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मर्ज़, मरीज़, और मर्ज़ी - एक सफर

शादीशुदा या लम्बा रिश्ता न होना एक मर्ज़ क्यों बन जाता है ?

मुझे तो प्यार कहीं और कभी भी हो जाता था - स्कूल के खाली ग्राउंड पे |  तारों भरे आसमान तले , झील के किनारे| किसी अजनबी के साथ बार में, या उम्र में बड़े क्लाइंट के साथ| किसी रेस्टोरेंट के रेस्टरूम में या फ़िर ऑफिस  में |  माँ के बेडरूम में| उसके बिस्तर पे,  जहां वो अपनी बीवी के साथ सोता है या फ़िर किसी पार्टी में मिले बंदे की कार में| फ्लाइट्स से लेकर होटल रूम्स तक| मेरे मंगेतर के पीठ पीछे, सहकर्मी, दोस्त, अजनबियों के साथ| आग लगा देने वाले किस्सेज़, मेक आउट सेशंस और सेक्स – कभी कॉन्डोम के साथ तो कभी कॉन्डोम के बिना ही|  दो बार अबॉर्शन कराये ,एक सगाई टूट गयी, शादी नहीं हुई, कोई बच्चे नहीं हैं| दारु और दम के नशे के साथ, रोमांस की फैंटसी दुनिया के सुरूर पे जी रही थी  | मैं तैंतालीस साल की हूँ| मुझे दारु की लत लग गयी  थी| जिससे उबर रही हूँ| पर इश्क की लत अब भी सर पे सवार है| मुझे ADHD है, यानि Attention Deficit Hyperactivity Disorder /अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिस्ऑर्डर, एक मानसिक दिक्कत जिसमें मन की चंचलता बहुत बढ़ के परेशान करती है | जिसके कारण मैं किसी भी चीज़ पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाती | अब जब छोटी थी, तो मैंने थोड़े ही सोचा था कि मेरा भविष्य इन लेबल से भरा होगा | बड़े होते वक़्त मुझे ये नहीं लगता था कि मैं औरों से अलग हूँ...अपनी माँ मौसियों, चचेरी बहनों,  क्लास की बाकी  लड़कियों , बॉलीवुड की हीरोइन या रोमांस नोवल की किरदार जैसे,  मैं सोचती थी कि मेरी लाइफ में शौहर होगा, बच्चे होंगे, हमारे घर में एक  पालतू  कुत्ता होगा | और हाँ,  चूँकि हम नए जनरेशन से थे, एक करियर भी संभालना होगा | मैं शर्मीली और चुप रहने वाली टाइप की थी| पर मेरे पिताजी की जॉब ऐसी थी कि हर दो साल में ट्रांसफर हो जाता था| जिसकी वजह से मुझमें स्थिति और समय अनुसार खुद को ढालने का हुनर आ गया था| और लोगों से बात करके उनका दिल जीतना भी| पर एक सेकंड....   प्रॉब्लम “क्या  है? तुम एक भी रिलेशनशिप संभाल क्यों नहीं पाती हो?” “कोई भी लड़का तुमसे प्यार करके, तुमसे शादी क्यों नहीं करना चाहता? सबको उनका साथी मिल गया है, सिवाय तुम्हारे|” “स्मार्ट हो, सुन्दर हो, सफल हो, मज़ेदार हो| सब कुछ एक दम बढ़िया है l सिवाय मर्दों में तुम्हारी पसंद |” “तुमको सिर्फ़ शादीशुदा मर्द ही क्यों पसंद आते हैं?” इतने नेगेटिव रोल में अपने को क्यों ढाल रही हो? तुमसे ऐसे फीलिंग आती है जैसे तुम नागिन बन के, घर को डस लोगी, घर तोड़ डालोगी |”   जैसे जैसे मैं बढ़ती गयी, वैसे वैसे मेरे दोस्तों की, फैमिली की, पुराने आशिकों की, बॉयफ्रेंड्स की अनगिनत आवाजें मेरे ज़हन में एक तूफ़ान सी बढ़ती गयीं | पर सबसे ऊँची आवाज़ मेरी खुद की थी|   जब भी मैं, एक टूटे रिश्ते से दूसरे में जाती, तो खुद से सवाल करती मुझमें क्या कमी है? जो चीज़ें  