Agents of Ishq Loading...

जब हम ये चाहते हैं कि कोई हमें छूए, तो असल में हमें क्या चाहिए होता है?

रत्नाबोली रे के साथ एक इंटरव्यू!


हमारी जिंदगी में स्पर्श की क्या एहमियत है? हमारे लिए इसके क्या मायने हैं? स्पर्श न किए जाने का हम पे  क्या असर होता है?

हमने रत्नाबोली रे, जो कि एक मनोवैज्ञानिक, मेन्टल हेल्थ कार्यकर्ता, और महिलाओं की मेन्टल हेल्थ संगठन ‘अंजलि’ की फाउंडर संस्थापक हैं, उनसे बात की।छुअन  और उससे जुड़ी, कई वैसी चीज़ों के बारे में, जिनके बारे में लोग शायद ही कभी बात करते हैं।


मेन्टल हेल्थ एरिया में काम करने वाले लोग, कभी-कभी स्पर्श की कमी के बारे में बात करते समय, उसको 'स्किन हंगर' यानी हमारे स्किन की भूख,  का नाम भी देते हैं। वो असल में क्या कह रहे हैं ?


बहुत से लोग, काफी टाइम से ना छुए जाने पर बेचैन हो उठते हैं। स्पर्श का मतलब हमेशा सेक्स या सेक्शुअल आनंद नहीं होता है। जब लोग स्पर्श ढूंढते हैं, तो दरअसल जो चीज़ उनको चाहिए होती है, वो है नज़दीकी, प्यार, किसी की चाहत बनना या किसी के लिए कीमती होने वाली फीलिंग। और अगर आपको बहुत लंबे समय तक किसी ने नहीं छुआ है, तो जैसा कि मैं अपने काम के दौरान देखती हूं, इससे डिप्रेशन जैसे दूसरे स्तर के मेन्टल हेल्थ प्रॉब्लम का जन्म हो सकता  है।

कभी-कभी न छुए जाने की वज़ह इंसान का रूप और शरीर भी होता है।  मैं जिन लोगों के  के साथ (और जिनके लिए) काम करती हूं - वे लोग मानसिक अस्पतालों में पड़े हुए हैं । और क्योंकि या तो उनके उलझे-बिखरे बाल हैं, या कोई स्किन इन्फेक्शन, या कि पीले दांत, तो इसकी संभावना कम ही होती है, कि कोई उनके पास आएगा, उनको छुएगा । ऊपर से, डाक्टरों को भी  उनके इलाज़ के दौरान उनको छूने की ख़ास ज़रूरत नहीं । अगर आप पेट के डाक्टर के पास जाते हैं, तो उन्हें शायद आपका पेट छूकर देखना पड़े, किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास जाते हैंतो उन्हें भी आपकी जांच करने के लिए आपको छूने की ज़रूरत पड़ सकती है। लेकिन अफ़सोस, साइकाइट्री/ मानसिक चिकित्सा के क्षेत्र में , डॉक्टर को पेशेंट को छूने की ज़रूरत नहीं होती है। इसलिए जब लोग मानसिक संस्थानों में कैद या भर्ती होते हैं, तो स्पर्श का पूरा पहलू ही गायब रहता है। 

जिन लोगों के साथ मैंने काम किया है, उन्होंने कई तरह से छुए जाने की इस ज़रूरत को दर्शाया है। कई साल पहले, जब मैंने काम करना शुरू किया था, तो सब मेरे आने पे जैसे मेरे पे पड़ने ही लगते थे, ख़ासकर कि औरतें। उनपे बहुत गंदगी दिखती थीलेकिन जो बात उसको पसन्द आती थी, वो ये ,कि ना ही उनको यहां डांटा और ना ही झिड़का जा रहा था। मुझे बांग्लादेश की एक लड़की याद है, जिसने कहा था- "तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है।" काफी दिनों बाद एक और मौके पे, जब मैं कुछ मर्दों से मिली थी और उनसे हाथ मिलाया था, तो उनमें से एक ने कहा- "रत्ना दी, तुम पहली इंसान हो, जिसने मुझसे हाथ मिलाया।"  तो सिर्फ छूने भर से, जो ये किसी के लिए कीमती होने की या इज़्ज़त मिलने की भावना आती है, वो मुझे साफ दिखी। यक़ीनन अब औरतें काफी खुल गयी हैं, और इन भावनाओं से ज्यादा जुड़ भी गयी हैं। अब वो साफ-साफ बताती हैं कि उनको किसी का छूना पसन्द आता है। वो एक बंगाली शब्द का इस्तेमाल करती हैं- "शुरशुरी" - जिसका मतलब है, किसी के हल्के से सहलाने से, बदन में कंपकंपी का एहसास होना।

