क्रश क्या है, मोह या प्यार? आजकल ऐसा लगता है जैसे इन शब्दों का मेरे लिए कोई महत्वपूर्ण अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन हमेशा से ऐसा ना था। हम अक्सर क्रश को एक नासमझ किशोर भावना के रूप में देखते हैं। ये सोसायटी हमें कहती है "एक बार तुम्हारी शादी हो जाये तो सब अपने आप व्यवस्थित हो जाएगा"। लेकिन, वास्तव में, ये इच्छाएं और भावनाएं हमारे जीवन का एक हिस्सा हैं, जो समय-समय पर लौट आतीं हैं। इनका आना दर्दनाक हो सकता है। कभी-कभी आपको कुछ ना पा सकने के एहसास सेे दर्द और गुस्से की अनुभूति होती है तो कभी आप खुद को दोषी महसूस करते हैं। आप अपनी उन भावनाओं के बारे में भ्रमित हो जाते हैं जिन्हें महसूस करने की आपको अनुमति नहीं है। फिर भी, ये अनुभव मेरे बड़े होने की प्रक्रिया में बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं।
जब मैं अपनी किशोरावस्था में थी, मुझे पुरुषों और पुरुष और महिला के संबंध पर आधारित फिल्मों की बातें बिल्कुल पसंद नहीं थीं। मुझे याद है कि मैंने स्कूल की अपनी दोस्त की ऑटोग्राफ पुस्तक में लिखा था "मुझे तुमसे फ़ोन पे बातें करना बेहद! पसंद है" और "मुझे लड़कों के साथ दोस्ती रखना बिल्कुल पसंद नहीं है।"
जब मैं नवी में थी, स्कूल असेंबली के दौरान ‘प्लेज’ (संकल्प) दोहराते समय मुझे एक अजीब विचार आया। "सभी भारतीय मेरे भाई-बहन हैं," मैंने जोर से कहा और तभी ये ख्याल कौंधा। मैंने तुरंत अपनी कक्षा के सभी लड़कों के लिए राखी खरीदी। वह एक रोचक दिन था, सभी लड़कों की कलाई पर समान रंग की राखी थी। शिक्षकों ने मेरी पहल की सराहना की और बस यही सब। सोचो अगर जीवन में आगे जाकर उनमें से किसी से मेरी शादी हो गई होती तो?! हे भगवान, क्या कैरेक्टर थी मैं। उस समय, मैं वास्तव में भगवान से प्रार्थना करती थी कि मुझे प्रेम जैसी भावनाओं को कभी भी महसूस न कराए।
वेंकटेश
मुझे यहाँ ये साफ साफ बताना है कि मैं असली (रियल) लोगों के लिए वैसा कुछ महसूस नहीं करना चाहती थी। रील (सिनेमा) वाले लोग ठीक थे। मुझे आजीवन अभिनेताओं के ऊपर भयंकर विमोह रहा है।
तेलुगू अभिनेता 'विजय वेंकटेश' 10 वर्षों से भी अधिक समय तक मेरे पसंदीदा रहे।। नौ से उन्नीस साल की उम्र के बीच मेंं, मुझे याद नहीं कि एक भी दिन मैंने उनकी बात किये बिना बिताया हो। यह तब की बात है जब दूरदर्शन एकमात्र चैनल था। हर शुक्रवार की सुबह मुझे आशा लगी रहती थी कि दूरदर्शन कार्यालय में बैठे देवता मेरी प्रार्थना सुनेंगे और चित्राहारी (30 मिनट तेलुगु फिल्मी गीत कार्यक्रम) के दौरान उनके गाने चलाएंगे। और अगर ऐसा हो जाता, तो यह मेरे लिए उत्सव का दिन बन जाता। अगली सुबह, स्कूल या कॉलेज में, मेरी चर्चा का पहला विषय उनके गीत से ही संबंधित होता था।
एक बच्चे के रूप में, मैंने उनकी कल्पना अपने पिता / अभिभावक के रूप में की - मेरी रक्षा, देखभाल और मुझे हमेशा प्यार करने वाले व्यक्ति के रूप में। दसवीं कक्षा और स्कूल ड्रेस को त्यागने के बाद, उनका मनोचित्रण अपने पिता के रूप में करना संभव नहीं रहा। उनका व्यक्तितव अब भी पिता टाइप का ही होता, लेकिन मेरे ख्वाबों ने एक नया मोड़ ले लिया था। मैं उन्हें एक जोशीले नायक के रूप में देखने लगी जो हर नायिका को खुश करने में सक्षम था। मैंने उन्हें अपने प्रेमी के रूप में तो नहीं देखा लेकिन मैं ये मानती थी कि उनसे बड़ा रोमांटिक अभिनेता कोई भी नहीं है। मैं उनके ढेर सारे गाने सुनती थी, उनके कुछ रोमांटिक दृश्यों को अपने सिर में दोहराती रहती थी।