मेरे आसपास के लोग बड़े आराम से कर सकते हैं, मैं क्यों नहीं कर पाती हूँ? और सबसे इम्पोर्टेन्ट बात, जो मुझपे गुज़रती है, उससे मैं कुछ सीख क्यों नहीं पाती, जिससे अगला रिश्ता संभल सके? मेरी एक भी रिलेशनशिप ऐसी क्यों नहीं थी, जिसका अंजाम शादी था? मेरे में ही कुछ लोचा होगा | जैसे पहला बताया,  प्यार तो मुझे बचपन से ही हो जाता था|  पहला क्रश पाँच साल की उम्र में हुआ | उसका नाम तो याद नहीं, पर हम दोनों क्लास मॉनिटर थे| एक दूसरे को क्लास के अंदर ही दौड़ाते थे| वो मेरा पहला इश्क़ इश्क़ ! दिल को सुकून देने वाली फीलिंग के साथ, थोड़ा करेंट लगा देता, आपको थोड़ा जगा सा देता | उस वक्त मेरे पास इसके लिए नाम नहीं था| पर किसी के ऊपर क्रश होना, मेरी सबसे मनपसंद फ़ीलिंग थी| और चीज़ों में वो मज़ा नहीं आता | मेरी पूरी स्कूल लाइफ़ एक क्रश से दूसरे क्रश होने में ही निकला गयी | इसके बारे में ना कभी बात की, न किसी को मेरी फ़ीलिंग्स के बारे में बताया | जिनपे दिल आया था, उनको तो बिलकुल ही नहीं | इन से मेरी अंदर की दुनिया जगमगा जाती थी, बस !  जैसे जैसे मैं बड़ी होती गयी, मन करता कि किसी तरह इस प्यार वाली फ़ीलिंग का, इस ख़ुशी का, इज़हार कर पाऊं | मेरा पहला किस एक बार में था l  उस शाम मैं पहली बार दारु के नशे से धुत भी हो गयी l 18 साल की थी, वो 21 का, सुन्दर- सुडोल, और मुझे आशिक की नज़र से देख रहा था l  एक साथ पीते हुए हमें पता चला कि हम दोनों के जो पिता थे, उनका देहांत एक ही दिन, एक ही साल को हुआ था l उसका और मेरी माँ का जन्मदिन एक था, उसकी बहन और मेरा नाम एक था ! ये तो कायनात की करनी थी ! मुझे मेरा साथी मिल गया था ! वो किस मुझे ख़ास याद नहीं ( बाद में बियर की वजह से टॉयलेट में उल्टी की थी, किस की वजह से नहीं ) l और फिर पता चला, उसकी तो पहले से गर्लफ्रेंड है l पर मैं नए अहसास में डूबी हुई थी- किसी और से कनेक्शन बन जाना, चाहा जाना, छुए जाने का सुरूर और आराम l वो जो फीलिंग थी न, मैं तबसे उसके साथ कभी डिस्को, कभी भंगड़ा कभी टैंगो करते आ रही हूँ l उस अहसास और मेरे बीच कोई परदे नहीं l  सब कुछ ठीक ही चल रहा था, लेकिन फिर मैंने रिश्तों की दुनिया में एंट्री ली ! उफ्फ ! मेरी पहली 'ढंग की ' रिलेशनशिप एक साल चली l पहली बार सेक्स किया और उससे इतनी बढ़िया फीलिंग आयी - कनेक्शन बनाने की वो चाहत कुछ और बढ़ गयी l जब हमारा ब्रेक अप हुआ, मुझे याद है कि उसने मुझसे कहा कि हमारा रिश्ता और गहरा नहीं बन पा रहा है l वो जब भी मेरे करीब आना चाहता या मुझसे वो डरावना सवाल पूछना चाहता - कि मुझे कैसा लग रहा है ... मैं झट से मुंह फेर कर चालू अंदाज़ में कह देती कि ' आई लव यू 'l सच तो ये था कि मैंने खुद से ही ये सवाल नहीं किया था, तो इसे किसी दूसरे को बयान करना तो उस समय मेरे लिए पॉसिबल ही नहीं था l  उस पहली रिलेशनशिप के बाद, मैंने आधी, तिहाई, चौथाई टाइप की रिलेशनशिप की श्रंखला ही बना डाली l एक बार शादी करने के करीब ज़रुर आयी, पर जैसे मेरे अंदर कुछ था जो किसी भी हाल में शादी को रोकने पे तुला था l बात सीरियस