“सल्मा यह दुनिया कितना भी बड़ा, कैसा भी रंडी का घर ही सही … हम यहीं रहेंगे, लड़ेंगे, मरेंगे” १९७० की फ़िल्म दस्तक में हमीद अपनी बीवी सल्मा से कहता है। दस्तक एक मध्य वर्गीय जोड़े की कहानी है, जो उस समय के बॉम्बे नामक शहर के वेश्यालयों के इलाके में घर भाड़े पर लेते हैं। कहानी उनके दरवाज़े पर, उनके पड़ोस में रहने वाली वेश्याओं की लगातार दस्तक की है।
सल्मा (जिसका किरदार रेहाना सुल्तान ने अदा किया था), एक छोटे से शहर की मध्य वर्गीय मुसलमान औरत, एक माहिर गायिका भी है। उसका घरवाला पुराने विचारों का है, जो उन दोनों को अच्छा जीवन दिलाने के लिए धक्के खाकर कड़ी मेहनत करता है। वेश्यालय के पड़ोस में रहने के कारण, मुजरा गायिकाओं की ज़िंदगी में वह आहिस्ता खिंची चली जाती है। वह अपनी कामुकता आज़माना चाहती है, और चाहती है कि कोई उसे चाहे। इस फ़िल्म में एक सीन ऐसा भी है जहां वह ज़मीन पर टॉपलेस लेटी हुई धूम्रपान कर रही है।
अगर आप मुझसे पूछें - तो वह निहायत बोल्ड फ़िल्म थी!
मेरे मुताबिक, रेहाना सुल्तान भारतीय फ़िल्म जगत की सबसे कम आंकी हुई अभिनेत्रिओं में से एक है, इसके बावजूद कि उसे दस्तक के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। सुल्तान ने अपना करियर १९७० के दशक में दो बहुत ही अनोखी फिल्मों के साथ शुरू किया। चेतना में उसने एक “धूम्रपान करती हुई और मदिरा पीती हुई” वेश्या का किरदार निभाया, जो एक सीधे साधे आदमी से मिलती है, और उससे प्यार करके उससे शादी करती है। फ़िल्म में उस औरत के सामान्य और आनंदमय विवाहित ज़िंदगी जीने के प्रयत्न दर्शाए गए हैं और साथ में उसका अपने अतीत से जूझना भी। दस्तक और चेतना दोनों में एक दुर्भाग्यपूर्ण समानता है: इन फिल्मों की नायिका आख़िर में ख़ुद के किए पर पछताती हैं, यह शायद उस काल का प्रतिबिंब है जिस काल में यह फ़िल्में बनाई गईं (लेकिन मुझे पता नहीं कि क्या वर्तमान काल उस काल से कुछ अलग है)। लेकिन इन दो फ़िल्मों ने भारतीय सिनेमा में एक अलग क़िस्म के नए दौर की घोषणा की, एक नयी राजनीति की - एक ऐसी कामना की जिसके बारे में बहुत कम बात होती है।
भारत में, १९७० का दशक विद्रोहियों का दशक था - यह एक जोशीली जवान पीढ़ी थी जो एक आधुनिक भारत के लिए और एक ऐसे समाज के लिए लड़ रही थी जो नए और प्रगतिशील विचारों को स्वीकारे। बड़े बड़े बयान करना उन फिल्मों के लिए महत्त्वपूर्ण था और १९७० के दशक के सिनेमा ने नए क्षेत्रों में सराहनापूर्ण उन्नति की। उन दिनों, मैं बोरिवली, जो मुंबई के उत्तर पश्चिम का उपनगर है, के एक मध्यम वर्गीय ख़ानदान में बड़ा हो रहा था। मेरे पिता अपने विचारों में प्रगतिशील थे, लेकिन मेरी माँ असल में विकसित थी - और यह दो बातें बहुत अलग हैं। मैं मेरी माँ का सबसे अच्छा दोस्त था। वह भारत के बँटवारे के समय पली बढ़ी थी और १४ वर्ष की छोटी सी उम्र से उसने कमाना शुरू किया था। छह बहनों और दो भाइयों में वह क्रम में दूसरी थी। वह अक्सर मुझे बताती कि कैसे उसके माता पिता ने उसे और उसकी बहनों को कई सारे अवसरों और आज़ादियों से वंचित किया था, ऐसी आज़ादियाँ जिन्हें हम हमारा हक़ समझते हैं। यह इसलिए कि उसके माता पिता ने अपने दोनों लड़कों को प्राथमिकता दी। वह अक्सर मुझे कहती कि औरतों ने यह बेड़ियाँ तोड़नी चाहिए, और वह तोड़ना चाहती हैं, और मर्दों ने उनका आदर करना सीखना चाहिए। मेरी माँ अलग थी। और मैं अलग तरीके से बड़ा हो रहा था।