इसका अंत कब हुआ? जब मैं कॉलेज में थी, मैंने उनकी एक फिल्म की पूरे तीन दिनशूटिंग देखी। बस, क्रश गायब हो गया। कितने सालों से मैं उनके बारे में सोच रही थी, किसी दिन उनसे मिलने की उम्मीद लेके बैठी थी। लेकिन जिस क्षण मैंने उनको देखा, मेरा वो पागलपन खत्म हो गया। एक वास्तविक जीवन वाला क्रश आस पास था, हालांकि मुझे उस समय यह पता ना था।
मैं हमेशा ये सोचकर मुस्कुराता उठती हूँ कि मेरे बचपन के एक प्रमुख हिस्से में वेंकटेश मेरे साथ थे। वह हमेशा हाज़िर हो जाते, किसी भी क्षण, जब भी मैं चाहती थी, जैसे मेरे दिमाग में बैठकर वो मेरी कल्पनाओं के शुरू होने का इंतज़ार कर रहे होते थे।
पीयूष
20 साल का दशक मुझे बचपन से कहीं ज़्यादा मुश्किल लगा। युवा महिलाओं को कैसा होना चाहिए- इस विषय पर मेरे परिवार की एक निर्धारित राय थी। वे सभी ख्याल पारिवारिक 'स्थिति' और 'प्रतिष्ठा' से बंधे थे। और मैंने वही चीजें की जो मेरे परिवार के उन विश्वासों के अनुरूप थीं। मेरे मन में इस बात को लेकर काफी द्वंद था कि "मैं कैसी हूँ" और "मैं कैसी बनना चाहती हूँ।"
मैंने हमेशा ये माना कि सादे कपड़े पहनना महत्वपूर्ण है- दूसरे शब्दों में थोड़ा अनाकर्षक लगना। मैं कभी भी टाइट गूँथे हुए चिपकू बालों के बिना कॉलेज नहीं गयी। मैंने कभी फैंसी जूते नहीं पहने। मैं अभी भी अपने पैरों पर उन मटमैले रंग के लेस वाले जूतों को महसूस कर सकती हूँ। एक बार जूते की दुकान पर, मेरी एक दोस्त ने मज़ाक में बोला, "प्रिया, पुरुषों का सेक्शन ऊपर है, तुम्हें शायद कॉलेज के लिए कुछ अच्छे जूते मिल जाएंगे।" मैं खुद को अनाकर्षित बनाने में सफल रही थी। मुझे पक्का यकीन था कि मेरा रूप अनाकर्षित होने से मेरा "मुझे लड़कों की दोस्ती से नफ़रत है" का अभ्यास और मज़बूत होगा और मुझे "प्रेम जैसी भावनाओं" से जुड़े हर पाप से बचाएगा ।
तीन साल महिलाओं के कॉलेज में बीताने के बाद मैंने उच्चतर अध्ययन के लिए ऐडमिशन लिया। ये कॉलेज को-एड था। पहले कुछ महीनों में मैंने अपनी कक्षा के किसी भी लड़के से बात नहीं की। वे मेरी पीठ पीछे मेरा मज़ाक उड़ाते थे और फिर गंभीरता से विचार भी करते थे कि कैसे मुझसे- उनसे बात करने का पाप कराया जाए। एक दिन जब मैं अपने मौनव्रत के दृढ़ संकल्प को लेकर अपने से बड़ा खुश हो रही थी, एक लड़के ने पहल करके मुझसे पूछा, "क्या आप हमारे साथ बात करेंगी तो राख हो जाएंगी?" बहुत ही सादे ढंग में उसने कहा, "हम सामान्य लोग हैं, हमसे डरने की ज़रूरत नहीं है।"
और यह सच है, मैं लड़कों से बचने के लिए गंभीर अनुबंधन के साथ बड़ी हुई हूँ। मुझे पता था कि मैं दिखने में अच्छी थी और कई मायनों में बोल्ड और आश्वस्त थी। मैं छेड़छाड़ (ईव-टिसिंग) से बहुत डरती थी और अपने बारे में उड़ने वाली किसी भी तरह की अफवाह को लेकर चिंतित थी।
हालांकि मैं नाटक कर रही थी कि मुझे लड़कों के साथ बातचीत करना पसंद नहीं था, लेकिन फिर ऐसा लगने लगा कि मैं ये ही करना चाहती थी- उनसे बात करना, उन्हें दोस्त बनाना। भगवान का शुक्र है, मैंने स्वयं आत्म-लागू नियमों को छोड़ा। मैंने बहुत अच्छे दोस्त बनाये और वहाँ बिताए वर्षों का आनंद लिया।
