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औरतों के यौन स्व-अधिकार (सेक्स को लेकर अपने फैसले खुद ले पाना ) से संबंधित कानून में कैसे-कैसे बदलाव आये हैं, आईये देखते हैं।

Sometimes the law is ahead of how people actually live, and sometimes it’s behind

हम अक्सर यह सोचते हैं कि कानून सभी सामाजिक समस्याओं का समाधान हैं। लेकिन असल में लोग कैसे जी रहे हैं, इन बातों से कानून कभी तो आगे चलता है, और कभी पीछे। जब औरतों के अपने निजी जीवन पर नियंत्रण रखने की बात आती है, तो सिर्फ समाज के साथ ही नहीं, बल्कि कानून के साथ भी एक ना ख़त्म होने वाली लड़ाई चलती रही है। लड़ाई इस बात को स्वीकार करने की, कि औरतें केवल अपने परिवार, जाति, समुदाय इत्यादि का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं, बल्कि खुद के लिए निर्णय लेने और खुद के लिए कुछ करने का अधिकार भी रखती हैं। यहां कुछ ऐसे उदहारण दिए गए हैं, जिन्हें पढ़ कर हम यह समझ पाएंगे कि यह संघर्ष किस प्रकार से औरतों के शारीरिक और यौन स्व-अधिकार से सम्बंधित कानूनों में बदलाव ला रहा है। सहमति (consent) और विवाह की आयु को बढ़ाना औरतों के  अधिकार को लेकर बात करें तो शायद ये सबसे सरल लेकिन सबसे व्यापक बदलाव है। 1860 में, भारत में एक महिला/लड़की के विवाह की जो न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित की गई थी, वह थी 10 साल! (20वीं शताब्दी में पहुँचने के बाद भी काफी सालों तक, कम उम्र की लड़कियों के कुमारावस्था में पहुँचने के साथ ही उनकी शादी करा देना एक आम बात थी। क्योंकि प्यूबर्टी/माहवारी का आना ये दर्शाता था कि लड़की अब बच्चे पैदा करने के लिए तैयार है।) अगले करीब 140 सालों में 2006 के बाल विवाह निषेध अधिनियम (prohibition of child marriage act) के तहत शादी की आयु 10 से बढ़कर 18 साल की गई। अधिकांश समय से, समाज और कानून दोनों ने विवाह के बाद ही सेक्स को सही (और कानूनी) माना है। 18 वीं शताब्दी के बीच में, कानून ने शादी के साथ, सहमति (consent) की भी एक 'उम्र' तय की।यानी  एक ऐसी उम्र जिसमें किसी को कानूनी रूप से सेक्स के लिए सहमति देने में सक्षम माना जाता हो। यह काफी नहीं था क्योंकि यह वैवाहिक रिश्तों के बाहर भी सेक्स को मंजूरी तो देता था, लेकिन वो इसलिए ताकि वो बलात्कार को बेहतर ढंग से परिभाषित कर सके। विवाह और सहमति की कानूनी उम्र 2006 तक बार-बार बढ़ाये जाने की बात उठायी गई। कानूनी रूप से तब शादी की उम्र 18 वर्ष की गई थी, हालांकि सहमति की उम्र 16 की ही रखी गयी। 2012 में जाकर यौन अपराधों से बच्चों को बचाने के अधिनियम (The Prevention of Children from Sexual offences- POCSO) के तहत इसकी सीमा भी बढ़ा के 18 साल कर दी गयी। सहमति और शादी के उम्र की सीमा को बढ़ाने का यह तर्क दिया गया कि जब किसी तरह का कोई स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए लड़कियों की उम्र बहुत कम हो, और सेक्स करने और प्रसव पीड़ा को झेलने के लिए उनका शरीर पूरी तरह से तैयार नहीं हो, तो उस स्थिति में उन्हें यौन संबंध बनाने के लिए या बच्चे पैदा करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा। हालाँकि, सहमति