होने लगती तो मैं वहां से चली जाती, और उस एक केस में तो, मानो फेरों  होने की देर थी कि मैं कट ली l हमेशा अगले मोड़ पे कोई ऐसा मिल जाता जिससे मेरा दिल बहल जाता l मुझे गलत न समझो, उस समय ये सारे बहलावे काम आये l सबने साथ दिया l मेरे अंदर कनेक्शन बनाने की जो ज़रुरत थी, जुड़ जाने की जो ज़रुरत थी, थोड़े समय के लिए ही सही, पर इनसे पूरी हुई l और किसी आदमी का मेरी ओर आकर्षित होना, ये तो अपने आप में जैसे एक प्रमाण पत्र था, उससे ही नशा सा आता था l  मुझे ये समझने में बहुत टाइम लगा कि यहां जो हो रहा था, बस एक 'बहलावा ' ही था l मैं किस बात से अपना मुंह मोड़ रही थी कि मुझे बहलावे की ज़रुरत पड़ रही थी ? जब ये सारे बहलावे  ख़त्म हो जाएँ, फिर क्या होगा ? मुझे इन सारे सवालों के जवाब मिलने वाले थे, पर पहले इन बहलावों को फेल होना होगा l और ऐसा ही हुआ l सबसे पहले दारू ने काम आना बंद किया l हैंग ओवर, दारू की हालत में दंगा, सब कुछ बद से बदतर होने लगा, और मेरे आस पास के लोग इसपे ध्यान देने लगे  l मेरी एक दोस्त ने कहा "तुमको देख कर मेरा दिल टूटता है "l सच ही कहा l हालात और बिगड़े l आखिर मैंने वो मदद ली, जिसकी मुझे ज़रुरत थी और आज, मुझे दारू छोड़े 8 साल हो चुके हैं l पर अब भी बेचैनी थी l जो फीलिंग्स मैं दबाना चाह रही थी,  अब उन्हें दबाने के लिए दारू नहीं थी l तो फिर मैं अलग अलग थेरपी, सेल्फ हेल्प की किताबें, ज्योतिष, न्यूमरोलोजी, अपने अंदर के बच्चे को शांत करना, रेकी, सम्मोहन वाली थेरेपी, पिछली ज़िंदगी का अनुमान वाली थेरेपी, चालू ज़िंदगी के बारे में लिखने वाली थेरपी, नई नई एक्सरसाइज, नए डाइट, ध्यान करने के नए तरीके ... समझ गए न मेरी क्या हालत थी l दारू छूट गयी थी पर अब भी लग रहा था कि किसी बात  से भाग रही हूँ, जाने किस बात से l अब मुझे याद आता है कि शराब बंद करने के बाद, मुझपे शर्मिंदगी साया बनके मंडराने लगी थी। एक असफलता का अहसास, कि मैं वो नहीं बन पाई थी जो दुनिया चाहती थी कि मैं बनूँ - एक बच्चों वाली शादीशुदा औरत, जो सफल कैरियर में सेटल्ड हो। मुझे यह समझने में कुछ वक़्त लगा कि शर्म की यह फ़ीलिंग मेरी अपनी नहीं थी। मेरा मतलब है, मुझे शर्म महसूस ज़रूर हुई, लेकिन हमेशा यही लगता था कि इस शर्म से परे कुछ और है और मुझे वहाँ तक पहुँचना है। मेरा पिछला रिश्ता कुछ महीनों पहले शुरू हुआ। हम दोनों किसी ऑनलाइन डेटिंग ऐप पर मिले। दस साल में पहली बार मैं किसी ऐसे बंदे को डेट कर रही थी जो ‘सिंगल’ था, जिसकी ना कोई बीवी थी, ना गर्लफ़्रैंड। हमारी पहली चैट पाँच घंटे चली, दूसरी में हमने सिक्सर मारा । हम दोनों में केमिस्ट्री तो मानों आसमान छू गई; हमारी पहली मुलाक़ात में हमने जी भर के, जोश भरी चुम्मा चाटी की। कोई ताज्जुब कि हमारी दूसरी मुलाक़ात में, बिछड़े हुए प्रेमियों जैसे जब हम मिले, यूं लगा कि हमारे बिस्तर पर जैसे बिजली चमक रही थी। गहरा जुनून ... गहरी फ़ीलिंग ... सब कुछ गहरा। पहली बार मिलने के क़रीब एक महीने बाद, गपशप, गाड़ी में इधर उधर घूमने और जोशीले सेक्स की लंबी शाम के बाद, हम