उन लड़कों में से एक पीयूष था। वो और मैं एक खास तरह की दोस्ती शेयर करते थे। जो लोग हमें नहीं जानते थे वे यही सोचते होंगे कि हमारे बीच कुछ चल रहा था। लेकिन हमारे अंदर ऐसा कुछ करने की कोई पूर्णरूपी इच्छा नहीं थी। हम कभी हाथ पकड़ कर नहीं घूमे, ना ही हमने कभी एक दूसरे को गले लगाकर अभिनंदन किया। थोड़ा अधिकार सा लगता था। उन दिनों मुझे अच्छा नहीं लगता अगर कोई और मेरी जगह लेता या कोई और उसका खास दोस्त बन जाता, और मुझे यकीन है कि उसके साथ भी ऐसा ही था। यह सब एक गहन प्रेम प्रसंग की तरह लगता है लेकिन ऐसा था नहीं।
पीयूष के बारे में मुझे ये दो बातें पसंद थीं।
मुझे भरोसा था कि पीयूष कभी भी हमारी दोस्ती का अपमान नहीं करेगा। लड़कों से बात करना मेरे लिए बहुत ही नया था और लगभग सभी को पता था कि मुझे वहाँ तक पहुंचने के लिए एक विशाल मानसिक बाधा को पार करना पड़ा था। मैं अभी भी धोखेबाज़ी और बदनामी से डरती थी। आलोचना का डर शायद मुझे इसलिए भी था क्योंकि कुछ हद तक मैं खुद भी आलोचनात्मक थी। दोस्तों के साथ घूमते फिरते मैं अन्य लोगों के बारे में बात करती थी, "तुम्हें पता है, उस दिन मैंने स्मिता को राम के साथ बाइक पे बैठे देखा था।" या "स्कूल के पास मैंने फलाना को फलाने के साथ काफी समय बिताते देखा। मुश्किल से ग्यारह साल की होगी वो, इस उम्र में उसे ये सब करने की ज़रूरत है क्या?" इसलिए मुझे डर लगता था कि दूसरे भी मेरे बारे में अनावश्यक रूप से बात करेंगे। लेकिन यह सब लड़कों के साथ दोस्ती करने की नई खुशी में कुछ हद तक दब सा गया था। और पीयूष की इस दोस्ती में, मैं हमेशा एक सच्चाई महसूस करती थी।
पीयूष बहुत बड़ा फ़्लर्ट था। जब मैं उसके साथ होती थी, हँसती थी, मुस्कुराती थी, शर्म से लाल रहती थी। वह मेरे डर और आतंक को कम करने के लिए मेरे साथ छेड़खानी करता था।
बेशक, पीयूष को यह नहीं पता था कि मैं उसके और पारोल के रिश्ते के बारे में जानती थी (वो आज उसकी खूबसूरत जीवन साथी है)।
हमारे आखिरी हफ्ते में, पियुष और मैं हर दिन लुम्बिनी पार्क में मिलने के लिए लालायित रहते थे। हम दोनों ही बस ऐसे अजीब लोग थे जो पैसे देकर अंदर जाते थे, और सुंदर झील के किनारे बैठकर, किताबें खोलकर, परीक्षा की तैयारी किया करते थे। अधिकांश जोड़े झाड़ के पीछे किसी गुप्त जगह या फिर खाने-पीने की दुकान की सबसे कोने वाले सीट की तलाश में रहते थे। हम इन दोनों में से किसी जगह की ताक में नहीं रहते थे। लेकिन टिफ़िन बॉक्स से हमें काफी मदद मिलती थी। पीयूष को मेरी माँ का बना डोसा और नारियल की चटनी बहुत पसंद थे। वो सब खा जाता था। और बड़े प्यार से मुझे अपने टिफ़िन बॉक्स में भरवां पराठे दे देता था।
कई महीनों बाद, जब मुझे हमारे दीक्षांत (कॉन्वोकेशन) समारोह के लिए आमंत्रित किया गया था, मेरे परिवार का कोई भी सदस्य शामिल नहीं हो पाया था। लेकिन मैंने पियुष से आग्रह किया कि वो आगरा से दिल्ली आए। एक विशेष मित्र के साथ इस पल का जश्न मनाने से बेहतर क्या हो सकता था, जिसके बिना, जिसके भरवां पराठे के बिना मुझे वो प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट) शायद कभी नहीं मिल सकता था?