की आयु सीमा को 16 से 18 करने का भी विरोध हुआ है, क्योंकि कानूनी तौर पर ऐसा करना युवा लोगों के बीच सहमति से बनाये यौन संबंध को भी अपराध का नाम देता है। समलैंगिकता (homosexuality) को अपराध की श्रेणी से हटाना जब भारत पर उपनिवेशी राज्य था, तब से, सामान लिंग वाले एडल्ट के बीच में सहमति से होने वाले सेक्स को भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- I P C) की धारा 377 के तहत अपराध माना जाता था। सितंबर 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को "मनमाना" और "तर्कहीन" बताते हुए इसको खारिज कर दिया। हालाँकि धारा 377 का सन्दर्भ केवल सेक्स से है, लेकिन समलैंगिक प्रेम संबंधों को पहचान दिलाने के लिए भी कोर्ट में पूरी कोशिश की जा रही है। समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में नहीं गिनने से LGBTQ समुदाय को काफी फर्क पड़ा है। और इसका मतलब यह भी है कि यौन संबंध से जुड़े किसी भी लिंग के प्रति झुकाव रखने वाली औरतों को यह आज़ादी है कि वो अपने रोमांटिक और सेक्सुअल पार्टनर आजादी से चुन सकें, बिना इस डर के कि उन्हें इसके लिए अपराधी समझा जाएगा। लिव-इन रिलेशनशिप की कानूनी स्वीकृति कोर्ट ने अक्सर बिना शादी किये भी एक साथ रहने वाले कपल्स के अधिकार का समर्थन किया है, भले ही लिव-इन को सम्बन्ध को लेकर या उसको परिभाषा देने वाला कोई विशिष्ट क़ानून मौजूद नहीं है। 2013 में, लिव-इन रिलेशनशिप्स को रेफर करने के लिए एक कानून का विस्तार किया गया: 2005 की औरतों की घरेलू हिंसा से सुरक्षा के लिए बनी प्रोटेक्शन ऑफ़ वीमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट (Protection of women from domestic violence act - यानी  घरेलु हिंसा से औरतों का बचाव) इस एक्ट में केवल शारीरिक हिंसा शामिल है, बल्कि भावनात्मक / मौखिक, यौन सबंधी और आर्थिक शोषण, दहेज के लिए उत्पीड़न, और हिंसा की धमकी भी शामिल है। घरेलू हिंसा के खिलाफ भारत में जो क़ानून बने, बहुत पहले नहीं बने - सबसे पहला कानून 1961 में बना था। हाल में घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत लिव-इन रिलेशनशिप्स को सम्मिलित करना एक छोटा कदम हो सकता है, लेकिन यह महत्वपूर्ण भी है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह एक रिश्ते के अंदर महिलाओं की सुरक्षा के अधिकार को मान्यता देता है, भले ही वो रिश्ता सामाज के स्वीकृत ढांचे- यानी शादी - के बाहर ही क्यों हो। देह व्यापार (sex work) का अपराधीकरण भारत में देह व्यापार का कानून से एक लंबा और पेचीदा रिश्ता रहा है - और यह कानून एक तरीके से थोड़ा पिछड़ ही गया है। ब्रिटिश राज के दौरान वेश्यावृत्ति को कभी-कभी तो जोर-शोर से प्रोत्साहित किया जाता था।और सेक्स वर्कर्स को लाइसेंस भी दिया जाता था और नियमित रूप से इनके स्वास्थ की जांच भी हुआ करती थी! 1930 दशक के अंत तक प्रोस्टीट्यूशन - सेक्स का काम- लीगल था। 