फिल्में कामुकता के निरंतर बदलने वाले और भ्रम पैदा करने वाले यंत्र जैसी थीं। मैंने राज कपूर की मेरा नाम जोकर (१९७०) देखी थी और किशोरों की काम-वासना वाले हिस्से से पूरी तरह से मोहित हो गया था। १६ वर्षीय रिषि कपूर अपने स्कूल की शिक्षिका, सिमी गरेवाल, की ओर आकर्षित है। शिक्षिका अपने बॉयफ्रेंड, मनोज कुमार से शादी करने जा रही है। मनोज कुमार किसी प्रकार के कामुक सीन ना करने के लिए मशहूर था, लेकिन ख़ास इस एक फ़िल्म में वह कामुक रूमानी सीन करने के लिए राज़ी हुआ। मेरी भावनाएं मुझे तब समझ में नहीं आयी थीं, लेकिन मैं चाहता था कि वह मुझे उस तरह पकड़े जिस तरह वह हीरोइन को पकड़ रहा था। यह बड़े होने की ओर मेरा कदम था और मैं महज नौ वर्ष का था। उस ही फ़िल्म की एक हीरोइन, पद्मिनी, जो अकेली रहती थी, ने अपने जीविकोपार्जन के लिए लड़के का भेष रखा था। सड़क पर अपनी कला दिखाने वाली, नटी का काम करते समय उसकी शर्ट फट जाने से उसकी छाती दिख जाती है - उस समय राज कपूर के किरदार को (जो अब बड़ा हो चुका है) पता चल जाता है कि उसका दोस्त असल में एक औरत है। इस फ़िल्म ने दूसरे लिंग के वेशधारण को संजीदगी से दर्शाया, ना की उस बात का सिर्फ़ व्यंग बनाकर छोड़ दिया।
शायद कुछ लोग इन चित्रों की आलोचना करें, इन औरतों को एक वस्तु के रूप में दर्शाने के कारण - मुझे पता नहीं, शायद वह बिलकुल वही करते हों? लेकिन स्क्रीन पर इस कामुकता का होना और उसका हम जैसे देखने वालों के शरीर और आत्माओं पर असर का अंदाज़ प्रभावशाली है।
१९७० के दशक में सिनेमा के नए दौर ने श्याम बेनेगल, बासु चैटर्जी, बासु भट्टाचार्य, गुलज़ार, अवतार कौल, मणि कौल, कुमार शहानी और जब्बार पटेल जैसे फ़िल्म निर्माताओं को जगह दी, जिन्होंने आधुनिक सिनेमा के लिए जगह बनाई, ऐसी फ़िल्में बनाकर जो आज अधिकतर निर्माता नहीं बनाते। वह हमें ऐसी कहानियां, भावनाएं और अंग दिखा रहे थे जैसे हमने पहले कभी नहीं देखे थे।
१९७१ की फ़िल्म अनुभव में तनूजा का किरदार एक ऐसी औरत है जिसकी कामुक तमन्नाएं बहुत स्पष्ट हैं - वह भी दोनों के प्रति - अपने पति के और उसके पहले प्रेमी के, जो एक बार फ़िर उसकी ज़िंदगी में आया है। इस दशक में दो ऐसी अभिनेत्रिओं ने अपना काम शुरू किया, शबाना आज़्मी और स्मिता पाटिल, जिन्होंने कुछ अपरंपरागत तरीके से रोल किए और भारतीय सिनेमा में एक औरत को दर्शाने के घिसे पिटे ढंग को चुनौती दी। अगर आप मुझसे पूछें, तो स्मिता पाटिल भारतीय सिनेमा में सबसे सुंदर औरतों में से एक है, जिसने निशांत, भूमिका, मंथन और उंबरठा जैसी फिल्मों में बेमिसाल अदाकारी की।