कॉलेज के आखिरी सप्ताह में, पीयूष ने कहा था, "मुझे पता नहीं कि हम फिर से कब मिलेंगे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये सब खत्म हो गया है। मैं अपने बेटे को अच्छी तरह से फ़्लर्ट करने की कला सिखाऊंगा ताकि वो तुम्हारी बेटी को पटा सके।" और इससे पहले कि हम आखिरी बार एक दूसरे को अलविदा करते, उसने कहा, "प्रिया, तुम्हारा भावी पति तुम्हें पाकर बहुत भाग्यशाली होगा।"
पीयूष और कक्षा के कुछ अन्य लोगों के साथ मेरी मित्रता ने लड़कों/ पुरुषों के प्रति मेरी गलत धारणाओं को समाप्त किया। मैं अपने लम्बे बालों को बिना तेल लगाए खुला छोड़ने लगी, मैंने बाँहों को वैक्स करने की कोशिश की, कभी-कभी अपने बालों को ट्रिम भी कराने लगी और कुछ अच्छे दिखने वाले जूते भी खरीदे। आंतरिक संघर्ष कि "मैं कैसी थी" और "मैं कैसी बनना चाहती थी" की तीव्रता कम हुई। इन पलों को मैं हमेशा संजो कर रखती हूँ।
पड़ोसी
उन्हीं कुछ वर्षों के दौरान, जब मैं ग्रेजुएशन पढ़ाई कर रही थी, मेरे जीवन में कुछ और भी हो रहा था, "चोरी-चोरी चुपके-चुपके"। हमारा नया पड़ोसी आया जो पूर्वी भारत से था। मैंने पहली बार उस पर तब ध्यान दिया जब मुझे ये एहसास हुआ कि जब भी रास्तों पर हमारा आमना-सामना होता था वो मुझसे नज़रें मिलाता रहता था। लगभग दो वर्षों तक हमने सिर्फ नज़रों से बातचीत की।
उन मूक वार्तालापों में ये शामिल थे:
किसका स्कूटर सफ़ाई के बाद ज्यादा चमक रहा है?
क्या उसका स्कूटर मेरे स्कूटर के पास खड़ा है?
क्या हम सुबह एक ही समय में घर से निकलने वाले थे?
क्या उसने किसी कॉफी शॉप में टाइम पास किया था ताकि वो मेरे बस के टाइम के हिसाब से घर पहुँचे?
मैं सुनिश्चित करके रोज़ उसी समय घर से निकलती और लौटते वक्त वही बस पकड़ती।
उसका मेरे ऊपर खास ध्यान और मिलने की बेचैनी, मुझे ये सब अच्छा लग रहा था। मैं उत्सुकता से हमारी अगली आँख-मिचौली का इंतज़ार किया करती थी। मैं उसका नाम जानने को उत्सुक थी, लेकिन कभी उसके दरवाज़े पर जाकर नाम देखने की भी हिम्मत नहीं हुई। मुझे बहुत इच्छा थी कि ये उत्साह मैं किसी के साथ बाँटू। मेरी खुशकिस्मती कि मेरे कुछ अद्भुत दोस्त हैं जिनके साथ मैंने ये खुशी बाँटी।
हम तब तक अजनबी बने रहे जब तक कि एक दुर्घटना में उसका पैर टूट ना गया। मैंने अपनी माँ को बताया तो उन्होंने मुझे जाकर उसका हाल पूछने को कहा। मैं खुश थी कि मुझे उससे पहली बार बात करने का मौका मिल रहा था, अपना परिचय देने का, उसका नाम पूछने का। पहले मैं घबरा रही थी लेकिन फिर उसे अपने से बस पाँच फुट की दूरी पर देख, मैं उत्तेजित हो उठी। ये हमारी दोस्ती की शुरुआत थी।
कॉलेज-पढ़ाई-घर और मेरा ये तथाकथित प्रेम प्रसंग, कुछ समय के लिए मेरे जीवन की दिनचर्या बन गई थी। जब मुझे ये पता चला कि उसने विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में गग्रेजुएशन किया है, तो मैं रोमांचित हो उठी। भगवान ने मुझे एक निजी ट्यूटर और जीवन साथी, दोनों पड़ोस में ही दे रखे थे। मैंने अपने माता-पिता से पूछा कि क्या मैं उससे अपनी पढ़ाई में मदद ले सकती हूँ। मेरी माँ को यह विचार बिल्कुल पसंद नहीं आया क्योंकि वह मेरी किशोरावस्था की उत्तेजना को स्पष्ट रूप से समझ रहीं थीं। लेकिन उन्हें यकीन था कि मैं उनका भरोसा नहीं तोड़ूंगी , इसलिए वो मान गईं।
उसके ठीक होने के बाद हमने साथ बैठना शुरू किया। उस दौरान ही मेरी भावनाएं और तीव्र हुईं और जैसे मेरे पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगीं। मुझे विश्वास था कि मुझे जो हो रहा था, वह प्यार ही था। वो वार्तालाप, थोड़ा बहुत छूना और अंतरंग क्षण, मेरे अस्तित्व में समा गए थे। हमने एक दूसरे को अपने बचपन, परिवार, दोस्तों, कार्य और कॉलेज के बारे में बहुत कुछ बताया। जब तक हमारी जाति (मैं एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से हूँ लेकिन वो नहीं), हमारे बीच चर्चा का विषय नहीं थी, तब तक सब कुछ सुंदर लग रहा था।
