम अंग्रेज़ों की विरासत है। यानी ये हमें उपनिवेशकों (colonisers )के बरते हुए, पुराने रिवाजों के रूप में मिले हैं। इसका भी एक दिलचस्प इतिहास है। ये अधिनियम पहली बार 1918 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद लागू किया गया था। तब, जब ब्रिटिश, न्यूज़पेपर और फिल्म के माध्यम से आम जनता को मिल पाने वाली सूचना के प्रसार को रोकने की कोशिश कर रहे थे।
शुरुआत में नग्नता (nudity) पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन 1956 में, इसमें एक अपवाद (exception) बनाया गया। 'आदिम' (पिछड़े/primitive) लोगों के ऊपर बनी डाक्यूमेंट्री में नंगे स्तन दिखाए जा सकते थे। शायद इसलिए क्योंकि वहां उन्हें विषमताओं के रूप में देखा जा रहा था, ना कि यौन रूप में। जैसा कि स्वर्गीय फिल्म समीक्षक कोबीता सरकार मानती थीं, ये हमारी "एक और कोलोनियल(colonial/उपनिवेशीय) विरासत" है ।
कोबीता सरकार ने फिल्मों और सेंसरशिप के लेखन में, और 1960 और 70 के दशक में CBFC के सलाहकार पैनल में भी काम किया था l वो अपनी लेखनी में कहती हैं कि बोर्ड के लिए नैतिकता का मतलब सिर्फ यौन नैतिकता था। वो एक घटना का जिक्र करती हैं, जिसमें विदेशी फ़िल्म के अंदर दो किस के सीन थे। उसमें से एक सीन ये कहकर काटा गया कि 'ये बहुत ज्यादा है!' 'क्यों,' मैंने पूछा। क्योंकि मैं सही मायने में हैरान थी। 'एक किस सीन पर्याप्त है,' उस पहले सदस्य ने साफ-साफ कह दिया। और बोला- 'ये अश्लील है। लड़की खुद ही मज़े ले रही है!'
सरकार की लेखनी से साफ़ दिखता है कि "नैतिकता" कितनी व्यक्तिपरक (subjective-यानी हर व्यक्ति के अपने नज़रिये पर निर्भर) है, खासकर जब सेंसरशिप में पुरुषवादी रवैये को अपनाने की बात हो। जब एक मर्द को फिल्म में व्यभिचार (adultery- पार्टनर के साथ धोखा) करते दिखाया जाता था, तो उसे नजरअंदाज किया जाता था। लेकिन वहीं अगर औरत को ये करते दिखाया जाता, तो उसे या तो मरना पड़ता था या कोई न कोई सज़ा भुगतनी पड़ती थी। भले ही सेक्स दिखाने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन बलात्कार दिखाया जा सकता था। उन्होंने एक और विचित्र बात पर प्रकाश डाला: "सभी तरह की यौन गुहाओं को सही माना जाता था अगर वो पौराणिक परिधान (mythological garb) में लपेटे हुए हों।"
बेशक, समय के साथ "नैतिकता" के विचार बदल गए हैं। बॉलीवुड में जहां एक किस फूलों को फूलों से चिपकाकर दिखाया जाता था, वहां आज होठों पे किस करना या शादी से पहले सेक्स दिखाना, नार्मल बात है। हालांकि आज भी ये तर्क साफ नहीं है कि कुछ सीन को सेंसर की अनुमति क्यों मिलती है और कुछ को नहीं, (यहां पढ़िए कि पूर्व CFBC मुख्य पहलाज निहलानी के अनुसार उन्होंने किस के कुछ सीन 'बेफिक्रे' फ़िल्म में क्यों रहनेदिए, जबकि 'ऐ दिल है मुश्किल' से निकाल दिए)। भले ही चीजें 30 साल पहले की तुलना में अब बदल गयी हैं, फिर भी सेक्स की बात आती है तो अब भी दोहरे अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग ज्यादा किया जाता है। अभी भी कामुकता को फ़िल्मों में फ्रैंक और प्रौढ़ तरीके से नहीं दिखाया जाता है।
द इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, /The Information Technology Act 2000
ये अधिनियम व्यापक रूप से ऑनलाइन गतिविधियों से जुड़ा हुआ है । इसके कुछ पहलू चाइल्ड पोर्न यानी बच्चों के अश्लील वीडियो बनाने या उसे शेयर करने, और किसी व्यक्ति की अनुमति या जानकारी के बिना उनके प्राइवेट पार्ट्स के फोटो खींचने या उसे ऑनलाइन शेयर करने जैसे अपराधों पर अंकुश लगाने से संबंधित हैं। परेशानी ये है कि अक्सर यूं लगता है कि यही अधिनियम मर्ज़ी लेकर शेयर की गयी सेक्स को लेकर अभिव्यक्तियों, सूचना और विचारों को भी क्रिमिनल बतलाता है।
इस अधिनियम की धारा 67 के अनुसार, "अश्लील" बातें या यौन कृत्यों से संबंधित फ़ोटो को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से प्रकाशित करना, एक अपराध है। इसमें वैसी हर गतिविधि शामिल है जो "कामोत्तेजक" हो या जो "वासना की रूचि जगाती" हो। यानि कि, ऐसा कुछ भी जिसका समबन्ध कामुकता से हो - या जिसके प्रभाव से लोगों के चरित्र के 'दूषित और भ्रष्ट" हो जाने की सम्भावना हो। और इसी कारण से सेक्स और कामुकता से समबन्धित जितनी भी चीज़ें ऑनलाइन मौजूद है, उन सब चीज़ों का (जैसे कि, कामुकता से भरी कहानियों से लेकर सहमति से भेजी-पाई गयी सेक्सी सेल्फी तक) इस धारा के अन्तर्गत आने की सभावना बन जाती है।
और जैसा कि फिल्म निर्माता और कार्यकर्ता बिशाखा दत्ता बताती हैं, किसी वीडियो को अश्लील बताकर एक तरह से अश्लीलता के अपराध को ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है और औरत की नामंजूरी को कम l उदाहरण के तौर पर अगर एक बलात्कार के वीडियो को अश्लील घोषित किया जाता है तो क़ानून एक महिला की सहमति के उल्लंघन पर ध्यान नहीं डाल रहा l ये गलत है। आई.टी. एक्ट या अधिनियम एक औरत के खुद को लेकर फैसले कर पाना, या अपनी मंज़ूरी या नामंजूरी दे पाने को नज़रअंदाज़ कर देता है। वो ये नहीं देखता कि बलात्कार से औरत का वो हक़ छीना गया है l
बल्कि, कानून सिर्फ अश्लीलता को पब्लिक के लिए नुकसान के रूप में देखता है।
केबल टेलीविजन नेटवर्क (व्यवस्थापन) अधिनियम/ The Cable Television Networks (Regulation) Act, 1995
यह अधिनियम कई कारणों से एक चैनल या कार्यक्रम के प्रसारण पर प्रतिबंध लगाता है। कारण भिन्न हो सकते हैं- मैत्रीपूर्ण देशों की आलोचना से लेकर "सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता" पर खतरा l इस अधिनियम के साथ-साथ केबल टेलीविज़न नेटवर्क नियम का एक सेट भी होता है, जिसके अनुसार ऐसा कोई भी प्रोग्राम नहीं चलाना चाहिए जो "विवेक या मर्यादा के खिलाफ है"।
ये थोड़ा पेंचीदा मामला है, प्यारी एजेंट्स! क्योंकि विवेक और मर्यादा क्या है, ये तो हर सामने वाले के व्यक्तित्व और विचारों पर निर्भर है ! (देखा जाए तो, कोई ये भी सोच सकता है कि द्रोण फिल्म में अभिषेक बच्चन के कपड़े औचित्य और मर्यादा का उल्लंघन कर रहे थे!) ये अधिनियम और नियम "कुछ भी अश्लील" और "इशारों से भरे कुछ" का भी अपराधीकरण करते हैं। सेक्स की ओर इशारा- यानी ये अधिनियम तो संभावित रूप से हर बॉलीवुड फिल्म पर लागू हो सकता है!