ऐसा नहीं है कि ये 'स्किन हंगर' का नाम उन्होंने दिया है। बल्कि उन्होंने तो बस छुए जाने से मिलने वाले आनंद की बात की थी। ये 'टच हंगर' या 'स्किन हंगर' का नाम तो मैंने दिया है। मेन्टल हेल्थ की प्रक्रिया में इन नामों का औपचारिक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि मैं नहीं चाहती कि इसे किसी बीमारी  का दर्जा किया जाए। 

किशोर हों या एडल्ट , एडल्ट हो या बुजुर्ग तक - कोई भी छुअन का अभाव फील कर सकता है। छुअन की कमी जिनको सबसे ज़्यादा खलती है, वो हैं बुजुर्ग, कैदी या मेन्टल बीमारी से ग्रसित लोग। यहां तक ​​कि सेक्स वर्कर भी इससे पीड़ित हो सकते हैं - कई लोगों ने मुझसे इस बारे में बात भी की है।  काफी लोगों में ये अकेलेपन की वज़ह बन जाता है। और आप देखेंगे कि ये जो कमी है, ये बंद दरवाज़ों में कैद लोगों को तो चुभती ही है, पर साथ-साथ सड़कों पे  भटक रहे लोगों को भी परेशान करती है  । एक बेघर मर्द या औरत, जिसके  उलझे-बिखरे बाल हों और पीले दांत हों , वो लोग किसी को दिखते भी नहीं हैं। वे सड़कों की धूल छानते हैं और उनका शरीर मानो अदृश्य हो जाता है।  और जब आपका शरीर अदृश्य होता है, तो आप खुद भी अदृश्य हो जाते हैं। फिर आपको कोई छुए, ये सवाल ही कहाँ पैदा होता है।छूने के नाम पे  बस पिछवाड़े पर पुलिस की लाठी ही शायद कभी चपत लगा जाए।


#MeToo के इस दौर में, सेक्शुअल  उत्पीड़न और बाल-यौन शोषण (child sexual abuse) के प्रति जागरूकता बढ़ी है। बच्चों को 'अच्छे' और 'बुरे' छुअन के बारे में सिखाया जा रहा है। आप इन अलग-अलग क्षेत्रों को कैसे देखती हैं?

हमारे देश की संस्कृति ऐसी है, कि स्पर्श सिर्फ बेडरूम की प्राइवेसी में ही होता है। पब्लिक रूप से ये तभी होता है जब हम किसी का सम्मान कर रहे हों, जैसे कि बड़ों के पैर छूना। या फिर तब, जब बच्चों को प्यार से पुचकारें। (हालाँकि जैसे-जैसे हम जवानी की ओर बढ़ते हैं, ये बचपन वाली छुअन भी पूरी तरह से गायब हो जाती  है)। देखा जाए तो मेरी पीढ़ी में भी, मुझे नहीं लगता कि लोग खुले तौर पर एक-दूसरे को गले लगाते थे या सड़कों पर हाथ पकड़कर चलते थे। मैंने खुद कभी ऐसा नहीं किया। मुझे लगता है कि ऐतिहासिक रूप से इंडिया में, छुअन को किसी की चाह या फ़ीलिंग दिखाने का जायज़ तरीका माना ही नहीं गया। और अब, इस चरम सीमा से, हम दूसरी चरम सीमा पर चले गए हैं, जहां स्पर्श को एक खतरनाक रूप दिया गया है। जैसे की सेक्स का ओवर-डोज़/हर चीज़ का सेक्सी प्रदर्शन, दुर्व्यवहार/ एब्यूज और साथ साथ छुआन का ये आभाव, स्किन की भूख।