उसके लिए मेरी मज़बूत भावनाओं ने मेरी दादी, माता-पिता और रिश्तेदारों के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल दिया। वे सभी मेरे लिए कम महत्वपूर्ण हो गए और अनजाने में मैं उसके अधिकारात्मक भाव में फँसती चली गयी।
उसी दौरान जब मैं अपने एक कजिन से मिली तो उसने मेरा तनाव भांप लिया। बहुत विचार के बाद, मैंने उसे अपने जीवन में चल रहे इस प्रसंग के बारे में बताया। उसने कहा, "तुम आकर्षण को प्रेम समझ रही हो। प्रेम आपको आजादी देता है ना कि परेशानी।" जब कोई ऐसी बात कहता कि वो मेरे लिए सही लड़का नहीं है, तो मेरे कान अपने आप ही बंद हो जाया करते थे।
इस कहानी का एक दुखद अंत हुआ। वह मुझे अपने माता-पिता को हमारी शादी के लिए मनाने का आश्वासन देकर अपने होमटाउन गया। लेकिन फिर उसने फ़ोन पर ये खबर दी कि उसकी सगाई किसी और के साथ हो गई है। मैंने अपने लिए कई सपने रचे थे, लेकिन वे सब बेदर्दी से समाप्त हो गए।
मेरी रातें नींद से परे, अनियंत्रित आँसुओं में डूबी रहने लगीं। मैं खुद को बेवकूफ, मूर्ख, निराश, उदास, भयभीत और शक्तिहीन महसूस करने लगी। । पहले तो मैंने अपने को थोड़ा खुश और संतुलित रखने के तरीके आजमाए, लेकिन ऐसा कोई तरीका नहीं था जो मुझे उस भयानक निराशा या भय से बचा सके। मैं भाग्यशाली थी की मेरे पास कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने मेरी बात सुनी और मुझे समझाया कि दुनिया यहीं खत्म नहीं होती। मुझे मेरा पसंदीदा नारा (स्लोगन) याद दिलाया गया, "जो होता है, अच्छे के लिए होता है"। और जो मुझे विफलता और अस्वीकृति जैसा लग रहा था, वह वास्तव में मेरी आज़ादी थी - मेरे परिवार के साथ मेरा रिश्ता सुधरने लगा। मैं अब कभी भी किसी भी कीमत पर प्यार नहीं पाना चाहती थी। मैं ऐसा नहीं चाहती थी कि 'वो मेरा सब कुछ बन जाए और बाकी सब चीज़ों की महत्वत्ता कम हो जाए ।'
हमने एक-दूसरे के साथ तब तक संपर्क बनाए रखा जब तक हम आश्वस्त नहीं हो गए कि हम उस भावनात्मक अनुभव से बाहर आ चुके थे और जीवन में आगे बढ़ना चाहते थे। इसके बावजूद, मेरे लिए इस विकसित हो चुके लगाव को छोड़ना कष्टदायक था। मैं अपने भगवान पर विश्वास रखती थी इसलिए मुझे पता था कि ये दर्द ज़्यादा दिन नहीं रहेगा। मैंने ईमानदारी से उसकी सफल शादी की कामना की और अपने जीवन में आगे बढ़ी।
लेकिन इस विदाई के बाद वाले खालीपन को मैं कैसे भरती। मुझे अपनी आजादी तो मिल गई थी, लेकिन मैं उस विशेष महत्वता को प्राप्त करने के लिए, प्यार और अंतरंगता की गहन भावनाओं के लिए तरस रही थी। कल्पनाओं ने मेरे खाली मस्तिष्क को संभाला और एक बार फिर मैं किसी काल्पनिक प्रेमी के प्रेम में पड़कर खुश रहने लगी। (याद नहीं आ रहा वो कौन था, शायद कोई उस समय का पसंदीदा अभिनेता रहा होगा)।
लेकिन तब मुझमें इतनी हिम्मत आ गयी थी कि मैं अपनी दादी और माता-पिता, जो उस समय मेरे लिए लड़के तलाश कर रहे थे, के सामने खुलकर अपने विचार रखूँ। अगर मुझे शादी का कोई प्रस्ताव पसंद नहीं आता था तो मैं ना कहने से डरती नहीं थी। इस प्रकरण के तीन या चार साल बाद, मैंने रवि से विवाह किया। तब तक, उस पड़ोसी की यादें शायद ही मुझे कभी परेशान करतीं थीं।
रवि
हमारी अरेंज्ड मैरिज थी, और सब कुछ बहुत जल्दी में हुआ। पहली मुलाकात के एक सप्ताह बाद हम शादी कर चुके थे।
