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अगर कामुकता एक दावत है, तो डाक्टर हमें उस दावत पे खाने का निर्देश देते हैं । तो फिर हम अपने आप को ऐसा करने से क्यों रोकते हैं?

Sexual health is not only about the body, but also about the mind. A thoughtful piece that talks about sexual mental health as it traces the caste system of virtue and pleasure and its links to mental sexual health.

इस लेख में, अमृता नारायणन, लैंगिक सुख और गुणवान होने  की जाति व्यवस्था के बीच की कड़ियाँ जोड़ती हैं, ताकि लैंगिक सेहत के बारे में बात करते समय दिमाग और आत्मा पे भी ध्यान दिया जा सके, ना सिर्फ शरीर पे। इशिता बासु मल्लिक द्वारा चित्रित अनुवाद: तन्वी मिश्रा सेक्स और निजी व्यक्तित्व: जाने अनजाने में बनी जाति व्यवस्था खाने और सेक्स के बीच की निहित समानताएं दिमाग में स्वाभाविक तरीके से आती- जाती हैं; दोनों में किसी के बारे में भी सोचो - बड़े रसीले विश्लेषण कूदते-फाँदते हुए लब पर आते हैं: लज़ीज़, सुस्वाद, स्वादिष्ट, संपन्न, लज़्ज़तदार। तकरीबन हम सब खाने के सन्दर्भ में बातचीत करते समय इन शब्दों का आसानी से प्रयोग करते हैं। लेकिन जैसे एजेंट्स ऑफ़ इश्क़ में ग्लिच ने कुछ समय पहले बहुत चतुराई से अपने इस लेख में कहा था, सेक्स की बात आने पर हम उसके मज़े का खुल कर वर्णन करने में कंजूस हो जाते हैं। जब हम सेक्स के बारे में बात करना शुरू करते हैं, खाने के लिए इस्तमाल होने वाले आसक्त विशेषणों को हम फ़िल्टर कर देते हैं, और उनकी जगह सन्नाटा ले आते हैं, या फिर उससे भी बदतर, हमारे चेहरे पर ऐसे स्थिर भाव आ जाते हैं, जिससे पता चल जाता है कि हम चुप चाप, दूसरे की दुनिया में क्या पोज़ीशन है,उसका ब्योरा दे रहे हैं । हम लैंगिक सुख के बारे में ज़्यादा चर्चा नहीं करते हैं, और जो व्यक्ति अक्सर सेक्स करते हैं उनके बारे में ईर्ष्या प्रकट करते हैं - उन्हें स्टड या स्लट बुलाकर । या फिर उनके सेक्स से होने वाले प्रभाव पर टिप्पणी देते हैं- बेल्ट में एक और छेद, इज़्ज़त पर दाग, उनके व्यक्तिगत जीवन में भूचाल ।।या फिर हम जासूस बन जाते हैं, और किसी लैंगिक परिस्थिति में 'फंसे होने' या 'पकड़े जाने' की बात करते हैं। जिस तरह से हम सेक्स के बारे में बात करते हैं - या फिर चुप रहते हैं - उस से लैंगिक सुख से जुड़ी पाबंदियों को लेकर हमारी चिंताएं स्पष्ट हो जाती हैं। सेक्स से जुड़े सुखों के बारे में चर्चा करने या उसका जम कर विश्लेषण करने में हमारी असमर्थता का कारण यह है कि हमें लगता है यह बातचीत ना सिर्फ हम जिन चीज़ों में मज़ा लेते हैं उनका, लेकिन हमारे व्यक्तित्व का भी पर्दाफ़ाश कर देगी यूँ लगता है जैसे कि लैंगिक सुख से जुड़ी आसक्ति को स्वीकारना हमें एक ऐसी जाति व्यवस्था में जगह देता है जहाँ वह लोग जो बिना लैंगिक सुख के काम चलाते हैं, या लगाव को सेक्स से ज़्यादा महत्त्व देते हैं, वह सबसे ऊँची जाति का हिस्सा बन जाते हैं। इतिहास में, लैंगिक सुख पर यह पाबंदी का जाति से सही मायनों में ताल्लुक है - भले ही वह सीधे-सरल तरीके से ना हो। जाति व्यवस्था में, सुख की पाबंदी सबसे ज़्यादा खाने पर लागू होते दिखती है, और ब्राह्मणवाद की एक सोच यह भी है कि वह कुछ ख़ास प्रकार के खाने को ज़्यादा महत्त्व देता