बॉडी इमेज : यानि अपने शरीर की छवि को देखकर अपने बारे में कैसा लगता है ? ये किन बातों पर निर्भर है?
साधारणतया लोगों का body image- बॉडी की छवि - कहने से क्या मतलब होता है ?
बॉडी की छवि- body image - यानी हम अपने शरीर के बारे में क्या महसूस करते हैं - हम अपने शरीर को किस तरह से देखते हैं और हमारे अनुसार, दूसरे हमारी बॉडी को कैसे देखते हैं (हालाँकि दूसरों की नज़र का हम बस अनुमान लगाते हैं, हो सकता है हक़ीक़त में वो हमें ऐसा नहीं देखते हों)।
बॉडी इमेज को लेकर हम किस वजह से परेशान होते हैं ?
हममें से हर एक अपने शरीर को अलग तरह से अनुभव करता है। पारिवारिक दबाव, सामाजिक और सांस्कृतिक उम्मीदों, या मीडिया और पॉप-सभ्यताओं (pop culture) में “ परफ़ेक्ट शरीर” की छवियों की लगातार गोलाबारी से हमारे इस अनुभव पर भारी असर पड़ता है। या फिर हम खुद अपने आप पर दबाव डालते हैं, कि हमारी बॉडी को यूं या त्यों होना चाहिए।
इसका हमारे जीवन पर कई तरह से असर पड़ सकता है। हमारा आत्मसम्मान काफ़ी हद तक बॉडी इमेज पर भी निर्भर होता है। ये सेक्स को लेकर हमारे आत्मविश्वास और हमारे मानसिक सेक्सुअल स्वास्थ्य पर भी असर डाल सकता है।
क्या अच्छे दिखने वाले लोग ऐसी मुश्किलों से मुक्त रहते हैं ?
सोचने पर ऐसा लग सकता है कि जो लोग सामाजिक स्तर पर आकर्षक माने जाते हैं, वो इन बातों से परेशान ही नहीं होते होंगे । लकिन सच्चाई ये है कि शारीरिक छवि या बॉडी इमेज का विषय हर किसी को प्रभावित करता है - मर्दों, औरतों, जवान, बुज़ुर्ग, ख़ूबसूरत लोगों, मशहूर व्यक्तियों और साधारण दिखने वाली जनता को भी। फ़्रांज़ काफ़्का (Franz Kafka), मशहूर चेक (चेकेस्लोवाकिया के) लेखक ने एक बार अपनी निजी डायरी में लिखा था “ मैं आइनों से भयभीत रहता था, क्योंकि वो एक ऐसी बदसूरती दिखाते थे जिनसे मैं बचकर भाग नहीं सकता था।” सिंगर माइकल जैक्सन, आर्टिस्ट एंडी वारहोल, कवि सिल्विया प्लाथ और अभिनेत्री मैरिलिन मोनरो, इन सब ने भी शरीर के प्रतिबिम्ब यानि बॉडी इमेज से संघर्ष किया है।
जो लोग सुन्दरता के परंपरागत विचारों में फ़िट नहीं होते, क्या वो सभी अपनी बॉडी के बारे में बुरा ही सोचते हैं ?
आपको ‘पिच परफ़ेक्ट’ मूवी में फैट एमी का क़िरदार निभाने वाली रिबेल विल्सन याद है ? वो पूरी तरह विश्वस्त और खुश थी - और कितनी मज़ेदार थी - यानि वो वैसे ही रहती थी, जैसी वो थी। कुछ लोग, भला वो जैसे भी दिखें, बॉडी इमेज को लेकर बहुत ज़्यादा प्रभावित हो सकते हैं। और दूसरी तरफ, कई लोग अपने आप पर और अपने शरीर पर विश्वास रखते हैं । इसकी चिंता किये बग़ैर कि समाज की सोच में उन्हें कैसा दिखना चाहिए ।
क्या हमारा जेंडर भी इसपर प्रभाव डालता है कि हम अपने आप को कैसे देखते है ?
हाँ - काफ़ी हद तक ! क्योंकि समाज के कुछ ऐसे कठोर नियम हैं जो एक छवि फ़िक्स कर देते हैं कि औरत को हर हाल में यूं ही दिखना चाहिए और यूं ह व्यवहार करना चाहिए। और बहुत कम उम्र से ही औरतों पर पैनी निगाह रहती है कि वो कैसी दिख रही हैं, ठीक दिख रही हैं कि नहीं। इस वजह से बॉडी इमेज औरतों पर और गहराई से और विस्तृत तरीक़े से असर करता है।
लेकिन ज़्यादा से ज़्यादा रिसर्च से ये पता चल रहा है कि मर्द भी अपनी शारीरिक छवि (बॉडी इमेज) से संघर्ष कर रहे हैं, हालाँकि वो शायद इससे अलग अंदाज़ में निपटें - औरतें इस शर्म को ज़्यादा अंदरूनी तौर पर ले जाती हैंपर महसूस करती हैं और अपने शरीर को बदलने की कोशिश करती हैं। जबकि मर्दों की अपनी ख़राब शारीरिक छवि पर कम बात करते हैं और उसका समाधान निकालने की कोशिश भी कम करते हैं।
हो सकता है कि ट्रांस लोग भी जेंडर डिस्फोरिया (Gender Dysphoria) नामक दशा का अनुभव करें । इसमें वो जिस जेंडर से अपने आप को जोड़ते हैं और जो जेंडर उन्हें जन्म और समाज द्वारा दिया जाता है, उनमें संघर्ष की अनुभूति होती है। और अपनी जेंडर पहचान के अनुसार शरीर न होने पर उन्हें बहुत तकलीफ होती है।
आप जैसे दिखते हैं, उसे बदलने की कोशिश करना क्या ग़लत है ?