हमारी सगाई से पहले रवि और मैंने केवल चार घंटे ही बात की थी। उसने मुझे बताया था कि कुछ समय पहले ही उसका ब्रेक-अप हुआ था। वो ब्रेक-अप मुश्किल से पांच या छह दिन पुराना था। उसके माता-पिता ने उस लड़की को कुछ महीने पहले पसंद किया था। वह उस लड़की के साथ काफी घुल-मिल गया था और वो दोनों एक दूसरे से प्यार भी करने लगे थे। वे शादी के लिए और इंतजार नहीं करना चाहते थे। वास्तव में वह उस से शादी करने इंडिया आया था, लेकिन फिर रवि की शादी मुझसे हो गई।
मुझे उसका यूँ एक नए इंसान से खुलकर बात करना पसंद आया। उसने मुझे आश्वासन दिया कि उसके पिछले अनुभवों का हमारी शादी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैंने इस ब्रह्मांड की इच्छाओं के सामने आत्मसमर्पण किया और उस प्रवाह के साथ आगे चल पड़ी। हमने एक नव-विवाहित जोड़े की तरह अपनी यात्रा शुरू की।
मुझे उसके लिए प्रेम या प्रेमासक्ति जैसी भावनाएं तब नहीं आईं।।बहुत लंबे समय तक हम एक दूसरे के प्रति किसी भी तरह का प्रेम या शारीरिक आकर्षण महसूस नहीं करते थे। फिर भी एक तरह का लगाव (कनेक्शन) था। हम अपने रिश्ते का निर्माण, धन का प्रबंध, घर बनाए रखने और समान रुचियों का विकास करने में व्यस्त हो गए। हमें एक दूसरे का साथ अच्छा लगने लगा। साथ टहलना, लंबी ड्राइव पे जाना, बातें करना, ये सब पसंद आने लगा था।
आज हमारी शादी को 12 साल हो चुके हैं और इन 12 सालों में हम अपने जीवन में एक साथ काफी बड़े बदलाव लाये हैं: काम, घर, क्रीड़ा, हर क्षेत्र में। बहुत सारी अनिश्चितताऐं, जिनपर हमने विजय पाई है।
शादी के एक या दो साल के भीतर ही मैं फिर से उस जाल मैं फँस गई कि "यही मेरा सब कुछ है"। यह बचपन की ट्रेनिंग का असर रहा होगा। मुझे ये विश्वास हो गया था कि "रवि मेरे जीवन में सब कुछ है और अन्य सभी चीजें गौण हैं।" मैं जब भी उसके लिए अपनी ज़रूरतों के साथ कोई समझौता करती, मुझे परेशानी महसूस होती थी। लेकिन मैं उस बेचैनी का कुछ हल नहीं निकाल पा रही थी। मेरे लिए सबसे ज़रूरी था कि मैं उसके करियर बदलाव संबंधित फैसलों का समर्थन करूँ, और उसकी यात्रा में शामिल होकर बदलाव से आई अनिश्चितताओं का समाधान करूँ।
जब आप खुद किसी सफर के मुख्य नायक नहीं हैं, बल्कि किसी और की सहायता कर रहे हैं, तो जानी- मानी स्थितियों से अनजान स्तिथियों की ओर जाना आसान नहीं होता। यह ज़िंदगी से काफी समझौते करने की मांग करता है - जो मैंने किये हैं। और हमेशा की तरह, भावनात्मक संकट के ऐसे क्षणों में मेरी कल्पनाएं मेरी आँखों के सामने खड़ी हो जाती हैं। उन दिनों मैं एक दोस्त और एक पिता के साथ रहने की कल्पना करने लगी। मैं फिर से अभिनेताओं के ख्वाब देखने लगी। कभी-कभी चिरंजीवी के (पिता के रूप में), टॉम क्रूज़ के (दोस्त के रूप में), तो कभी-कभी मुझे लगता था माधवन मेरे साथ (फिर से दोस्त के रूप में) थे। मेरी कल्पना में मुझे लगता था कि मैं एक सुरक्षित दुनिया में रह रही थी, जहां हर जगह केवल एक दूसरे का ख्याल और एक दूसरे के प्रति प्रेम था। मेरा एक हिस्सा, हमेशा (24/7) मेरे मन के अंदर एक गुप्त रोमांटिक दुनिया में उस दोस्त के साथ गहन क्षणों को लेकर कल्पना किया करता था।
मैं समझ नहीं पाती थी कि ये काल्पनिक दृश्य इतने प्रबल कैसे थे। मैं कभी स्वीकार नहीं कर पाई की मैं कुछ मिस कर रही थी। मैं तो इस आत्मग्लानि में रहती कि इस तरह की मीठी कल्पनाएं करके मैं रवि के प्रति निष्ठावान नहीं थी। मेरी कल्पनाओं ने मुझे लगभग पांच साल तक दोषी महसूस कराया, और मैं अपनी काल्पनिक दुनिया से लड़ने की कोशिश करती थी।
सौभाग्य से, मैं अपने मुद्दों और संघर्षों को रवि के साथ बांट पाती थी। इसलिए नहीं कि उसके पास हर सवाल का समाधान था, बल्कि उससे ये सब बेचैनी बाँटकर मैंने ये सीखा कि अतिसंवेदनशीलता कमज़ोरी की निशानी नहीं होती है।