चर्चा और बातचीत के ज़रिए, हमें यौन शोषण, हर चीज़ को केवल सेक्स के रूप में देखना,  और सेक्शुअल दुर्व्यवहार को रोकने के तरीके ढूंढने चाहिए। लेकिन इस चक्कर में छुअन की चाहत या भूख को , कुचलना भी नहीं चाहिए। 

जहां तक ​​’गुड टच’/अच्छी छुअन  और बैड टच/बुरी छुअन  के वर्गीकरण का सवाल है, मुझे लगता है कि ये गलत है क्योंकि ये तो एक नैतिक/मोरल फैसले जैसा हो जाता है। (इसमें ये ख़तरा है कि हम हर तरह के सेक्शुअल  स्पर्श को 'बुरा' और शर्मनाक ना बनाने लगें )। मुझे लगता है कि हमें इसे 'सुरक्षित/सेफ' और 'असुरक्षित/अनसेफ" स्पर्श जैसा वर्गीकरण करना चाहिए।  साथ ही साथ, हमें इस बात का भी एहसास होना चाहिए कि भले ही कोई चीज़ किसी बच्चे के लिए असुरक्षित सी महसूस  हो, पर हो सकता है कि बच्चा उस स्पर्श से उत्तेजित महसूस करे। तो अपनी बातचीत को हम किस तरह बदलें, जिससे ये सभी बारीकियों उसमें शामिल हो सके?

कभी-कभी स्पर्श ऐसे रूप में सामने आ सकता है, जो हमारी अब तक मिली सीख से बिल्कुल ही अलग हो। हम अब तक रास्ते की इन मुश्किल बारीकियों से कम जूझ पाए हैं । हमने सेक्स को लेके, हिंसा, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार पर ही अपना सारा ध्यान डाला हुआ है।  हमारे पास ऐसे लोगों का पूरा जमावड़ा है जिनको आज तक छुअन का अहसास, केवल  सेक्शुअल दुर्व्यवहार के रूप में मिला है  । मैं ऐसे दुर्व्यवहार को बिल्कुल भी महान नहीं बना रही हूं - मुझे गलत मत समझिए। लोगों ने हमें बताया है, कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया था। कितनों के साथ तो बलात्कार भी किया गया था। लेकिन उस समय वो लोग ये सब समझ ही नहीं पाये।


छेड़-छाड़ (चिढ़ाना) के बारे में आपका क्या कहना है?

ये एक बड़ी दिलचस्प बात है। कुछ विकलांग या मानसिक बीमारियों से ग्रसित  औरतों के लिए, यही एक टाइम है, जब उनपर ध्यान दिया जा सकता है। और ये थोड़ी देर का सुख, कि "मुझे देखा जा रहा है", मायने रखता है । ईमानदारी से बोलें, तो मानसिक बीमारी के बिना भी (हो सकता है शायद ये कहने के लिए मुझे अच्छी फटकार मिले), हम में से कई लोग, कभी-कभी हल्की  छेड़-छाड़ के भी मज़े उठाते हैं। और कभी-कभी उसे नापसंद भी करते हैं । ये आकर्षण भी है और इस बात का सर्टिफिकेट भी कि आप एक सेक्शुअल  प्राणी हैं।

हाँ, एक सीमा ज़रूर होनी चाहिए, अगर छेड़-छाड़ उसे पार करे, तो उसे उल्लंघन माना जाए। उस सीमा के अंदर उसमें एक सुख है । इसका कोई तय जवाब तो हो नहीं सकता, ये कहना कि छेड़-छाड़ हमेशा बुरी होती है, सही ना होगा ।

आजकल कोशिश की जा रही है कि एक ऐसी संस्कृति बने जिसमें कंसेंट/मर्ज़ी की इज़्ज़त हो, उसे अहमियत दी जाए । लेकिन क्या मर्ज़ी के बारे में हमारी बातें भी लकीर की फ़क़ीर बनती जा रही हैं ?   क्या हम दूसरे लोगों से बात तक करने में भी ज़रूरत से ज्यादा सतर्क हो रहे हैं?