है। ब्राह्मणवाद खाने को बे-लगाव तरीके से खाने पर ज़ोर डालता है, ना कि हर तरह के खाने का स्वाद और मज़ा लेने पर। मैं दक्षिण की गहराईओं से आती हूँ, जहाँ आज भी एक बुज़ुर्ग महिला को अपनी अलमारी में चॉकलेट छुपाते हुए देखना साधारण बात है ताकि वह छुपकर उसे अकेले में खा सके; जबकि अपने परिवार की संगत में वह ज़ोर-शोर से अपने लम्बे अरसे से चली आ रही चावल के मांड के प्रतिकी घोषणा करती है। यहाँ, मध्यम-वर्षीय पुरुष अपने मनपसंद व्यंजनों के बारे में थोड़े रूखे मिज़ाज से बात करते हैं, जिसमें सुख का कोई नामों-निशाँ नहीं होता, जिस से ऐसा लगता है कि वह मौसम के बारे में बात कर रहे हैं, अंग्रेज़ों की तरह। यूं लगता है जैसे उनसे आसक्त शब्दों  को ही अंदर से बाहर निकालने में बड़ी मुश्किल होती है। भारतीय शहरी सेटअप में आधुनिक जीवन में लोग सुख को खाने से बहुत आसानी से जोड़ लेते हैं। हाँ, खाने से जुड़ा घमंड अब भी दिखता है - अलग अलग तरीकों से - लेकिन वह जाति से ज़्यादा वर्ग से जुड़ा होता है। लेकिन आधुनिक भारतीय जीवन में यह मान लिया गया है कि तली हुई मुर्गी, पानी-पूरी  और पिज़्ज़ा का जश्न मानना और उसके प्रति आसक्ति दिखाना जायज़ है। सेक्स भी सुख से जुड़ी जाति-जैसी परछायीओं से निकलने का प्रयास कर रहा है। फिर भी अक्सर, हम कैसे, किसके साथ और कितनी बार सेक्स करना पसंद करते हैं, इस से दुनिया अब भी हमारा मूल्य निर्धारित करते नज़र आती है। तो शैय्या में जो हम करते हैं इसका हमारे आत्म सम्मान से बहुत करीबी नाता है खाने और सेक्स के बीच की निहित समानताएं दिमाग में स्वाभाविक तरीके से आती- जाती हैं; दोनों में किसी के बारे में भी सोचो - बड़े रसीले विश्लेषण कूदते-फाँदते हुए लब पर आते हैं: लज़ीज़, सुस्वाद, स्वादिष्ट, संपन्न, लज़्ज़तदार। तकरीबन हम सब खाने के सन्दर्भ में बातचीत करते समय इन शब्दों का आसानी से प्रयोग करते हैं। लेकिन जैसे एजेंट्स ऑफ़ इश्क़ में ग्लिच ने कुछ समय पहले बहुत चतुराई से अपने इस लेख में कहा था, सेक्स की बात आने पर हम उसके मज़े का खुल कर वर्णन करने में कंजूस हो जाते हैं। जब हम सेक्स के बारे में बात करना शुरू करते हैं, खाने के लिए इस्तमाल होने वाले आसक्त विशेषणों को हम फ़िल्टर कर देते हैं, और उनकी जगह सन्नाटा ले आते हैं, या फिर उससे भी बदतर, हमारे चेहरे पर ऐसे स्थिर भाव आ जाते हैं, जिससे पता चल जाता है कि हम चुप चाप, दूसरे की दुनिया में क्या पोज़ीशन है,उसका ब्योरा दे रहे हैं । हम लैंगिक सुख के बारे में ज़्यादा चर्चा नहीं करते हैं, और जो व्यक्ति अक्सर सेक्स करते हैं उनके बारे में ईर्ष्या प्रकट करते हैं - उन्हें स्टड या स्लट बुलाकर । या फिर उनके सेक्स से होने वाले प्रभाव पर टिप्पणी देते हैं- बेल्ट में एक और छेद, इज़्ज़त पर दाग, उनके व्यक्तिगत जीवन में भूचाल ।।