निशांत (१९७५), कई मायनों में, मर्दों के शरीर की अभिव्यक्ति बनी। अमरीश पूरी, अनंत नाग, मोहन आगाशे और नसीरुद्दीन शाह मुख्य अभिनेत्री शबाना आज़्मी के लिए अपनी काम वासना व्यक्त करते हैं, अपने अंग का प्रदर्शन करके, जिससे बॉलीवुड के पारंपरिक रूप से सेक्सी माने जाने वाले कई अभिनेताओं को उन्होंने कड़ी चुनौती दी। जब्बार पटेल के उंबरठा में गिरीश कर्नाड अध् नंगे हैं, जबकि अरुणा राजे और विकास देसाई की रोमांचक फ़िल्म शक में शबाना आज़्मी और विनोद खन्ना को उनकी शारीरिक आत्मीयता के ज़रिये दर्शाया गया है। सत्यम शिवम् सुंदरम में शशि कपूर, उनकी हर दूसरी फ़िल्म में धर्मेंद्र, अपराध और काला सोना में फ़िरोज़ खां लगातार मैगज़ीन के पन्नों पर अध् नंगे और छोटी सी छोटी ब्रीफ़ (चड्डी) में पेश आए। १९६० के दशक में यह सब सोचना भी नामुमकिन था। ख़ूबसूरत संजय खां सिर्फ एक माइक्रो ब्रीफ और सूती के जॅकेट में सोफ़े पर बैठे हुए पेश आए, अपनी छाती के बालों को दिखाते हुए, सेक्सी ख़लनायक रणजीत एक बार एक बीन बैग पर पूर्ण रूप से नग्नावस्था में, बड़े सहज रूप से बैठे दिखाए गए - दोनों मर्द एक फ़िल्म मैगज़ीन के लिए कामुकता से कैमेरा में एकटक नज़रों से देख रहे थे।
लेकिन मेरे लिए १९७० के दशक का सबसे सेक्सी अभिनेता कबीर बेदी था, जिसने एक इटालियन टीवी शृंखला में काम किया और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा हासिल की। उसने फ़िल्म, मॉडेलिंग के काम और मैगज़ीन, सब के लिए बेझिझक कपड़े उतारे। जबकि स्टारडस्ट, सिने ब्लिट्ज़ और फ़िल्मफेर (जो दूसरी मैगज़ीन की तुलना में कुछ ज़्यादा शालीन पेश आती) जैसे मैगज़ीन ने अभिनेताओं को बदन दिखाने वाले कपड़ो में दर्शाया, हमने डेबोनेयर जैसी मैगज़ीन का उभरना भी देखा, जो १९७० के दशक में शुरू हुई, और जो प्लेबॉय का भारतीय रूपांतर थी! जब मैं जवान था, तब मेरे पास अलग अलग मैगज़ीन से काटी हुई इन अभिनेताओं की सैंकड़ो तसवीरें थीं, जो मैं छुपाके रखता और जब सब घरवाले सो जाते, मैं मेरी रहस्यमय बैग खोलता, जो मेरी गुप्त इच्छाओं का भंडार था। यह अभिनेता साहस और ख़ूबसूरती पर मेरे विचारों को परिभाषित कर रहे थे।
अगर पैरेलल (समानांतर) सिनेमा ने १९७० के दशक में अपनी जगह बना ली थी, व्यावसायिक सिनेमा परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था और इस दशक में फ़िल्म निर्माताओं को नया साहस मिला। ‘हरे कृष्णा हरे राम’ की पीढ़ी को ज़ीनत अमान और परवीन बाबी की झलक मिली, दो औरतें जो अपने बदन को लेकर शर्मिंदा नहीं थीं। देव आनंद के १९७३ फ़िल्म हीरा पन्ना में ज़ीनत ने एक पूरे गाने (“मैं तस्वीर उतारता हूँ”) में बिकीनी पहनी, जिसने और आगे चलकर सत्यम शिवम् सुंदरम में रूपा का किरदार भी अमर किया। रूपा के कपड़ो के कारण सत्यम शिवम् सुंदरम १९७८ की सबसे चर्चित फ़िल्म थी। ज़ीनत के “सैंया निकास गए” गाने में टॉपलैस शॉट की बड़ी चर्चा हुई।
परवीन बाबी ने उसका करियर चरित्र के साथ शुरू किया और उसकी १९७९ फ़िल्म यह नज़दीकियां के साथ वह भारत की बो डेरेक बनी, जो अपनी फ़िल्म १० की सफलता के बाद हॉलीवुड की सबसे लोकप्रिय और सेक्सी स्टार में से एक थी। ज़ीनत और परवीन दोनों ने भारतीय अभिनेत्रिओं का रूप रंग बदल दिया और १९७० के दशक की सेक्सी स्टार के रूप में अपनी जगह बना ली। सेक्सी होना और वह भी खुले आम सेक्सी होना, यही उन दिनों का माहौल था।