हाँ, मुझे ऐसा लगता है।  मुझे लगता है कि मर्ज़ी वाली संस्कृति बनाते-बनाते कहीं हम चाहतों का गला ना घोंट दें। 

जब हम मर्ज़ी की बात करते हैं, तो उसके मतलब को साफ-साफ रख नहीं पाते हैं। मैं उस फेमस वीडियो से सहमत नहीं हूं जो मर्ज़ी को एक कप चाय पीने की चाहत से जोड़ता है। ये सब इतना आसान नहीं है। मुझे लगता है कि मर्ज़ी हमारे अचेत (unconscious) मन से निकलकर आती है, और हम नहीं जानते कि हमारे अचेत मन में क्या होता है। है नावहां तो बहुत सारी नाजायज़ बातें भी होती हैं। अगर मर्ज़ी की बात की जाए, फिर तो इस तरह की सोच भी उसमें फिट नहीं बैठती है। 

जब हम मर्ज़ी की बात करते हैं तो हम क्या कहना चाहते हैं? ना मतलब ना और  हाँ मतलब हाँ। ना भी गरजन वाला और तेज़ करारा हाँ। कई मौकों पर मैंने ये महसूस किया कि मैं हां कहना चाहती थी लेकिन फिर मैंने ना कह दिया। तो ये मर्ज़ी का सफ़र खुद मेरे लिए भी सीधा नहीं रहा है। और मर्ज़ी को लेके कौन सी बात बोलकर बयान करनी  चाहिए और कौन सी, सिर्फ़ इशारों से। ये भावनात्मक/इमोशनल है या तर्कसंगत/रैशनल? किसी की छुअन कब सेफ लगती है और कब खतरनाकमतलब हमने मर्ज़ी को 'हां', 'नहीं' और 'शायद' से आगे देखा ही नहीं है। और कानूनी नज़र में मर्ज़ी का मतलब अलग है, रोज़मर्रा की जिंदगी में अलग और सेक्शुअल लेनदेन में अलग।


तो 'हां' 'नहीं' और 'शायद' के आगे क्या हो सकता है?

मुझे लगता है कि अगर हम मर्ज़ी को एक इंद्रधनुष के बहुरंगी विस्तार जैसे देखें, तो बेहतर होगा। जैसे हाँ शायद 10% हाँ हो - शायद कुछ इस तरह। मर्ज़ी को किस तरह बयान किया जाए, शायद इसके बारे में भी बात करनी चाहिए। हमें दूसरे मुद्दों के साथ भी इसे तौलना चाहिए- जैसे कि लोगों के बीच के रिश्तों में, पावर के मसले ।

तो क्या हमें अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में  जीवन मे और छुअन शामिल करने की ज़रूरत हैऔर अगर हम ऐसा करें, तो किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

देखो हमें खुश रहने के लिए गले लगने या झप्पी देने वाली थेरेपी नहीं चाहिए। ना ही कोई 100 झप्पियों वाला नुस्खा। मुझे लगता है कि सबसे पहले हमें ये मानने की जरूरत है कि हमें छुअन चाहिए।  हमें इसके बारे में इमोशनल तरीके से सोचना शुरू करना होगा। क्या मुझे स्पर्श की कमी खल रही है, या नहीं? बस एक बार हम मान लें कि हम स्पर्श की कमी महसूस कर रहे हैं, तो ही हम आगे बढ़ सकते हैं।  दूसरा, हमें इस बारे में बात करना शुरू करना होगा। और तीसरा - स्पर्श को प्रैक्टिस में लाना।  हम अक्सर किसी को छूने में झिझकते हैं - ये झिझक क्यों? हमें ये मानना होगा कि हर छुअन किसी सीमा का उल्लंघन नहीं कर रही । और ये ज़रूरी  है कि हम अपनी प्राथमिकतायें पहचानें और इस बात की समझ रखें कि कौन सा स्पर्श हमें अच्छा नहीं लग रहा।

हम ये मानकर ना बैठ जाएं कि हर छुअन  सीमा के बाहर है। भले ही हम सुरक्षित और असुरक्षित स्पर्श की बात करें, पर साथ ही साथ, ये भी मानें कि छुअन  जिंदगी के कुछ बहुत ही सुखद और ज़रूरी पल भी दे सकता है।

Score: 0/
Follow us: