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मेरे माँ-बाप के प्रेम विवाह से मैंने क्या सीखा

मैंने उनसे ही सीखा है कि प्यार है इतनी कमाल की चीज़, कि इसके लिए मुश्किलें उठाना लाज़मी है।

  मेरे माता-पिता के मिलने की कहानी: 1980 के दशक के कहीं बीच में मेरी माँ, जो कि एक बड़े शहर में रहती थी, अपनी एक सहेली के साथ रात को बाहर गई। दरअसल माँ की ये सहेली अपने किसी जान पहचान वाले लड़के के साथ मेरी माँ को सेट करना चाहती थी। वो लड़का अपने रूम-मेट को भी साथ ले आया था- शायद मोरल सपोर्ट के लिए या फिर इसलिए कि दोनों लड़के एक-एक लड़की के साथ डेट (Date) कर पाएं। मेरी माँ को वह लड़का तो पसंद नहीं आया, लेकिन हाँ, उसका रूम-मेट काफी प्यारा लगा। मेरी माँ ने अपनी सहेली को कहा कि वह उस रूम-मेट तक यह बात पहुंचा दे कि वो उससे किसी कैफ़े (cafe) में मिलना चाहती है। और बस दो हफ़्तों में ही, वो दोनों एक  दूसरे को समझने लगे, प्यार करने लगे और उन्होंने शादी करने का फैसला भी कर लिया । प्यार में अंधे, दोनों यह सच्चाई नहीं देख पाए कि वे अलग-अलग जाति, समुदाय और देश के अलग हिस्सों से आते हैं। और यह भी कि मेरी माँ उम्र में पाप से बड़ी थी। ये सब चीज़ें उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थीं। लेकिन मेरी माँ के माता-पिता उस समय आग-बबूला हो गए जब उन्हें ये पता चला कि मेरी माँ किसी दूसरी जाति के लड़के को डेट कर रही है। मेरी नानी रोने लगी, नाना ने धमकी दी कि अगर मेरी माँ का बॉयफ्रेंड कभी भी उनके घर आया तो वो उसे गोली मार देंगे (वो यूं ही नहीं कह रहे थे: उनके पास बंदूक थी)। मेरी नानी ने मेरी दादी से मुलाकात की और उन्हें मनाने की कोशिश की कि वह इस शादी के लिए ना कर दें। मुझे पता चला कि मेरी दादी ने कहा कि वह भी इस रिश्ते से खुश नहीं थीं, लेकिन फिर उन्होंने ऐसा कुछ कहा जो आज उनके गुजरने के 15 साल बाद भी मेरे दिल को छू जाता है।( जबकि उनके साथ जुड़ी यादें बहुत अच्छी नहीं रही हैं। )उन्होंने कहा था, "हम अपने बेटे को खोना नहीं चाहते हैं।" मेरी मां के माता-पिता को शायद ऐसा कोई डर नहीं था। उन्होंने मेरी माँ को परिवार से अलग कर दिया। जब मैं छोटी थी, मैंने अपना बचपन मानो एक अजीब से दोतरफा माहौल के कहीं बीच में बिताया। माहौल का एक हिस्सा मेरे दादा-दादी के साथ था, जो हमारे ही साथ रहते थे और मेरा काफी ख़याल रखते थे l  लेकिन मेरी माँ को लेकर काफी मतलबी थे और उन पर अत्याचार भी करते थे। और दूसरा हिस्सा मेरे नाना-नानी थे, जो अपनी गैर मौज़ूदगी में और भी मौज़ूद से लगते थे। ऊपर से भिन्न समाज, भाषा, जाति और आगे जाकर घर और पड़ोस के भिन्न माहौल। खासकर तब जब मेरे माँ-पापा कुछ सालों के लिए अलग हो गए थे। कभी-कभी स्कूल में भी मज़ाक में मैं खुद ही अपने आप को एक म्युटेंट (अजीब तबदीली से बना हुआ जंतु) बुलाती थी, ताकि कोई मुझसे मेरे परिवार के बारे में ज्यादा सवाल न पूछे। मेरे दादा-दादी से भाषा और संस्कृति से संबंधित किसी भी विवाद से बचने के लिए, मेरे मां-पापा ने इस सब चीजों को हमसे दूर ही रखा। घर में हम सिर्फ इंग्लिश में बात किया करते थे, ना कोई त्योहार मनाते थे और ना ही किसी तरह के रीति-रिवाज़ मानते थे। मेरे एक साथ कई तरह के बैकग्राउंड से होने की वजह से लोगों को लगता था कि मैं एक समझदार, शांत और कई भाषाएं बोलने वाली लड़की होउंगी। लेकिन इसके विपरीत, मैं भाषाओँ में कमज़ोर हूँ, और अभी भी कई बार मुझे ऐसा लगता है कि मैं कोई घुसपैठिया की तरह ही हूँ। यहां तक कि मैं दावा ही नहीं कर सकती कि संस्कृति या रीति-रिवाज़ की कोई भी जड़ मेरे में मौजूद  है। लेकिन बिना किसी परंपरा के साथ बड़े होने का मतलब यह भी था कि हम खुद ही कुछ नई मज़ेदार परंपराएं बना सकते थे। साथ में वक़्त बिताने का हमारा तरीका था- म्यूजिक सुनना या म्यूजिक वीडियोस देखना। रविवार की सुबह का मतलब था एम.टी.वी. (MTV) शुरू करके 1993 में आये इन्फॉर्मर (Informer) की धुनों पर अपने आप कुछ शब्द डाल कर साथ साथ गाना। क्योंकि हम वैसे भी उन गीतों के शब्द नहीं समझ पाते थे। मुझे याद है कि जब मैं छोटी बच्ची थी, मैं और मेरे पापा पूरी रात, खेल-खेल में सर पटक कर (head-banging) मेटालिका (Metallica) का गाने सुनते थे। फिर अगले पूरे दिन गर्दन के दर्द के साथ रहना पड़ता था। हमारा जीवन हमेशा आसान नहीं था, और बचपन में मैंने कई नापसंद, उथल-पुथल वाले और दुःख से भरे अनुभव सहे l मेरा मानना है कि बचपन में दुःख और उथल पुथल सबको मिलता है। इसके बावजूद मेरे बचपन की सबसे अच्छी यादें उन चीज़ों से जुड़ी हैं जो हम साथ किया करते थे, जैसे कि मेरी माँ के कैसेट के साथ-साथ मेरा गाना गाना। या वो समा, जब वो भी अपने घरेलु काम को ब्रेक देकर हमारे साथ नाचने लगती थीं। जब मैं छोटी थी, कई बार मुझे इस बात का दुख होता था कि किसी के ये पूछने पर कि मैं कहां से हूं, मेरे पास कोई सीधा जवाब नहीं होता था (और ऐसा आज भी है)। लेकिन मैंने यह कभी नहीं चाहा कि मेरा किसी और किस्म का परिवार हो। मेरे माता-पिता ने प्यार के लिए जो भी किया, मेरे मन में उसकी एहमियत है। मेरी माँ के छोटे से समुदाय के लोग आज भी उनके बारे में कहते हैं कि वो एक दूसरे समुदाय के लड़के के साथ "भाग गयी" (जबकि वो भागी नहीं थी, बल्कि उनके परिवार ने शादी में शामिल होने से मना कर दिया था)। इस कलंक के धब्बे बहुत हद तक हल्के हो चुके हैं, लेकिन पूरी तरह से गायब नहीं हुए। अक्सर जब कोई मेरे माँ-पापा के बारे में पूछता था, तो मैं यही सुनती थी, "ओह, लौ मैरिज आ?" मेरे व्यक्तित्व की जब-जब बात हुई है, इन बातों का ज़िक्र निकला है। मानो लोगों का इसपे टिपण्णी करना बनता है, भले हीवो उस शादी को स्वीकारें नहीं।   चौदह साल की उम्र में, जब मैं परिवार के एक शादी में गयी थी, तो मेरे एक चचेरे भाई ने अपनी एक दोस्त को मेरी सिचुएशन समझाने के लिए  "मडब्लड" (Mudblood- यानि जिसका खून मिक्स्ड - दलदला है)" शब्द का सहारा लिया। ये शब्द हैरी पॉटर (Harry Potter) किताब का एक शब्द है जिसका इस्तेमाल अलग-अलग समुदाय के माता-पिता होने  (mixed blood) वाले किसी जादुई व्यक्ति के लिए गाली के रूप में किया गया है। ना जाने क्यों, उस समय मुझे इस बात पर बहुत मज़ा आया- ऐसा लगा मानो यही एक शब्द है जिसे हर कोई तुरंत समझ सकता है और जिस से मेरा पूरा वर्णन हो सकता है। (उस में छुपे नस्लवादी -racial purity- भाव को मैं उस समय समझ नहीं पायी)। आज भी मेरे कुछ चचेरे भाई-बहन इस शब्द का प्रयोग यह बताने के लिए करते हैं कि मेरे माता-पिता मिश्रित जाति के हैं।हालांकि मुझे इस बात से नाराज होना चाहिए, लेकिन सच यही है कि मैं नाराज़ नहीं होती हूँ। "याव (कौन सी) जाति?" यह एक ऐसा सवाल था जो हर जगह मेरा पीछा करता था। मैं आमतौर पर जवाब में "कोई जाति नहीं" या "अंतर-जाति" कह देती थी क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि दूसरा क्या जवाब देना है (बदकिस्मती से, हर किसी ने तो ‘हैरी पॉटर’ नहीं पढ़ा था, इसलिए "मडब्लड" शब्द का प्रयोग भी कोई काम का नहीं होता)। मैं ये कैसे मान सकती थी कि मैं थोड़ी सी ब्राह्मण हूँ, जबकि मुझे पता था मेरे पिता के ब्राह्मण रिश्तेदार मेरी माँ के हाथ बना खाना भी नहीं खाते थे। ठीक वैसे ही, मैं इस बात पर भी कैसे गर्व कर सकती थी कि कूर्ग (Coorg) से ताल्लुक रखने वाले मेरी माँ के मांसाहारी समुदाय के कई सदस्य दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति खुल्लम खुल्ला दकियानूसी सोच ज़ाहिर करते थे। और भले ही उनका कोई संगठित धर्म न हो, लेकिन कुछ लोग अपने मतलब के लिए कभी खुद को उच्च जाति का बताते थे और कभी कुछ खुद को अनुसूचित जनजाति का! मेरे कई वर्ष तो यही सोचते हुए बीत गए कि लोगों के सामने मैं खुद को कैसे पेश करूं। और ये कि वो मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, मुझे किस नज़र से देखते होंगे। मैं ये कोशिश करती रहती थी कि अपनी उथल-पुथल भावनाओं को, अपने गुस्से को, अपनी शर्म (shame) को किसी तरह संभाल लूँ। कौन नहीं चाहता कि बिना किसी विवाद या झगड़े के अपनापन मिल सके। लेकिन मैं खुद को उन समुदायों से कैसे जोड़े रखना चाहूँगी जो मुझे अपना मानते ही नहीं? एक समय ऐसा भी था जब मुझे लगता था कि मेरे रिश्तेदार तो मुझे प्यार नहीं ही करते हैं, फिर मैं, कैसे अपने को स्वीकरुँ, अपने से प्यार करूँ। लेकिन आपको पता है ना कि ये गुस्सा, शर्म, भावनाओं के उबाल और बाकी ऐसी चीज़ें, समय के साथ, कम होती जाती हैं। और मेरे पास इसकी एक थ्योरी है - पूरी तरह से अवैज्ञानिक - कि ऐसा क्यों हुआ। उम्र और समझदारी के बढ़ने और थेरेपी करवाने से शायद इसका कुछ सम्बन्ध हो, लेकिन मुझे लगता है कि कुछ और है जिस से मुझे काफी हद तक सुकून मिला- और वो है रोमांस। मुझे अपनी माँ के आत्मविश्वास पर आश्चर्य होता है। उन्होंने कैसे इतनी छोटी कम उम्र में यह तय कर लिया कि जो प्यार उनके अपने परिवार ने उन्हें नहीं दिया, उसकी भरपाई मेरे पिता के मिलने वाले प्यार से हो जाएगी? उन्होंने कैसे इतना बड़ा रिस्क लिया कि अगर उनकी शादी सफल नहीं रही तो उन्हें पूरी दुनिया में अकेले ही रहना पड़ेगा। और कैसे उन्होंने अपने माँ-बाप के प्रति किसी भी तरह के गुस्से को पाले बिना, अपनी पिछली ज़िन्दगी को छोड़कर एक नयी ज़िन्दगी में कदम रखा? यह जानते हुए भी कि उनके मां-बाप के सख्त रवैये के कारण ही वह उनसे अलग होने के लिए मजबूर हुई थी (खासकर इसलिए क्योंकि मुझे आज भी अपनी माँ की ओर से इस बात को लेकर बड़ा गुस्सा आता है।)। मेरे पेरेंट्स के बीच का रिश्ता परियों की कहानी जैसा तो बिल्कुल नहीं है। लेकिन फिर भी, मेरी माँ अभी भी शादी के अपने शुरुआती रोमांस की जब बात करती है, तो हमेशा कि तरह, बिल्कुल एक सपने जैसे, बड़े प्यार और कोमलता के साथ, उस समय को याद करती है। एकदम शालीनता के साथ! मुझे लगता है ये एक वज़ह है कि मुझे खुद के फैसले लेने या उन फैसलों की असफलता से बिल्कुल डर नहीं लगता। हालाँकि मुझे ये पता है कि अगर मैं किसी ऐसे लड़के के साथ रिश्ता जोड़ती हूँ जो मेरे माँ-पापा को पसंद नहीं होगा, वो फिर भी मुझसे रिश्ता नहीं तोड़ेंगे, न मुझे अकेला छोड़ेंगे। लेकिन साथ-साथ मुझे इस बात पर भी यकीन है कि अगर उन्होंने ऐसा कर भी दिया, फिर भी मैं अपने आप को आखिरकार संभाल लूँगी। और ये इसलिए क्यूंकि मैंने उनसे ही सीखा है कि प्यार है ही इतनी कमाल की चीज़, कि इसके लिए मुश्किलें उठाना लाज़मी है। जब मुझे फाइनली प्यार हुआ, और मेरे पहले सीरियस रिश्ते की शुरुआत हुई, तब सब कुछ बड़ा अच्छा और नया लग रहा था।  जैसे कि मैं अपनी जिंदगी की उन्ही पुरानी चीजों को देख रही थी, लेकिन एक नया चमकीला चश्मा डाल के। एक ऐसा कोई था जो मेरे प्लस पॉइंट और मेरी खामियों, दोनों समेत मुझे प्यार करता था। जो पब्लिक में मेरा हाथ पकड़ना चाहता था। जो अपनी पहचान के हर एक से मुझे मिलवाना चाहता था। मेरे वज़न, मेरे रूप, मेरी उपलब्धियां, इन सबको लेकर मेरे डर कम हो गए- गायब नहीं हुए- (और होते भी कैसे, साल दर साल एक-एक कर के यह जमा हुए थे)। लेकिन कुछ समय के लिए मेरे आत्म-संदेह पर लगाम लग गया था। अब इससे क्या फर्क पड़ता था कि मैं फलां समुदाय से थी या नहीं थी.. अब तो हमने ने प्यार से बने एक बेहतरीन नए दो लोगों के समुदाय की स्थापना की थी l  और मैं उसकी को-फाउंडर- सह-संस्थापक- थी? बेशक सबकुछ वैसा नहीं होता है जैसा मैं और आप सोचते हैं। मैंने तय कर लिया था कि मैं कभी शादी नहीं करूँगी। इसकी दो वज़हें थीं- जिनसे मैं बचना चाहती थी। जैसे कि जाति या समुदाय द्वारा पहचान मिलना, पितृसत्ता (patriarchy) की सेवा के लिए एक  में धकेल दिया जाना, और अपनी माँ के उन अनुभवों को वापस जीना जो अत्याचारी ससुराल वालों के साथ उन्होंने झेले थे। पर मुझे धीरे धीरे मेरे बॉयफ्रेंड की बात समझ आने लगी - वो कहता कि वो नहीं जानता कि अपने परिवार के दबाव में शादी करने का विरोध कैसे किया जाए। उसका बचपन मेरे बचपन से बिल्कुल ही अलग था। वो पहले एक गाँव में पला बढ़ा और बाद में एक टीयर -2 (tier 2) शहर में रहा। उसकी बोलचाल की भाषा इंग्लिश नहीं है। और उसका परिवार भारत के एक हिंसक सांप्रदायिक बेल्ट में बसा गहरा रूढ़िवादी और धार्मिक परिवार है। हालांकि जब तक उसने शादी का टॉपिक नहीं उठाया था, ये चीज़ें मुझे परेशान नहीं कर रही थीं। मुझे नहीं लगता है कि  मैंने या इस पार या उस पार किस्म का कोई फैसला लिया। अगर मैंने कहा होता कि मैं उससे शादी नहीं करूंगी, हमारा रिश्ता ख़त्म नहीं होता- मुझे तो ऐसा ही लगता है। मैं देख सकती थी कि वो अपने माता-पिता के शादी को लेकर बढ़ते दबाव के साथ संघर्ष कर रहा था। अपने समुदाय या जाति से बाहर किसी के साथ डेटिंग करना उन्हें नागवार लगता था और वो उसे घर से बाहर भी निकाल सकते थे। और फिर उसके अपने ख़याल भी थे, जो उसकी परवरिश के अनुकूल थे, कि सीरियस रिस्ते और शादी का एक गहन सम्बन्ध है। इस तनाव से भरे माहौल में भी उसने शादी को लेकर मेरी चिंताओं को गंभीरता से लिया। हमने शादी ना करने की संभावना के उपर भी बात की (क्योंकि हम वैसे भी एक साथ ही रह रहे थे)। हालांकि हम ये भी जानते थे कि उसके माता-पिता के लगातार विरोध का उस पर और आखिर में हम दोनों पर गहरा असर पड़ेगा।   मुझे नहीं लगता है कि उस वक़्त तक मैंने इन चीजों पर उतनी स्पष्टता से सोचा था, लेकिन शायद जब मैंने उसे मेरी खातिर कड़े कदम उठाने और उनके परिणाम भुगतने को तैयार देखा तो मैं भी तत्पर हो गई। और एक दिन मैंने शादी के लिए हामी भर कर सिर्फ उसे ही नहीं बल्कि खुद को भी हैरान कर दिया। और फिर उसके परिवार से मिलने के लिए भी तैयार हो गई। यहां मेरे लिए संदेह की भरमार थी। क्योंकि जहां मैं खराब से खराब चीज़ की उम्मीद कर रही थी, वहां सब उल्टा ही हो रहा था। मैं  हर बार गलत साबित हो रही थी। मेरे पार्टनर के पिता, जिन्होंने महीनों तक इस रिश्ते पर नाराज़गी दिखाई और लोग क्या कहेंगे की दुहाई दी, आखिरकार एक दिन हमारे रिश्ते के साथ समझौता कर बैठे। जब उसका परिवार पहली बार मुझसे और मेरे माता-पिता से मिलने आया, तो मैं घबरा रही थी क्योंकि मुझे लगा था कि चीज़ें और बिगड़ेंगी। लेकिन हमारी पहली बातचीत असल में अच्छी ही रही। और जब हमारी शादी हो गई, तब वहां के लोगों के बर्ताव को लेकर मैंने अपने मन को पहले से ही कड़ा कर लिया था। वज़ह वो अनुभव थे जो मेरी माँ और उनके ससुराल वालों के बीच चलती आ रही कड़वी बहस से मिले थे। हालांकि मेरे साथ कुछ उल्टा ही हुआ। उसके परिवार में मुझे पूरी गर्मजोशी और स्वागत के साथ अपनाया गया। मैं एक कूल, आज़ाद बड़े शहर की लड़की थी, जो ये मानती थी कि अगर आप उदार हैं तो आप अच्छे हैं, और अगर आप धार्मिक और रूढ़िवादी हैं तो बुरे हैं l आज मैं उन रूढ़िवादी, जातिवादी और धार्मिक लोगों के बीच थी जो बदलने के लिए तैयार थे! और वो लोग इस बात का सम्मान करते थे कि मेरे पास अपनी खुद की राय और मान्यताएं हैं, जो कि उनसे अलग हैं। गौर से देखें तो, मुझे आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि मेरा जीवन तो वैसे भी दिमाग घुमाने वाले विरोधाभासों (contradictions) से भरा हुआ है। चीजें हमेशा ऐसी रही हैं और ऐसी ही रहेंगी। मेरे पापा के माता-पिता ने उनकी शादी को मंजूरी तो दे दी, लेकिन मेरी मां को दुखी कर के रख दिया। हाँ, इस लड़ाई के कुछ सालों बाद, मेरी दादी के मरने से कुछ पहले, अचानक ही, वह और मेरी माँ पुरानी बातें पीछे रख कर ना जाने कैसे दोस्त बन गए। मेरी मां, एक ’आधुनिक’ शहर की लड़की, जो हिंदू धर्म का अपमान करती है और जाति में विश्वास नहीं करने का दावा करती है, उन्होंने घरेलू कामगारों (नौकरों) के लिए हमेशा हमारे घर में अलग बर्तन रखे। दूसरी तरफ मेरी सास, गर्व से भरी ब्राह्मण, ऐसा करने का सोच भी नहीं सकती हैं।  मेरे परिवार में, हम गले नहीं लगते हैं। लेकिन मेरे पति के परिवार में मर्द-मर्द, औरत-औरत, मर्द-औरत सब गले लगते हैं, प्यार करते हैं, किस करते हैं- ना जाने कितनी बार। अगर मेरी जिंदगी अलग होती, और मेरे पेरेंट्स की शादी पारंपरिक तरीके से हुई होती, और मेरे परिवार के बारे में उठे हर सवाल का सीधा जवाब मेरे पास होता, तो क्या मैं अपनी ज़िंदगी और प्यार को लेकर यही फैसले लेती जो मैंने आज लिए हैं! शायद हाँ, या शायद ना। लेकिन मुझे लगता है कि जिस दिन मेरे पेरेंट्स ने शादी करने का फैसला लिया, उसी दिन से कई घटनाओं का क्रम शुरू हुआ। और इन घटनाओं ने ही मुझे जिंदगी की खासमखास गड़बडों को अपनाने और उनके बीच रास्ता बनाने के लिए तैयार किया है। इसने मुझे जितने जवाब दिए हैं, उससे अधिक मेरे पास सवाल हैं, खासकर ये कि-  क्या मैं जाति और समुदाय से परे होकर मेरे पेरेंट्स के प्यार करने के फैसले और वायदे को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लागू कर सकती हूँ? इस शातिर सोसिअल मीडिया के दौर में मेरा 'चाउ चाऊ' भात वाला बैकग्राउंड मुझे ये सोचने पे मज़बूर करता है कि मैं ऑनलाइन होती पोलिटिकल या रिलीजियस चर्चाओं का हिस्सा कैसे बनूँ। और अगर ना बनूं तो अपनी जिंदगी को ऑफलाईन कैसे करूं। मैंने अभी तक यह नहीं सीखा है कि जाति पर चर्चा करते समय लोगों के अंधे गुस्से से कैसे निपटा जाए। या ये कैसे समझा जाये कि वे अगर"सवर्ण" या "इंटरनेट अम्बेडकराइट" (internet ambedkarite) जैसे शब्द बोल रहे हैं तो दरअसल वो आपका अपमान कर रहे हैं l मैंने अपने जैसे मिक्स्ड जाति वाले लोगों को देखा है। वो अपने ऑनलाइन प्रोफाइल में इस अस्पष्टता को जानबूझकर मिटाने की कोशिश करते हैं, ताकि वे कुछ चुने हुए समूहों के साथ ही पहचान बना सकें। मैं इस ज़रुरत को पूरी तरह समझ सकती हूँ। क्योंकि मैं भी हमेशा एक ऐसे समुदाय के लिए तरसते रही, जो मुझे बिना किसी सवाल के अपनाये। अगर मैं खुद किसी एक समुदाय से जुड़ जाऊं, तो मुझे लगता है कि कुछ मायनों में यह मुझे दूसरे लोगों से उच्च, एक बुद्दिमानी और नैतिकता का दर्जा देगा। वो मुझे प्रामाणिकता और वैधता (legitimacy) भी देगा। और फिर तो ऐसा करना और भी आकर्षक लगने लगता है।   ऐसी दुनिया में, जहां अब ऊंची जाति का होना हमेशा आपको किसी जांच या निंदा से नहीं बचाता है, मुझे खुद के उस हिस्से से अलग होने की चाह होती है। इस उम्मीद से कि अगर आप ही सबसे बुलंद आवाज़ में जाती की निंदा करो तो आप पर कोइ उंगली नहीं उठाएगा। लेकिन मेरे मन में मेरी पहचान को लेकर अनगिनत सवाल और आशंकाएं हैं और इन्होने ही मुझे इस रास्ते पर अंधाधुन्द जाने से रोका है। पहले मुझे इनसे निपटने की जरूरत है। इस बात को और गौर से समझना चाहिए कि मेरी अपनी नज़र में, किसी के साथ बातचीत की शुरुआत अपनी सामाजिक पहचान- social identity-  देकर करना, कहां तक सही है। मेरे ससुराल वालों के साथ, हमारी धारणाओं को लेकर अक्सर विवाद रहता है। (चाहे वह मंदिर जाने के बारे में हो, किसे वोट करना है, वो हो, पोते-पोतियों की प्लानिंग हो या मेरे कपड़ों को लेकर कोई बात हो)। कभी-कभी, जैसे राजनीति और धर्म के मामले में होता है, हम हमेशा असहमत होते ही हैं, और कभी कभी ये बहस भी बन जाती है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि उनकी धर्म को लेकर जो गहरी सोच और निष्ठाएं हैं, उनकी वजह से वो ये मान चुके हैं कि मेरा दरअसल धर्म से कुछ लेना-देना ही नहीं है।  हालांकि इन सभी असहमतियों और तनाव वाले बहस के बाद भी मेरे ससुराल वाले ना ही मुझसे बात करना बंद करते हैं और ना ही मुझे चाहना। मैं जानती हूँ कि मैं सच में कुछ खास हूँ, भाग्यशाली भी हूँ। क्योंकि कई दूसरी अंतर-जातीय (intercaste) रिश्तों के विपरीत, मुझे मेरे घर में हिंसा का कोई डर नहीं है। और मैंने भी कोशिश की है, कि जितनी शिद्दत से हो सके, उतना मैं भी उनको प्यार करूं। हाँ, उनकी राजनीतिक पसंद को किनारे कर के। ये कहना शायद आम हो गया है कि निजी मामला भी राजनीतिक होता है. लेकिन ये फिर भी सच है। एक ही घर में  निजी और राजनीतिक, दोनों पहलूओं से समझौता करना कभी-कभी तकलीफ भी दे सकता है और कभी गन्दा मोड़ भी ले सकता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है मैं अपनी बात नहीं बोलूंगी। क्योंकि मुझे लगता है कि ये कोशिश कभी कभी हर तरह से अपने को लायक साबित करती है । Vi 30 साल की हैं, और उन्हें पढ़ना बहुत पसंद है।
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