अगर सब फ़िल्मों की सूची की जाए तो उस ज़माने में बनाई जाने वाली हर क़िस्म की फ़िल्मों से बुहारते हुए बढ़ना होगा, प्रेम कहानियों से लेकर आर्ट हाउस फ़िल्मों तक। रूमानी फ़िल्मों के बादशाह, यश चोप्रा, ने उनकी १९७३ की मशहूर फ़िल्म दाग में राजेश खन्ना और शर्मिला टागोर के बीच यौन क्रिया के कुछ कामोत्तेजक सीन दिखाए और उसके बाद शशि कपूर और राखी गुलज़ार के बीच कभी कभी (१९७६) में। लक्ष्मी और विक्रम ने १९७५ की फ़िल्म जूली में सेक्स के सीन और गाने “भूल गया सब कुछ” के साथ हलचल मचा दी। आम तौर पर परंपरागत कपड़ों में पेश आने वाली मुमताज़ ने अपराध (१९७२) में एकदम छोटी बिकीनी पहनकर फ़िरोज़ खां के साथ बंबई के समुद्रतट पर एक लंबा सीन किया। मुझे नहीं पता कि क्या आज के ज़माने में विद्या बालन या सोनाक्षी सिंहा जैसी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री उस क़िस्म का सीन करेंगी, बिना हज़ार बार अपनी सफ़ाई दिए? इस बात पर ख़ास ग़ौर करना चाहिए कि अपनी अधिकतम फ़िल्मों में मुमताज़ ने सीधी साधी लड़की के किरदार निभाए। या क्या कटरीना कैफ़ ज़ीनत अमान या परवीन बाबी ने स्थापित किए हुए आदर्श ख़ुद स्थापित कर पाएगी और व्यावसायिक सिनेमा के कायदों को यूँ चुनौती दे सकेंगी, मुक्त शरीर और मुक्त भावनाओं के साथ?
१९७० के दशक में एक और महत्त्वपूर्ण हस्ती उभर कर आयी। उसे एक ‘अग्ली डकलिंग’(एक ऐसी शख़्स जो शुरू में बदसूरत दिखती है या निराशाजनक पेश आती है लेकिन जो बाद में उभर कर आती है) कहा गया और उसने अपना करियर १४ वर्ष की उम्र में शुरू किया। उसके साथ काम करने वाले एक अभिनेता ने फ़िल्म की शूटिंग के दौरान जबरदस्ती और जान बूझ कर उसे एक लंबा चुम्मा दिया। इस घटना का उस पर ज़िंदगी भर असर रहा, लेकिन उसके सामने आयी सभी चुनौतियों से वह लड़ी और उनको मात दी और वह अब भी फ़िल्म जगत की सबसे बड़ी देवियों में से एक है। १९७० के दशक में रेखा ने कुछ मामूली फ़िल्में कीं जैसे प्राण जाए पर वचन ना जाए जो दो कारणों के लिए मशहूर हुई। एक, ओ पी नय्यर का संगीत और दो, आशा भोसले का गाया हुआ उत्कृष्ट गाना ‘चैन से हम को कभी आपने जीने ना दिया’। दो, नदी में तैरती अध् नंगी रेखा। इस गाने ने सनसनी इसलिए मचा दी चूँकि उस सीन में उसने ऊपरी हिस्से पर कुछ नहीं पहना था। (कई साल बाद, सिलसिला के एक गाने में, उसने ब्रा नहीं पहनी थी और वह बात भी बहुचर्चित हुई।)
रेखा ने अपना तथाकथित ‘अग्ली डकलिंग’ से कामोत्तेजक मोहिनी और बेहतरीन अभिनेत्री में परिवर्तन किया। १९७६ की उसकी फ़िल्म दो अंजाने में उसने एक मध्यम वर्गीय गृहिणी का काम किया जो अभिनेत्री बनने के ख़्वाब देखती है। वह अपने पति के जिगरी दोस्त से प्यार कर बैठती है, जो उसकी ज़िंदगी में आकर उसे मोहित कर देता है और वह भी अपने पति के साथ बिना सोचे बेवफ़ाई करती है। इस फ़िल्म ने रेखा को एक श्रेष्ठ अभिनेत्री के रूप में साबित किया और उसने घर (१९७८) जैसी अनोखी फ़िल्म के साथ अपनी जगह और भी मज़बूत बना ली। इस फ़िल्म में वह एक मध्यम वर्गीय गृहिणी का किरदार निभाती है जिसका बेरहमी से सामूहिक बलात्कार होता है और जिसे अपने सदमे के साथ अपने पति के सदमे को भी झेलना पड़ता है जो ख़ुद को दोषी मानता है चूँकि वह उसकी रक्षा नहीं कर पाया। घर के साथ रेखा ने अपनी जगह बना ली और वहाँ से वह आसमान छूती गयी। वह लोगों के लिए एक प्रेरणा थी और हर हालत में लड़ते रहने और जीवित रहने का साहस उसने सबको दिया। मेरा कहने का मतलब यह है कि तब, शरीर, ख़ुशी, मज़ाक और गंभीर या दिमाग़ी मुद्दों के बीच की लकीरें अब जितनी सुस्पष्ट नहीं थीं। वह ज़माना शरीर और आत्मा का जलसा था।