इसे लागू करने के लिए एक अलग रेगुलेटरी बॉडी नहीं है। इसलिए ये प्रसारण को डायरेक्ट सरकार के निरीक्षण में रखता है। इसका मतलब यही है कि, सरकार ये तय करेगी कि आप टीवी पर क्या देख सकते हैं और क्या नहीं।
भारतीय दंड संहिता की धारा 292 / Section 292 of the Indian Penal Code
आई.पी.सी.की यह धारा "अश्लील" किताबों, पर्चे, सामग्री, चित्रों की बिक्री या प्रचलन पर रोक लगाती है। ये पुलिस और न्यायिक प्रणाली द्वारा लागू किया गया नियम है l इसका उपयोग कई तरह के परिदृश्यों में लोगों पर केस दर्ज करने के लिए किया गया है। मसलन एक बलात्कारी जिसने अपने पीड़िता को शर्मसार करने के लिए उसके "अश्लील" चित्रों को उसके ही घर की दीवारों पर लगा दिया था। लेकिन फिर लेखक वसंत गुर्जर को उनकी मराठी कविता आई मेट गांधी के लिए भी। 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी "पूर्ण" नहीं है और महात्मा गांधी जैसे ऐतिहासिक व्यक्ति के लिए अश्लील शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। और साथ ही यह भी कहा कि गुर्जर को मुकदमे का सामना करना पड़ेगा। गुर्जर के मामले से पता चलता है, कि जिस बात को अस्वीकार्य माना जाता है, वह कभी-कभी इस बात पर निर्भर करता है कि वो सन्दर्भ कैसा है , जिसमें वो घटी ।
और कभी-कभी यह संदर्भ बदल जाता है। जैसा कि एक पत्रिका के खिलाफ, जिसने टेनिस खिलाड़ी बोरिस बेकर की उनके तत्कालीन मंगेतर बारबरा फेल्टस के साथ ली गयी तस्वीरें छापी थीं, लंबे समय से चल रहे मामले पर 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ज़ाहिर है। हालाँकि दोनों नग्न थे और तस्वीर में बोरिस के हाथों ने बारबरा के स्तनों को ढँका था। पर ये बहुत प्रत्यक्ष रूप से कामुक तस्वीर नहीं थी। अदालत ने तस्वीर के खिलाफ दलीलों को खारिज कर दिया और कहा, "नग्न / अर्ध-नग्न महिला की एक तस्वीर को ... असल में अश्लील नहीं कहा जा सकता है ... अश्लीलता को, समकालीन सामाजिक स्टैण्डर्ड(स) को लागू करते हुए, एक औसत व्यक्ति के दृष्टिकोण से आंका जाना चाहिए।"
पोर्न पर प्रतिबन्ध
भारत में ऐसे कानून नहीं हैं जो निजी तौर पर पोर्नोग्राफी देखने के खिलाफ हैं। हालांकि अश्लील वीडियो बनाना और प्रचलित करना अपराध है। लेकिन 2015 में, सरकार ने 800 से अधिक पोर्न और फाइल-शेयरिंग वेबसाइटों को ब्लॉक कर दिया, और 2018 और 2019 में पोर्न साइट्स को ब्लॉक करने के लिए नए सिरे से प्रयास किए। इसका एक कारण यह दिया गया कि सरकार चाइल्ड पोर्न, जो कि एक अपराध है, को देखने और शेयर करने पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रही है। और इसके मद्देनज़र दूरसंचार विभाग ने Jio और Airtel जैसे इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को निर्देश भी दिया है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रतिबंध कई सारे अन्य पोर्न साइटों पर क्यों लागू कर दिया गया है, विशेष रूप से कुछ बड़े साइट्स जो अपने साइट्स पर नियंत्रित तरीके से सामग्री अपलोड करते हैं। क्यूंकि ये प्रतिबन्ध, सारे साइट्स पर नहीं है, और पूर्ण रूप से लागू भी नहीं है।
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ये परिभाषित करना कठिन है कि "अनैतिकता", "नैतिकता", "शालीनता", या "सही पसंद" क्या है। इनमें से कोई भी इंस्ट्रक्शन मैन्युअल (instruction manual) के साथ नहीं आता है। इसलिए यह थोड़ा अजीब है कि कानून और नीति, और कभी-कभी "सामुदायिक मानक" भी शब्दों विचारों और शब्दों के सहारे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि क्या मान्य है और क्या नहीं l
और तो और, सेक्स और कामुकता के वर्णन का अपराधीकरण करना इस बात को और बल देता है कि यह कुछ ऐसा है जिसे छिप-छिपा के ही करना चाहिए या जिस पर शर्मिंदा होना चाहिए। औरऐसी सोच लोगों को सेक्स और कामुकता से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारी लेने से रोकती है। इस वजह से हो सकता है कि अक्सर लोग ज़रूरी जानकारी पाने से कतराएं। प्रजनन सम्बन्धी जानकारी सबके लिए ज़रूरी है पर हो सकता है कि इसे हासिल करने से भी लोग झिझक जाएँ। हर किसी को उनकी जरूरत की जानकारी दिला पाने के लिए, हमें सेंसरशिप को कम करने की जरूरत है, ना कि बढ़ाने की।
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