या फिर हम जासूस बन जाते हैं, और किसी लैंगिक परिस्थिति में 'फंसे होने' या 'पकड़े जाने' की बात करते हैं। जिस तरह से हम सेक्स के बारे में बात करते हैं - या फिर चुप रहते हैं - उस से लैंगिक सुख से जुड़ी पाबंदियों को लेकर हमारी चिंताएं स्पष्ट हो जाती हैं। सेक्स से जुड़े सुखों के बारे में चर्चा करने या उसका जम कर विश्लेषण करने में हमारी असमर्थता का कारण यह है कि हमें लगता है यह बातचीत ना सिर्फ हम जिन चीज़ों में मज़ा लेते हैं उनका, लेकिन हमारे व्यक्तित्व का भी पर्दाफ़ाश कर देगी यूँ लगता है जैसे कि लैंगिक सुख से जुड़ी आसक्ति को स्वीकारना हमें एक ऐसी जाति व्यवस्था में जगह देता है जहाँ वह लोग जो बिना लैंगिक सुख के काम चलाते हैं, या लगाव को सेक्स से ज़्यादा महत्त्व देते हैं, वह सबसे ऊँची जाति का हिस्सा बन जाते हैं। इतिहास में, लैंगिक सुख पर यह पाबंदी का जाति से सही मायनों में ताल्लुक है - भले ही वह सीधे-सरल तरीके से ना हो। जाति व्यवस्था में, सुख की पाबंदी सबसे ज़्यादा खाने पर लागू होते दिखती है, और ब्राह्मणवाद की एक सोच यह भी है कि वह कुछ ख़ास प्रकार के खाने को ज़्यादा महत्त्व देता है। ब्राह्मणवाद खाने को बे-लगाव तरीके से खाने पर ज़ोर डालता है, ना कि हर तरह के खाने का स्वाद और मज़ा लेने पर। मैं दक्षिण की गहराईओं से आती हूँ, जहाँ आज भी एक बुज़ुर्ग महिला को अपनी अलमारी में चॉकलेट छुपाते हुए देखना साधारण बात है ताकि वह छुपकर उसे अकेले में खा सके; जबकि अपने परिवार की संगत में वह ज़ोर-शोर से अपने लम्बे अरसे से चली आ रही चावल के मांड के प्रतिकी घोषणा करती है। यहाँ, मध्यम-वर्षीय पुरुष अपने मनपसंद व्यंजनों के बारे में थोड़े रूखे मिज़ाज से बात करते हैं, जिसमें सुख का कोई नामों-निशाँ नहीं होता, जिस से ऐसा लगता है कि वह मौसम के बारे में बात कर रहे हैं, अंग्रेज़ों की तरह। यूं लगता है जैसे उनसे आसक्त शब्दों  को ही अंदर से बाहर निकालने में बड़ी मुश्किल होती है। भारतीय शहरी सेटअप में आधुनिक जीवन में लोग सुख को खाने से बहुत आसानी से जोड़ लेते हैं। हाँ, खाने से जुड़ा घमंड अब भी दिखता है - अलग अलग तरीकों से - लेकिन वह जाति से ज़्यादा वर्ग से जुड़ा होता है। लेकिन आधुनिक भारतीय जीवन में यह मान लिया गया है कि तली हुई मुर्गी, पानी-पूरी  और पिज़्ज़ा का जश्न मानना और उसके प्रति आसक्ति दिखाना जायज़ है। सेक्स भी सुख से जुड़ी जाति-जैसी परछायीओं से निकलने का प्रयास कर रहा है। फिर भी अक्सर, हम कैसे, किसके साथ और कितनी बार सेक्स करना पसंद करते हैं, इस से दुनिया अब भी हमारा मूल्य निर्धारित करते नज़र आती है। तो शैय्या में जो हम करते हैं इसका हमारे आत्म सम्मान से बहुत करीबी नाता है ।   सदाचार और लैंगिक सेहत कुछ ख़ास व्यंजनों की तरह, कुछ लैंगिक बर्ताव और गतिविधियों को भी पवित्र माना गया है। लैंगिक सुख के फैसले दिमाग के वेंट्रल स्ट्रिएटम हिस्से से जुड़े हुए हैं। लिम्बिक व्यवस्था में स्थित, जो कि दिमाग का  पुराना हिस्सा है, वेंट्रिकल स्ट्रिएटम सेक्स के फैसले लेने के लिए न्यूरो-ट्रांसमीटर डोपामाइन का इस्तमाल करता है। दिक्कत यह है कि, मीडियल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स - खुद के ज्ञान से जुड़ा दिमागी सेंटर - इस फैसले को व्यक्तित्व की भावना से जोड़ता है, फिर उस फैसले को एक अनोखा महत्त्व सौंपता है, और उसपर अपना मूल्यांकन देता है।