रवि ने मुझे यह समझने में मदद की कि किस तरह मेरी दादी वाले निर्देश - की घर की खुशहाली के लिए पति पथ पर ही चलना होगा- मेरे मन पर हावी हो गए थे। उसे ये स्पष्ट दिख रहा था कि मेरी अशांति उन सभी समझौतों का परिणाम है जो मैंने उसकी यात्रा को आसान बनाने के लिए कीं थीं। वह मुझे अपनी पसंद की चीज़ें करने और उनमें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया करता था। उसे यह बात पसंद थी कि मैं उसकी गतिविधियों का समर्थन करती थी, यहां तक कि मैंने उसे मुख्यधारा से दूर एक मुश्किल रास्ता चुनने की सलाह भी दी थी। ये हो सकता था कि मेरी नई रुचियां हमें अलग-अलग दिशाओं में ले जातीं। मैं उसके जीवन से हमेशा के लिए निकल सकती थी। लेकिन इसके बावजूद उसने मुझे लोगों से मिलने के लिए प्रोत्साहित किया, चीजें सीखने में मदद की, जिससे मैं अपने उन मुद्दों का समाधान कर सकी।
धीरज
पाँच साल पहले मुझे फिर से आकर्षण का अनुभव हुआ। मैं तीस साल के आसपास की थी और मेरे विवाह को सात साल हो चुके थे। मैं एक हफ्ते के लिए किसी कार्यशाला ( वर्कशॉप) का हिस्सा थी और एक बार फिर से मुझे एक व्यक्ति के लिए क्रश और प्यार जैसी भावनाओं की तीव्रता महसूस हुई। चलो उसका नाम धीरज रखते हैं।
कार्यशाला वर्कशॉप का उद्देश्य हमारी भावनाओं को पहचानना और उनके प्रति ईमानदार होना था। मुझे एक शख्श के लिए कुछ महसूस हुआ और मैंने कार्यशाला के आखिरी दिन उसे ये बयान भी किया। उन पाँच दिनों में वो जानना - पहचानना, प्रशंसा करना, और दूसरे व्यक्ति के स्वामित्व की भावना, सब शामिल थीं। वो अद्भुत महत्वपूर्ण होने की, और ‘खास ध्यान’ मिलने वाली भावनाएं फिर से उजागर हों उठीं।
इस अनुभव के खत्म होने के बाद भी महीनों तक ये एक साये की तरह मेरा पीछा करता रहा। ये अभी भी होता है जब मेरा मन फ़्लैश बैक में जाता है। काश मैं उससे पूछ पाती कि घर जाने के बाद उसने इसका सामना कैसे किया। मुझे उसे और मेरी जिंदगी में फिर से प्यार की भावनाओं को खोनेे से काफी दर्द और निराशा हुई। हमारी साधारण कहानी का अंत फिल्म’ मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’ के अंत से अलग नहीं था।
कभी-कभी मुझे उसके बारे में इतनी चिंता होती थी कि मैं उसका हाल जानने के लिए बेचैन हो उठती थी। लेकिन नहीं, मैंने अपना फोन नहीं उठाया और ना ही कभी उसका नंबर डायल किया। एक बार फिर मेरे मन में काफी सारे सवाल उठे।अगर मुझे इस उधेड़बुन की स्थिति में निरंतर नहीं रहना था तो मैं ऐसी स्थितियों को आखिर आमंत्रित ही क्यों करती थी ।
समय ने कुछ उपचार किया हैे और मैं अधिक परिपक्व हो गई हूँ। मैंने और ज़िंदगी देखी है और इन भावनाओं को कुछ हद तक स्वीकार करना शुरू कर लिया है। रवि वास्तव में मेरे जीवन के लिए एक उपहार से कम नहीं है। वही एक व्यक्ति है जिससे मैं अपनी निजी से निजी बात भी शेयर करती हूँ। उसे पता है कि कब और कैसे वह मेरा दोस्त बने और कब पति। बेशक, जब मैंने उसे बताया कि मुझे किसी और के साथ एक कनेक्शन महसूस हुआ तो उसे बुरा लगा। लेकिन इसके तुरंत बाद, हममें से एक ने इसे और अधिक परखना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति में ऐसा क्या था जो इतना आकर्षक था? क्या हमें हमारी शादी बेहतर बनाने के लिए कुछ बदलाव लाने की आवश्यकता थी।
मुझे पता है कि रवि और मेरे उस आकर्षण के पात्र की तुलना एक सेब और संतरे की तुलना करने जैसा है। मैं हरगिज़ ये उम्मीद नहीं करती कि रवि उस व्यक्ति जैसे बन जाएं, लेकिन मैं आम तौर पर उसे बताती रहती हूँ कि क्या मुझे आकर्षित करता है और क्या नहीं। अगर रवि को लगता है कि उसके अपने व्यवहार में कुछ बदलाव लाने से मेरा जीवन बेहतर हो सकता है तो वो ऐसा करता है। अन्यथा वो लंबे समय तक मेरे ‘वापस आने’ का इंतज़ार करता है।
तो मैं (क्रश) प्रेमासक्ति के बारे में क्या सोचती हूँ?