बिस्तर में “चिल” मार रहे थे। पंगा ये था कि मैं सिर्फ़ “चिल” नहीं मारना जानती थी। मेरा दिमाग़ और भी नज़दीकी का प्यासा था, और अनजाने में मैं ये कह गई, “तो, क्यों ना हम हमारे रिश्ते को और सीरियस बनाते हैं?” वह दंग रह गया। मैंने फौरन एक डर सा महसूस किया - ठुकराए जाने का डर, अकेले रहने का डर, मुझमें कमी होने का डर। उसने कहा कि उसे सोचने का थोड़ा वक़्त चाहिए था और एक मीठा सा बाय कहकर वह चल दिया। और तबसे आज तक हम एक दूसरे से नहीं मिले हैं। लेकिन उस दिन जो हुआ, उसका एक फ़ायदा हुआ। मैं एक मनोचिकित्सक से मिली l  मैंने एक टेस्ट लिया, यह जानने के लिए, कि मुझे ADHD है कि नहींl अब मैं ADHD के लिए दवा ले रही हूँ। मैंने ये जाना कि मेरा दिमाग़ किसी “नॉर्मल” दिमाग़ की तरह काम नहीं करता। ADHD के कारण दिमाग़ के अंदर हॉर्मोन के स्तर पर असल में क्या चलता है, इसपर वैज्ञानिकों में अब तक कोई सम्मति नहीं है। लेकिन वे इस बात पे  ज़रूर सहमत हैं, कि जिसे ADHD है,  उसे  मानसिक और व्यवहार संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। और वे ये भी मानते हैं कि दवाइयों से लोगों को इन चुनौतियों से कुछ हद तक राहत भी मिलती है । इसके होते अक्सर मन अस्थिर होता है, बातें याद रखने में कठिनाई होती है और किसी फितूर में, जो मन कहे, झट से वो कर डालने की आदत बढ़ जाती है। ADHD से ग्रस्त दिमाग़ की ये कुछ विशेषताएँ हैं। शराब, ढेर सारा रोमांस, पहले चुंबन की मादकता, जोशभरा सेक्स, छिप छिपकर जताए गए प्यार का लाजवाब शरारती अहसास, और प्यार में कभी न खत्म होने वाली रंगरलियाँ... अपने आप को, और अपने दिमाग़ को शांत करने के मेरे तरीक़े थे। अब जब मैं ख़ुद के बारे में और आगाह हूँ, मेरी उम्मीद है कि अपने अचानक से लिए गए फ़ैसलों की ग़ुलाम बनने के बजाय, मैं अपनी पसंद की चीज़ें करना शुरू कर दूँगी। और फिर भी, मैं ये नहीं कहूँगी कि मेरी समस्या हल हो चुकी है। इसके बदले, मैं मानती हूँ कि ये मेरे सफ़र की शुरुआत है, ख़ुद जैसे बनने की कोशिश का सफ़र - मेरे सिर के अंदर की आवाज़ों पे ध्यान ना देने की कोशिश l ये कुछ मेरी आवाज़ें हैं और कुछ दूसरों कीं, जो मुझपे दुनिया की नज़रों वाली कामयाबी का प्रेशर डालती रहती हैं । मैंने ज़िंदगी भर यही चाहा था, कि दूसरों से अलग होने के बजाय,  उनसे जुड़ के रहूँ। आख़िर मेरे आसपास सभी लोगों ने मुझे यही बताया था - कि लोगों में घुल मिलना कितना ज़रूरी था। और अगर कोई ऐसा नहीं करता था, तो उन्हें पराया  करार दिया जाता था। मुझे याद नहीं कि इस बात को मैंने कब पूरी तरह से कबूल कर लिया। लेकिन सबसे अलग होने का डर इतना गहरा था कि मैंने दूसरों से अलग होने के बजाय, उनमें घुल मिलने की पूरी कोशिश की। आख़िरकार अकेले रहना बहुत डरावना जो लगता था। अंदर ही अंदर मुझमें हमेशा छोटी -मोटी लड़ाइयाँ चलती रहती थीं - कितनी सारी आवाज़ें- आज़ाद ख्याल की फ़ेमिनिस्ट जो इस सोच के खिलाफ लड़ती कि किसी नारी का नारीत्व सिर्फ़ तब पूरा होता है, जब वह बीवी बनकर, बच्चों की माँ बन जाती है। उस इंसान की आवाज़ जो अपनी