1956 में, इम्मोरल ट्रैफ़िक ( सरप्रेशन) ((Immoral Traffic (Supression)-यानि अनैतिक सौदागरी को रोकने का एक्ट )एक्ट के तहत सार्वजनिक और संगठित सेक्स के काम (वेश्यालय में काम करने या वेश्यालय चलाने) को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन इसमें इतनी आज़ादी दी गयी कि अगर यह निजी तौर पर और स्वेच्छा से किया जा रहा हो तो इसमें कोई परेशानी नहीं है। और इतने सालों के बाद भी यही चलता रहा है। एक नया विवादास्पद बिल जिसे ट्रैफिकिंग ऑफ पर्सन्स (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शन एंड रिहैबिलिटेशन) (( Trafficking of Persons ( prevention, protection and rehabilitation)इंसानों की सौदागिरी ( रोकना, बचाव, और बहाली) का एक्ट) बिल कहा जाता है, को लोकसभा ने जुलाई 2018 में पारित कर दिया था, लेकिन अभी तक यह कानून नहीं बन पाया है। कई लोग इस बिल का कई कारणों से विरोध भी कर रहे हैं, क्यूंकि उनका मानना है कि इस बिल में कहीं भी स्पष्ट रूप से स्वैच्छिक सेक्स और जबरन सेक्स के बीच के अंतर नहीं दिखाया गया है। उनका मानना है कि इस बिल में देह व्यापार को सिर्फ नैतिकता के चश्मे लगाकर देखा गया है। व्यभिचार (Adultery) कानून का ख़त्म होना भारत में एक अजीब कानून (पुराने ज़माने की एक और निशानी) था जिसमें व्यभिचार (Adultery) को एक अपराध माना जाता था। और ये तब जब आप एक पुरुष हैं और किसी दूसरे पुरुष की अनुमति के बगैर उसकी पत्नी के साथ नाजायज़ सम्बन्ध बनाते हैं। भारतीय दंड संहिता (Indian Penal code- IPC) की धारा 497 के तहत, एक विवाहित महिला के साथ उसके पति की "सहमति या मिली भगत के बिना" बनाया गया यौन संबंध व्यभिचार (Adultery) माना जाएगा, भले ही उसमें महिला की मर्ज़ी शामिल हो। इसमें पांच साल की जेल या जुर्माना, या दोनों ही की सजा हो सकती है। सिर्फ पुरुषों को ही इस तरह के रिश्तों में अपराधी मानने के अलावा, यह कानून महिलाओं को उनके पति की संपत्ति भी मानता था। वो दर्शाता था कि महिलाएं खुद कोई निर्णय लेने में समर्थ नहीं है, और अगर वो निर्णय लें तो उसके दुष्परिणाम को भोगने के लिए तैयार रहें। आखिरकार सितंबर 2018 में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को खारिज़ किया। लेकिन व्यभिचार (Adultery) कानून को ख़त्म करते वक़्त, कोर्ट ने सहमति से बनाये गए यौन रिश्तों की आज़ादी को बरकरार रखा। विवाह से सम्बंधित मामलों में इस पर कम निगरानी रखी, और महिलाओं को वैवाहिक संबंधों के अलावा भी यौन संबंध बनाने की आज़ादी को स्पष्ट रूप से  मान्यता दी। कार्यस्थल/ वर्कप्लेस पर उत्पीड़न/हरासमेंट को दंडनीय अपराध मानना वर्कप्लेस पर होने वाले यौन उत्पीड़न की तरफ कानून का ध्यान 1997 में  विशाखा गाइडलाइन्स (जो भंवरी देवी मामले की  वजह से लागू हुए थे) के बाद ही आया। इन गाइडलाइन्स को 2013 में सेक्सुअल हर्रास्मेंट ऑफ़ वीमेन एट दी वर्कप्लेस Sexual Harassment of Women at the Workplace (Prevention, Prohibition and Redressal) Act.