खुद के ज्ञान से जुड़ा सेंटर दिमाग में जड़े सदाचार के सामजिक विचारों का उपयोग करते हुए सेक्स का मूल्यांकन करता है। यानी कि, हो सकता है कि लैंगिक सुख का सेंटर सेक्स के एक ख़ास स्वाद को चुने - पर फिर वो ‘खुद के ज्ञान का केंद्र’ उसे - कई बार बड़ी बेशर्मी से - उस स्वाद का जाति ज्ञान और मूल्यांकन दे जाता है। यानी सदाचार की चिंता में सेक्स अक्सर हार जाता है, यह सभी सभ्य समाजों की निशानी है, ना सिर्फ भारत की। जैसे फ़्रॉईड ने एक मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति के बारे में बात करते हुए कहा था, "इसके लिए खुश रहना ज़्यादा संभव होता, अगर यह अपने सदाचार को कुछ काम कर पाता"। शास्त्रीय मनोविश्लेषण विज्ञान एक आत्मकामी त्रिकोण की बात करता है जो "सेहत, संपत्ति और सौंदर्य" से बना हुआ है; इस त्रिकोण में आधुनिक मनोविश्लेषण ने सदाचार को चौथा कोण बना कर जोड़ दिया है। क्या अच्छा है, वह गुण कितना ज़रूरी है, यह व्यक्ति-निष्ठ होता है, लेकिन जीवन में काफी पहले परिवार और समाज द्वारा इसका फैसला हो जाता है, और फिर यह हमारे अचेत में बस जाता है। जब हम किसी तरह की लैंगिक गतिविधि या कल्पना में हिस्सा लेते हैं, तो हमारा दिमाग इस बसी हुई जानकारी को निकालकर हमारे निजी-व्यक्तित्व की भावना का आकलन करने में जुट जाता है। जबसे इस विचार का जन्म हुआ कि  क्योंकि हमारे अंदर की नैतिकता- यानी क्या ठीक है और क्या गलत?- जीवन के प्राथमिक सालों में ही तय जो जाती हैं, अक्सर इसका मतलब होता है कि हम अपने सदाचार की रक्षा करने में दृढ़ होते हैं, कि हम अपनी लैंगिक कल्पनाओं को अपने आप से भी छिपा कर रखते हैं। या, जैसे कवि अमृता प्रीतम ने लिखा था: "बात कुफ्र की की है हम ने…"   अगर सदाचार मेन्यू पर नहीं होता तो क्या होता? अच्छी लैंगिक मानसिक सेहत का मतलब है कि हम अपने लैंगिक रहस्य जान सकते हैं, और हम क्या चाहते हैं उससे सहज महसूस कर सकते हैं। याद रखिए, हम अपनी लैंगिक आकांक्षाओं की बात कर रहे हैं, उनकी जो दबा दी जाती हैं, क्योंकि वह सदाचार को लेकर हमारे विचारों से मेल नहीं खाते। हमारी लैंगिकता को लेकर मानसिक सेहत काफी हद तक हमारी संपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है, खासकर हमारे आत्म सम्मान पर: जितना हम खुद पर विश्वास करते हैं, लैंगिक सुख से जुड़ने का चुनाव करने की संभावना हमारे लिए उतनी ही बढ़ जाती है,  बजाय इसके कि हम संस्कृति या परिवार से सीखे आए सदाचार के विचारों में बंधे रह जाएँ। हमारा आत्म-सम्मान जितना कम हो, सेक्स से जुड़े "जाती-आधारित" चुनाव करने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है, इतना कि हमारा दिमाग हमारे लैंगिक चुनावों को आत्म-सम्मान की खाद की तरह इस्तमाल कर सकता है। इसके विपरीत, अधिक कामी लोग जो बिना अपनी अंदरूनी जाति-व्यवस्था से सलाह लिए सेक्स के बारे में फैसले लेते हैं, सेक्स के बाद खेद महसूस करने का जोखिम उठाते हैं। दिमाग में, आत्म-सम्मान एक ख़ास रास्ते पर बसा होता है, जिसे फ़्रंटोस्ट्रिआटल पाथवे के नाम से जाना जाता है, जो मीडियल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स को, जोकि खुद से जुड़े ज्ञान को संभालता है, वेंट्रल स्ट्रिएटम से जोड़ता है, जो प्रेरणा और इनाम की भावनाओं को संभालता है। आत्म सम्मान के रास्ते/पाथवे की सेहत उसकी संरचनात्मक ताकत (जो दीर्घकालिक आत्म सम्मान की सूचक है) और उस पाथवे पर होने वाली गतिविधि या "ट्रैफिक", जो क्षणिक आत्म सम्मान को मापती है, दोनों से आंकी जाती है । फिर जब सेक्स की बात आती है, अगर हम लैंगिक सुख से जुड़े ऐसे चुनाव करते हैं जो हमारी आत्म-जागरूकता और मूल्यों की व्यवस्था