मेरी समझ ये रही है कि एक क्रश हमें ये बताता है कि हम कौन हैं, हमारी पसंद क्या है और हम कैसे लोगों के साथ अच्छी तरह घुल- मिल सकते हैं। यह एक भ्रम भी पैदा करता है कि हम हर समय सुरक्षित, प्रिय और वाँछनीय हैं। कि जैसे हमें अपने बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है और यह केवल उस व्यक्ति का सिरदर्द है जिसे हम प्यार करते हैं। ये भावनाएँ हमें ये यकीन दिलाती हैं कि हम सुंदर, अनोखे और परफेक्ट हैं।
भ्रम (कुछ मामलों में) देर तक टिक सकते हैं, लेकिन आज या कल, वास्तविकता सामने आ जाती है। और ऐसा तब होता है जब चीजें मुश्किल हो जाती हैं। अगर हम परिपक्वता और अलगाव की भावना के साथ स्थिति का समाधान ना करें तो यह और भी कठिन हो सकता है।
मेरी कल्पनाएं, मेरे दोस्त, मेरी शादी, और कई लोग जिनसे मैं कार्यशालाओं में मिली, और मेरे शिक्षक जिन्होंने विपासना के दौरान मुझे इन चीजों के बारे में बात करने में मदद की - उन सबने मुझे कई अमूल्य उपहार दिए हैं।
सच्चाई यह है कि इन अनुभवों ने मुझे निज के साथ संपर्क में आने में मदद की, मेरी ताकत और कमजोरियों ने मुझे मेरी जरूरतों, इच्छाओं और मेरे लिए जो महत्वपूर्ण हैं, उन लोगों की इज़्ज़त करना सीखाया। मैंने इस ज़मीन पर अपनी जगह हासिल करने के लिए जीवन में ईमानदार और निडर होना सीखा। इन अनुभवों ने मुझे एक बेहतर इन्सान बनाया, मैं सच्ची खुशी महसूस करने में सक्षम हुई क्योंकि मैंने खुद को असली दुख महसूस करने की अनुमति दी। उन्होंने मझे मजबूत बनाया क्योंकि मैं अस्वीकृति का सामना कर रही थी ना कि अपनी भावनाओं को नकार या दबा रही थी।
निराशा में, मैं संवेदनशील हो जाती थी और मैंने उस अतिसंवेदनशीलता को अपनाना सीखा। मैंने सोसाइटी के सही-गलत के आधार में खुद को कैद करने के बजाय जीना, जीवन और उससे जुड़ी भावनाओं का आदर करना सीखा। जीवन में जितने भी रिश्ते हैं - जो कि मोनोगैमी से लेकर बहुआयामी तक बने हैं- जीवन उन अनुभवों की एक श्रृंखला है जो अंततः हमें एक संकीर्ण अस्तित्व से निकाल बाहर करती है। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम इस बीड़े को उठाएं और एक मुक्त व्यक्तित्व हासिल करें।
श्रीप्रिया रवि कुमार (जो प्रिया रवि के रूप में जानी जातीं हैं) हैदराबाद में स्थित हैं। उन्होंने दृश्य संचार में विशेषज्ञता के साथ ई-लर्निंग क्षेत्र में कई वर्षों तक काम किया है। वर्तमान में, वह अपनी पांच वर्षीय बेटी दीक्ष्मी को होमस्कूल कर रहीं हैं। इसके अलावा वे प्राकृतिक अध्ययन के लिये दुनिया का भ्रमण करतीं हैं।
चुप-छुप के फिदा हो जाने की मेरी आदत ने मेरी लाइफ बदल दी !
श्रीप्रिया रवि कुमार द्वारा
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