(यानी काम की जगह पर औरतों के सेक्सुअल उत्पीड़न पर रोकथाम, निषेध और निवारण) एक्ट द्वारा बदल दिया गया था। इस एक्ट के तहत वर्कप्लेस की परिभाषा का विस्तार किया गया और इसमें असंगठित (unorganized) क्षेत्र को भी सम्मिलित किया गया। इसमें इस चीज़ को भी गिना गया कि एक कर्मचारी कौन सी श्रेणी में शामिल है(पार्ट-टाइम कर्मचारी, इंटर्न्स, घरेलू कर्मचारी, सभी शामिल हैं अब इसमें ), और एक कंपनी की अपने कर्मचारियों के प्रति क्या जिम्मेदारियां हैं। इसमें उन नियमों का भी उल्लेख किया गया है जिसमें वर्कप्लेस पर हिंसा या उत्पीड़न के आरोपों से निपटने के लिए एक व्यवस्था हो। गौर करने वाली बात है कि, यह एक्ट वर्कप्लेस पर जेंडर के आधार पर होने वाले मतभेद को स्वीकार करता है और महिलाओं को नौकरी पाने के अधिकार को कायम करता है और यह एक्ट यह भी कहता है उन्हें भी एक श्रमिक / कर्मचारी / मजदूर की तरह ही देखा जाए - ना कि यौन क्रिया की एक वस्तु की तरह। यह एक्ट ये भी सुनिश्चित करता है कि महिलाओं को यह अधिकार रहे कि वर्कप्लेस पर उनकी तरफ किसी के भी अनचाहे यौन सम्बन्धी प्रयासों को वो इंकार कर सकें, और इस अधिकार की रक्षा की जिम्मेदारी भी कंपनी/एम्प्लायर की ही रहे। गर्भपात/एबॉर्शन की अनुमति देना कई सदियों तक, भारत में गर्भपात गैरकानूनी हुआ करता था, जब तक कि सवाल माँ की ज़िन्दगी को बचाने का ना हो। यह 1971 के  मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट (Medical Termination of pregnancy act) के साथ ही बदला गया, और इसके तहत 12 सप्ताह की गर्भावस्था होने से पहले गर्भपात की अनुमति (डॉक्टर की सलाह से) दी जा सकती थी। 20 सप्ताह की गर्भावस्था से पहले भी गर्भपात की अनुमत मिल सकती थी लेकिन इसके लिए दो डॉक्टर्स के राय की जरूरत होती थी। 2014 में इस कानून में संशोधन प्रस्तावित किए गए थे, जिसमें शामिल थे "विवाहित महिला और उसके पति"- इस शब्द को भी विस्तारित कर के "किसी भी महिला या उसके साथी" करना, बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए 24 सप्ताह तक के गर्भपात की अनुमति देना और भ्रूण में किसी प्रकार की ठोस विषमता पाए जाने पर भी गर्भपात की अनुमति देना। वैसे, ये संशोधन अभी तक पारित नहीं हुए हैं। अपने बच्चों पर कानूनी रूप से गार्डियनशिप का अधिकार भारतीय कानून (हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ भी) पिता को ही अपने बच्चों के "नेचुरल गार्डियन" के रूप में देखता है। माँ को अभिभावक होने का सामान अधिकार नहीं दिया जाता, भले ही वह अकेली या बिन-ब्याही माँ हो। यहां तक कि अगर माँ अपने बच्चे के पासपोर्ट के लिए अप्लाई करे, तो वो तभी संभव है जब पिता या तो मर गया हो, या अभिभावक होने का फ़र्ज़ निभाने में असमर्थ हो। पिता का नाम कई प्रकार के डाक्यूमेंट्स में लिखना भी ज़रूरी हुआ करता था। 2015 में, ABC बनाम The State (दिल्ली के NCT ) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक बिन-ब्याही माँ को अपने बच्चे के पिता की सहमति के बिना ही उसकी एकमात्र कानूनी गार्डियन होने की अनुमति दी। हालाँकि, असल में गार्डियनशिप कानूनों में संशोधन नहीं किया गया है, लेकिन अदालतों ने माना है कि सिंगल महिलाएं भी बच्चों की "नेचुरल गार्डियन" हो सकती हैं। और 2017 में, महिला और बाल विकास मंत्रालय (Ministry of Women and Child Development) ने कहा कि वह सभी पर्सनल लॉ को बदलना चाहती थी ताकि माँ को ही बच्चे का नेचुरल गार्डियन माना जाए, ना कि पिता को।
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