अपने आप में नहीं - हममें से कई लोग कुछ तरीक़ों से ऐसा करने की कोशिश करते हैं : अपने बालों को डाई करते हैं, स्लिम और टाइट कपडे पहनते हैं, हील वाले जूते/सैंडल पहनते हैं और टेड़े दाँतों में ब्रेसिज़ पहनते हैं। हम अपनी दिखावट बदलते हैं।कभी-कभी इस वजह से नहीं कि हमें अपना मौजूदा स्वरुप नापसंद है, बल्कि इसलिए कि हम अपनी छवि का जश्न मना सकें - रंगीनी और तड़क-भड़क और शरीर पर कलाकारी करके l ये तो लोग युगों से करते आये हैं- टैटू, हेयर डाई, बॉडी पेंट और गहनों के ज़रिये ।
तकनीक की नित नयी उपलब्धियाँ इस तरह की कई चीज़ों को मुमकिन भी बना देती हैं - घर पर कराए जाने वाले “लिप प्लंपर” (Lip Plumper), जो आपके होठों को उभारता है, से लेकर नाक के आकार को बदलवाना या छातियों में इम्प्लांट (Implant) डलवाना और उन्हें उभारना । और आजकल कूल्हों को ऊपर उठाने की सरजरी बड़ी पॉपुलर हो चली है।
आपको अपने किसी दोस्त या किसी प्रियजन के बारे में चिंता हो सकती है जो अपनी छवि की काट-छाँट के लिए कठोर क़दम उठा रहा हो। लेकिन ऐसा करने की चाह रखने वाले को शर्मसार करना भी सही नहीं है - चाहे वो आपका कोई नज़दीक़ी हो या फिर दूर से दिखता कोई मशहूर इंसान।
तो ये कब पता चलेगा कि हम कब अपने शरीर पर हद से ज़्यादा ही परेशान होने लगे हैं ? शरीर पर चिंता करना एक प्रॉब्लम कब बन जाती है?
कभी-कभी, अपने शरीर को लेकर हमारी असुरक्षाएँ हमपर हावी हो जाती हैं और हमें एक गंभीर मनोस्थिति की ओर ले जाती हैं। तो लीजिये व्यवहारों की एक बड़ी लिस्ट जिससे आपको इस बात का संकेत मिल सकता है
कि कब बात चिंताजनक हो चली है :
- कैसे दिख रहे हो, उसपर लगातार सोचते रहना
- दूसरों से लगातार खुद की बराबरी करना
- ख़ुद को आईने में हर घड़ी निहारना
- बार-बार ख़ुद को भूखा रखना
- बार-बार खाने के बाद ज़बरदस्ती खुद से उल्टी करवाना
- बार बार कॉस्मेटिक तकनीक और सर्जरी का इस्तेमाल करना और फिर नतीजों से नाखुश होना
- लोगों के बीच जाना ही नहीं, बाहर जाने से कतराना
- आत्महत्या के ख़याल आना
- एनोरेक्सिया नर्वोसा : इसमें रोगी आम तौर पर अपने खाने की मात्रा को घटाने का कष्ट भोगता है, जिसका नतीजा उसे कम वज़नी (अंडरवेट) बनाता है। अगर इसपर ध्यान नहीं दिया गया, तो ये ब्रेन डैमेज, नाक़ाम अंग और मौत जैसी गंभीर उलझनों की ओर ले जा सकता है।
- बुलिमिया नर्वोसा : पहले बार बार हद से ज़्यादा खाना। फिर उस ज़्यादा को संतुलित करने के लिए झटपटा कर कोशिशें करना, जैसे उल्टियां करना, हद से ज़्यादा एक्सरसाइज करना, या लैक्सटिवेस का हद से ज़्यादा इस्तेमाल करना । इससे डिहाइड्रेशन ( शरीर में पानी की बहुत कमी), जठरांत्रिय - गैस्ट्रोइंटेस्टिनल तकलीफें, और दिल के रोग होते हैं।
- हद से ज़्यादा खाना : बार बार हद से ज़्यादा खाना, और बाद में उसको किसी तरह से जुलाब नहीं देना। इस परिस्थिति में लोग अक्सर ज़्यादा वजनदार होते हैं। उन्हें दिल के मर्ज का ख़तरा भी होता है ।