वही कारण है कि हेलेन का कैबरे, एक साथ सेक्सी और प्यारा सा, एक साथ ख़ुशनुमा और कामुक, हेलेन का कैबरे रहेगा - १९६९ में तलाश से लेकर, १९७१ में कारवां या १९७३ में अनामिका तक। सॉरी करीना, मेरी आँखों में ‘यह मेरा दिल’ हमेशा के लिए हेलेन का बना रहेगा, उसके कामुकता और मज़ाकिया ढंग के कारण!
उस दशक की शुरुआत में, १९७० के सुपरहिट जॉनी मेरा नाम में पद्मा खन्ना के कामुक कैबरे “हुस्न के लाखों रंग” ने देशभर को चकित करके रख दिया। अगर आज के ज़माने की कोई फ़िल्म उस ढंग का कैबरे गाना दर्शाने की ज़ुर्रत करे, तो बेशक उस गाने को हमारा नया शिक्षा प्रद सेंसर बोर्ड छांट दे। ऐसा सेंसर बोर्ड जो चुम्मे वाले सीन की लंबाई कम करने में दिलचस्पी रखता है, समलैंगिक लोगों के बीच दिखाया गया प्यार काटने में, किसी भी प्रकार की शारीरिक नज़दीकी या देखा जाए तो प्रौढ़ता की कोई भी अभिव्यक्ति कम करने में भी! हिंसा ठीक है लेकिन सेक्स नहीं। जॉनी मेरा नाम को U सर्टिफिकेट मिला। बिंदु ने भी कटी पतंग (१९७०) के “मेरा नाम है शबनम” के ज़रिये देश को कामोत्तेजित किया और कई हिंदी सुपर हिट में वह खलनायकों के लिए ‘मोना डार्लिंग’ बनी। उस दशक में लक्ष्मी छाया जैसे कम चर्चित अभिनेत्रियों ने भी काम किया, जो धर्मेंद्र के साथ मेरा गाओं मेरा देश (१९७१) में उसके कामोत्तेजक गाने “मार दिया जाए” के लिए मशहूर है। शर्मीली (१९७१) में, जयश्री टी ने उसके गाने “रेशमी उजाला है” से हलचल मचा दी। और कोई शीतल को कैसे भूल सकता है, उस दशक की सेक्स बॉम, जो फ़िल्मों में कम लेकिन फ़िल्म मैगज़ीन में ज़्यादा दिखाई दी, छोटे कपड़े पहनी हुई और सभी ग़लत कारणों (करियर के नज़रिये से) के लिए मशहूर हुई। सत्यम शिवम् सुंदरम में एक छोटे से किरदार के लिए वह जानी जाती है जहां उसने एक ऐसी आदिवासी लड़की का काम किया जो हीरो शशि कपूर के प्रति अपनी काम वासना व्यक्त करने में नहीं झिझकती। उस दशक की नृत्यांगनाओं पर तो एक पूरी किताब लिखी जा सकती है।
और ७० के साहसी दशक की बात अधूरी होगी अगर मैं प्रोतिमा बेदी को श्रद्धांजलि नहीं अर्पण करूँ, एक निपुण ओडिसी नृत्यांगना, मॉडेल और उस ज़माने की सबसे ख़ूबसूरत औरतों में से एक। १९७४ में, बंबई के जुहू बीच पर वह दिन दहाड़े नंगी दौड़ी और बाद में इंटरव्यू में उसने कहा, “मैंने मेरे कपड़े, मेरे अवरोधन और पुराने सामाजिक आदर्शों द्वारा तय किये मेरे अनुबंधन उतार फ़ेंक दिए ताकि आप भी ख़ुद की ख़ोज कर सको”। इस घटना ने समाज के नैतिक आरक्षकों को क्रोधित किया और इस कारण नैतिक रूप से समाज की कोतवाली करना, नारीवाद और एक औरत का ख़ुद को और अपने शरीर को व्यक्त करने के अधिकार पर उत्तेजित वाद विवाद हुए।