सचाई अपनाना चाहती थी, पर किसी दूसरे की परिभाषा में उलझ जाती थी । मुझमें वो औरत थी जो बिना किसी परिभाषा के रिश्तों को आज़माना चाहती थी, लेकिन मुझमें एक छोटी लड़की भी थी, जो रिश्तों में अपने इर्द गिर्द सुरक्षित हदें बनाना चाहती थी। इन लड़ाइयों का रुकना ज़रूरी था। और उनके रुकने का ज़रिया यह था - ख़ुद से ये पूछना कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं ठीक ठाक हूँ ? कि मैं शर्म इसलिए महसूस कर रही थी क्योंकि मैं अपने को ऐसे दायरों में बाँधना ज़रूरी समझ रही थी, जिनमें मैं बंधना नहीं चाहती थी l  मैं वैसी ज़िंदगी नहीं जीना चाहती थी जो मेरे आसपास के लोग जी रहे थे - कभी कभी ऐसी ज़िंदगी की कीमत होती थी, अपनी आज़ादी, अपनी असलियत से मुंह मोड़ लेना। वैसे देखा जाए तो ज़िंदगी में स्थिरता और सुरक्षा चाहने में  कुछ ग़लत नहीं है; सिर्फ़ ये, कि मैं अपने लिए कुछ और चाहती थी  । हो सकता है कि मैं स्वाभाविक रूप से छोटे, गुप्त रिश्तों की ओर खींची चली जाती हूँ जिनमें मुझे कुछ वक़्त के लिए उस शख़्स का साथ तो मिलता है, लेकिन मेरी आज़ादी पर आंच नहीं आती। हो सकता है, अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ़ एक शख़्स के साथ बिताने के ख्याल में मुझे इतनी दिलचस्पी नहीं है। शायद ज़्यादातर रिश्ते, उम्मीदों के बोझ के साथ आते हैं, और मैं इस बोझ के बिना रिश्तों का अनुभव करना चाहती हूँ। हो सकता है, कि मैं चाहती हूँ कि अपने आप को किसी बने बनाये ढाँचे में न ढालूँ - एक पत्नी, गर्लफ़्रेंड या प्रेमिका के ढाँचे में। अगर हमारा समाज लोगों से इतना आदर्श होने की उम्मीद नहीं करता, तो इससे और लोगों के लिए भी जगह बनती - जैसे कि जिन्हें ADHD है l  बजाये इसके कि इन लोगों को ज़बरदस्ती औरों जैसे 'नार्मल' होने को कहा जाए l ऐसी दुनिया होती, तो हो सकता है कि जो रिश्ते मैंने बनाये, वो भी रोमान्स की किसी परिभाषा में फिट आते। और इससे मैं अपने रिश्तों की सुंदरता को खुद समझ पाती, उनसे शर्मिन्दा नहीं होती। शायद, शायद, शायद… इसमें कोई शक नहीं कि शराब के धुँधलेपन के बिना मेरी ज़िंदगी बेहतर हो गयी है । मैं और सचेत हूँ, जो पल गुज़र रहा है, उसमें पूरी तरह से शामिल हूँ। जान गई हूँ कि मैं शराब का इस्तेमाल सिर्फ़ अपने अंदर की आवाज़ों को शांत करने के लिए कर रही थी। मुझे पता है कि मैं ज़िंदगी का हर  पल, रस लेके  जीना चाहती हूँ । मैं हर इंसान, हर रिश्ते और तजुर्बे पे ध्यान देना चाहती हूँ l पर किसी बने बनाये मकसद को कायम करने को नहीं l किसी आदर्श को सिद्ध करने के लिए नहीं l मैं बस चाहती हूँ कि हर पल एक नेचुरल तरीके से, नदी के समान, अपना रास्ता ढूंढें l डर लगता है l सब कुछ नया नया ,अनजाना लगता है l और मैं अपने को और आज़ाद, और'मैं' जैसा पाती हूँ l    पूर्णिमा राघवन 43 वर्ष की औरत हैं । वो चाहती हैं कि किसी दिन वो लेखिका और कहानीकार बनें। वो अपना वक़्त डिज़ाइन करने में, शौकिया आयफ़ोन फ़ोटोग्राफ़ लेने में और यादों को सजोने  में बिताती हैं ।
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