द्वारा सारहनीय दृष्टि से देखे जाते हैं,  स्वीकार लिए जाते हैं - या टाल दिए जाते हैं - तो आत्म सम्मान के पाथवे पर होने वाली प्रक्रिया शुरू हो जाती है। क्योंकि वेंट्रल स्ट्रिएटम ख़यालों और कल्पनाओं से उतना ही प्रभावित होता है जितना कि असल लैंगिक गतिविधियों से, हम सेक्स के बारे में जैसे मन ही मन सोचते हैं या बात करते हैं, उस से भी हमारे आत्म सम्मान पर असर करता है। आप फिर सोच सकते हैं कि अगर वेंट्रल स्ट्रिएटम "सेक्स करो" का मैसेज दे रहा है और मीडियल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स कह रहा है "सेक्स समय की बर्बादी है", तो आपके फ़्रंटो-स्ट्रिआटल पाथवे पर भीड़ हो जाती है और यह आपके आत्म सम्मान पर असर करता है - सरल तरीके से कहा जाए तो इसका मतलब है कि इससे आपको यह महसूस होता है कि आप अच्छे इंसान नहीं हैं। हम सेक्स कैसे करते हैं, यह हमारी पहचान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और बिलकुल अनोखा हिस्सा है, और जितनी सहजता से हम अपनी लैंगिक कामनाओं को स्वीकारते हैं, उतना ही हम ना सिर्फ इन कामनाओं का मगर खुद का भी मज़ा उठा सकते हैं। अगर हमारा प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स जातिवाद में विश्वास रखता है - मतलब कि वह सीमित श्रेणी या आवृत्ति की लैंगिक कामनाओं को महत्त्व देता है - तो हम अपनी सबसे अंदरूनी- कामनाओं को अनजाने में खामोश करने का जोखिम लेते हैं या किसी निषेध लैंगिक ख़याल, जो हमारे अचेत में से ही क्यों ना आया हो, के बारे में बुरा महसूस करते हैं। लैंगिक मानसिक स्वास्थ का मतलब है कि हम खुद की लैंगिकता को जानने की क्षमता को और मज़बूत बनाएं। इसके लिए हमारे संपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य के एक ख़ास विकास की ज़रुरत है… ऐसा विकास, जिसमें हम अपने अंदरूनी लैंगिक ख़यालों और बर्तावों का वैसा ही स्वागत करें जैसे हम खाने का अक्सर करते हैं, बस यह सोच कर कि यह स्वादिष्ट है, या नहीं। इसके लिए एक रास्ता है एक तरह का सचेतन मन, जो हर बात पर आलोचना ना करे। ऐसी साधना जो ध्यान से जुड़ी है। लेकिन शायद सबसे आसान और समाज से जुड़ कर रहने का तरीका है दूसरों के लैंगिक सुख को मुस्कुराते हुए समर्थन देना, प्रोत्साहन देना, जैसे ग्लिच ने पिछले हफ्ते अपने दोस्तों के बारे में बात बताते हुए हुए सलाह दी। जब ग्लिच को अपने दोस्तों की नामंजूरी मिली तो उसने नए, आमोद प्रेमी मित्र बनाए। यहाँ पे एक महत्वपूर्ण लेकिन उग्र सीख है: अपनी लैंगिक मानसिक सेहत के लिए एक ऐसे समूह का हिस्सा बनना जो यह मानती हो कि इंसान होने के अनुभव में लैंगिक सुख की दावत एक जायज़ हिस्सा है। और शायद इस समुदाय को ढूंढने का पहला कदम है समुदाय का एक ऐसा सदस्य बनना जो किसी के भी इस लैंगिक दावत का स्वाद लेते हुए ‘पकड़े जाने’ पर , उसको प्रोत्साहित करें और इस बात का मज़ा  । अमृता नारायण एक मनोविश्लेषण मनोवैज्ञानिक और लेखिका हैं जो गोवा में रहती हैं। 'ए प्लेसंट काइंड ऑफ़ हैवी एंड अदर इरोटिक स्टोरीज' नामक कथा संग्रह की वह लेखिका हैं, और मनोविश्लेषण पे बहुत सारे नॉन फिकशन निबंध लिख चुकी हैं जो औरतों और लैंगिकता की बात करते हैं; यह भारत, यु.के. और यु.एस.ए में छप चुके हैं।    
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