आज, जब मैं देखता हूँ कि कैसे औरतें, पार्चड जैसे शानदार सिनेमाई अनुभूतियों में स्क्रीन पर खुले आम अपनी कामनाएं प्रकट करती हैं, मुझे १९७० के दशक की याद आती है। लोग अतीत के बारे में ऐसी बात करते हैं जैसे कि वह प्रतिगामी था और आज का माहौल प्रगतिशील है। जैसे कि उस दौर की औरतों की ख़ुद की आवाज़ नहीं थी और सभी दबी हुई थीं। लेकिन क्या वह वाकई में सच है? आगे बढ़ते हुए भी क्या हम पीछे हट सकते हैं? उस दशक की औरतों के बारे में सोचकर मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूँ, ऐसी औरतें जिन्हें बिना कोई डर या अवरोधन के ख़ुद को अभिव्यक्त करने का दम था और जिन्होंने आने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक ठोस ब्यौरा दिया। पिछले दिनों के उनके साहस ने इस लड़के को ख़ुद जैसे बनने की हिम्मत दी। इस कारण उन्हें मेरा प्यार और आदर सदा के लिए रहेगा। ७० के दशक के साहसी लोगों को, गले मिलकर और आँख मारकर, मेरी ओर से शुक्रिया!
विवेक आनंद हमसफ़र ट्रस्ट (HST) के चीफ़ एग्जीक्यूटिव अफसर हैं, जो भारत की LGBTQ की समाज पर आधारित पहली संस्था है। वह स्वास्थ्य, अन्वेषण, क्षमता संवृद्धि तथा वकालत संबंधी प्रोजेक्ट के कार्यान्विति के लिए ज़िम्मेदार हैं। सन २००२ से उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रीय कॉन्फरेंस में कई सारे लेख प्रस्तुत किए हैं।
मैं 70 के दशक पे क्यों फ़िदा हूँ
लेखन: विवेक आनंद
Score:
0/
Related posts
How To Smell And Taste Good Down There
Partner going down on your buffet? Tips for a yummy garnish!…
हम बस दुखड़ा रोने को तैयार ही थे कि हमने हॉकी स्टिक लिए एक छोटी लड़की को देखा।
एक मूवी के किरदार से अ…
मैंने खुशी-खुशी अपना दिल उनको दिया, लेकिन उनको चाहिए थे बच्चे और एक देसी बहू
स्थायी बीमारी में डेटि…
दुनिया की ऐसी जगहें जहाँ पब्लिक में सेक्स करना क़ानूनन जायज़ है ।
आज है #WorldTorismDay! जाने दुनिय…
If Life is Box Full of Chocolate Boys!
#HappyChocolateDay to the men who smile, are vulnerable, and…
What is Fellatio? The AOI Sex Glossary
Is it ice-cream ka flavour, like pistachio? Well, it does ha…
Sorry Thank You Tata Bye Bye - A Music Video About Age of Marriage In Collaboration With Oxfam India
Ammuma’s Haircut and Her Romantic Past
If Ammuma's hair was one to divulge, what would it reveal ab…
It Was ‘Twilight’. I Woke Up Bisexual.
How one can stumble upon one's (bi)sexuality with the help o…
To All the Boys I Couldn't Love Before
What fleeting connections with many interesting men tell you…
Tell Me Tarot, Will He Ever Come Back?
After Manjari is ghosted, all search for closure leads to he…
How My Girlfriend's Abortion Made Me A Better Man: A Comic
M's story about a life-changing incident.
Do You Know How to Give Women Orgasms?
This app will teach you how and we got some Agents to try it…
The AOI Queer Reading List: Desi Languages Version
Queer readings from non-English Indian languages.
What Makes Your Sexual Confidence Go Up and Down
Sexual confidence is like a Snakes and Ladders Game
KISS MEIN KITNA HAI DUM: 19 KISS POEMS
Kisses that go from sweet to saucy, tender to raunchy, misch…
Savita Bhabhi and I: A True Love Story
Here is something you should know about me. I wrote three st…
How Posing in the Nude Changed My Life
A young gay man who hates being touched, is awkward about ha…